आर. सिंह
मूलत: बिहार के रहनेवाले आर. सिंह जी दिल्ली में रहते हैं और इन दिनों अमेरिका प्रवास पर हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे ‘प्रवक्ता’ पर नियमित रूप से अपनी रचनात्मक प्रतिभा की छंटा बिखेर रहे हैं। कविता, कहानी और वैचारिक लेख के माध्यम से वो लगातार अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर रहे हैं। उनके अनुभवों से हम लाभान्वित भी हो रहे हैं। पिछले दिनों अन्ना के उपवास पर केन्द्रित उनकी ‘लाइव रिर्पोटिंग’ को पाठकों ने खूब पसंद किया था। हमें जब पता चला कि आर. सिंह जी अमेरिका जा रहे हैं तो हमने फिर तपाक से निवेदन कर दिया कि प्रवक्ता के लिए वहां से कुछ भेजिएगा जरूर। उन्होंने हमारी बात मानी। उन्हें धन्यवाद। प्रस्तुत है अमेरिका से भेजा उनका यात्रा संस्मरण(सं)
आज अमेरिका में आये हुए तीसरा दिन है(२.१०.२०११). कल मैं जान ऍफ़ कैनेडी की समाधि देखने गया था. कैनेडी की ह्त्या के साथ मेरी एक ऎसी याद जुड़ी हुई है कि मैं उस दिन को कभी भी नहीं भूल पाउँगा. २२ नवम्बर १९६३ की वह रात मेरे शाश्वत यादगार का एक हिस्सा बन कर रह गयी है. उस समय मैं इंजिनीयरिंग कालेज के अंतिम वर्ष का छात्र था. रात के करीब साढ़े आठ बज रहे होंगे. मैं जब मेस में रात्रि भोजन के लिए गया तो वहां कुछ साथी पहले से ही मौजूद थे और उनमे अंधविश्वास पर बहस छिड़ी हुई थी. मैंने कहा कि मैं मानता हूँ कि हमलोगों के यहाँ अंधविश्वास अधिक है, पर कोई भी इससे अछूता नहीं है. अमेरिका को ही देखो वहां यह माना जाता रहा है कि हर बीस वर्ष के बाद जो भी प्रेसिडेंट बनेगा, उसकी ह्त्या हो जायेगी. अब कैनेडी को देखो, कितने अच्छी तरह से शासन चला रहा है और उसकी ह्त्या के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता. यह संयोग ही तो कहा जाएगा कि उसके करीब दो घंटे बाद ही डैलस में दिन के बारह बजे उसकी हत्या हो गयी और दूसरे दिन सुबह ही रेडियो से हमलोगों को खबर भी मिल गयी. सबेरे के नाश्ते के समय का माहौल एकदम से उदासी का माहौल बन गया था.
हाँ तो मैं बात कर रहा था कैनेडी की समाधि देखने की. बहुत सादे तरीके से समाधि और उसके आसपास के ढाँचे की संरचना की गयी है. समाधि की बनावट राजघाट में महात्मा गांधी की समाधि से उधार ली हुई लगती है.
इस बार जब मैं अमेरिका पंहुचा तो नयी जगह पहुँचने का कौतुहल तो था नहीं क्योंकि मैं पहले भी अमेरिका में करीब छः महीने रह चुका हूँ.
इस बार मैं जब सपत्नीक दिल्ली से अमेरिका के लिए रवाना हुआ तो ऐसा नहीं था कि दिल वल्लियों उछल रहा था, पर एक बार फिर से अमेरिका पहुँचने की उत्सुक्तता तो थी ही. नेवार्क एअरपोर्ट पर उतरने पर जो इमिग्रेसन चेक होना था वह तो हुआ ही.बाद में जब कागजी कार्रवाई पूरी हुई तो हमारे सामान को आगे की यात्रा के लिए भेज दिया गया था, क्योंकि हमलोगों को तो डैलस तक जाना था, जिसके लिए यहाँ से दूसरा हवाई जहाज पकड़ना था. अब तो दिल्ली का एअरपोर्ट भी इतना आधुनिक हो गया है कि मुझे न्यूयार्क का यह एयर पोर्ट जहां हमलोग उतारे थे(नेवार्क इंटर नेशनल एअरपोर्ट) दिल्ली के मुकाबले थोड़ा खराब ही लग रहा था.
यहाँ तक तो सब ठीक था,इसके बाद जब डैलस के लिए हवाई जहाज पकड़ना था तो मालूम था कि बहुत तगड़ी चेकिंग होगी. जूते, चप्पल, चमड़े के बेल्ट वगैरह तो खुलवा ही लिए गए, पत्नी की चूड़ियाँ भी खोल कर अलग ट्रे में रखना पड़ा. हमलोग फिर जहाज पर सवार हुए और साढे तीन घंटे की यात्रा के बाद डैलस पहुँच गए. पिछली बार जब हमलोग लास एंजेलस होते हुए सियाटल पहुंचे थे तो हमारे बेटी- दामाद पहले से ही एअरपोर्ट पर मौजूद थे और हमलोगों का सामान एक तरह से उन्होंने ही बेल्ट से उतारा था, वह भी ९/११ के करीब चार वर्षों के बाद ही, जब चेकिंग बहुत जोरों पर थी, पर उनको वहां तक पहुँचने में कोई अड़चन नहीं हुई थी। इस बार उनलोगों को आने में कुछ देर हो गयी थी और उसकी सूचना उनलोगों ने दे दी थी. सामान हमने ले लिया और वहीं उनकी प्रतीक्षा करने लगे. थोड़ी देर बाद वे आ गए और सामान के साथ हमलोगों के साथ बाहर निकल गये. किसी ने हमलोगों के पास के स्लीप के टुकड़े से नंबर भी मिलाने की आवश्यकता नहीं समझी. अगर इंडिया के किसी एयर पोर्ट पर उतरे होते तो एक तो उन लोगों को भीतर नहीं आने दिया जाता,दूसरे सामान को बकायदा नंबर मिला कर ही बाहर जाने दिया जाता. फिर भी वहां गड़बड़ी हो ही जाती है. मुझे याद आ जाती है कुछ ही महीनों पहले की बेटी की यात्रा. जब वह शिकागो एअरपोर्ट से डैलास के लिए चली थी तो उसने अपना सामान चेक कर लिया था, फिर भी जब वह डैलास पहुंची तो उसके दोनों बक्से गायब थे, पर दूसरे ही दिन दोनों बक्सेमय सामान उसके घर पहुंचा दिए गए थे. क्या यह सब अंतर कभी मिट सकेगा?
हमलोग डैलस दिन में पहुंचे थे. बाहर निकलते निकलते मैं देख रहा था की यहाँ के मौसम और दिल्ली के मौसम में कोई ख़ास अंतर नहीं है. खिली हुई धुप और थोड़ी गर्मी, पर जब मैं बाहर निकला तो अंतर समझ में आने लगा. न वह भीड़ भाड और न वह अफरा तफरी. गाड़ियाँ तो बहुत थी, पर साफ़ सुथरी सड़क पर अपने अपने लेन में बिना किसी शोर और चिल्ल-पों के अपने-अपने गतव्य की तरफ जा रही थी. विदेशों में चाहे वह अमेरिका हो या दुबई कोई भी अकारण हार्न नहीं बजाता. अमेरिका में तो गाड़ी के हार्न की आवाज मुझे कभी सुनाई ही नहीं दी. ऐसा लगता है जैसे यहाँ गाड़ियों में हार्न होता ही नहीं. न प्रदूषण और न किसी तरह की गंदगी. ४० मील यानि ६४ किलोमीटर का सफ़र करीब ४० मिनटों में तय करके हमलोग अपनी जगह पर पहुंचे.
बाद में जब बेटे का फोन आया तो मेरे मुंह से निकल पड़ा कि मुझे वहां और यहाँ में कोई खास अंतर नहीं दिख रहा है और न मुझे लग रहा है कि मैं दिल्ली और अपने देश से इतनी दूर हूँ. उसने तत्काल पूछा कि क्या वहां भी उतनी ही गंदगी और उतना ही प्रदूषण है? मुझे तुरत महसूस हुआ कि वह अंतर तो है ही.