सुदर्शन जी का होना, जाना और बार-बार आना

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अनिल सौमित्र

81 वर्ष की उम्र में भी बच्चों के बीच बाल-सुलभ व्यवहार। सुबह और सायं काल दोनों वक्त शाखा जाने का स्वयं का आग्रह। किसी भी बीमारी के लिये आयुर्वेद, योग और भारतीय पद्धति से इलाज का आग्रह। दवाई कम परहेज ज्यादा। देश-समाज की उन्नति के लिये देशज और परंपरागत उपायों का आग्रह। यह सब कुछ अपने अंतिम क्षणों तक करते रहे सुदर्शन जी। सुदर्शन जी का आयुर्वेद पर बहुत विश्वास था। लगभग 20 वर्ष पूर्व हृदयरोग से पीडि़त होने पर चिकित्सकों ने उन्हें बाइपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय बताया; उन्होंने अपने उपर आयुर्वेद का ही प्रयोग किया और लौकी के ताजे रस के साथ तुलसी, काली मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया। कादम्बिनी पत्रिका ने उनके इस प्रयोग को दो बार प्रकाशित किया।

सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक से सरसंघचालक बने। इस दौरान उनके निर्दोष, सरल और सहज किंतु स्पष्ट और बेबाक विचारों के कारण कई बार विवाद भी हुआ। श्रीमती सोनिया माइनों पर उनकी टिप्पणी हो या गांधी हत्या के बारे में उनके विचार, अपने तथ्यपरक विचारों को उन्होंने कभी छुपाया नहीं। वे मतभेद और प्रेम कभी छुपाते नहीं थे। एनडीए सरकार की नीतियों और कार्यपद्धति पर उनकी प्रतिक्रियाओं से खासा विवाद भी हुआ था। वे राजनीति की कुटिलता और प्रपंच को बखूबी समझते थे, लेकिन अपने व्यक्तित्व की सरलता के कारण वे कुटिलताओं और प्रपंचों से हमेशा हारते रहे। कई दफे विवादित भी हुए। शायद यही कारण था कि बाद के दिनों में अपना अधिक समय ग्राम विकास, हिन्दी के विकास और विस्तार, तकनीकों के स्थानीकरण और उसे लोकोपयोगी बनाने के रचनात्मक काम में लग गये थे। अगर कोई उनसे मिलने जाता तो पहले तो वे उससे परंपरागत तकनीक और देशभर में हो रहे सैकडों प्रयोगों के बारे में घंटों बताते। फिर अपने पास संग्रहित दसियों माडल बताते। ग्राम विकास, कृषि, गौ-पालन और उर्जा आदि के देशज और परंपरागत अनुभवों और जानकारियों के बारे में बात करके कोई भी उन्हें अपना प्रशंसक बना सकता था।

खालिस्तान समस्या हो या घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, उन्होंने संगठन के माध्यम से देश को ठोस सुझाव और सही निदान दिये। संघ के कार्यकर्ताओं को उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन को गलत दिशा में जाने से रोका। पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि प्रत्येक केशधारी हिन्दू हैं तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है। इस सोच के कारण खालिस्तान आंदोलन की चरम अवस्था में भी पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हुआ। इसी प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बंगलादेश से आने वाले मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। उन्हें वापस भेजना ही चाहिए। किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही समाधान ढूंढ निकालना उनकी विशेषता थी। खालिस्तान आन्दोलन के दिनों में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ नामक संगठन की नींव रखी गयी, जो आज विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है। आरएसएस के मुखिया के तौर पर वे हमेशा तुष्टीकरण के खिलाफ रहे, लेकिन मुसलमानों के भारतीयकरण के पक्षधर। उनकी ही प्रेरणा से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का गठन हुआ। प्रख्यात स्तंभकार मुज्जफ़्फर हुसैन हों या बुजुर्ग नेता आरिफ बेग, सुदर्शन जी के साथ इस्लाम के विषय पर घंटों चर्चा करते थे। वे मुसलमानों को न सिर्फ उदार बल्कि शिक्षित, सहिष्णु और राष्ट्रवादी बनाने के लिये भी फिक्रमंद थे। यही कारण है कि मुसलमानों के बीच एक बडा वर्ग तैयार हुआ है जो राममंदिर आंदोलन का समर्थन, गोरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बनाने का आग्रह, रामसेतु विध्वंस का विरोध, अमरनाथ यात्रा में हिन्दुओं के अधिकारों का समर्थन और आतंकवादियों को फांसी देने की मांग करता है। मुसलमानों में ऐसा नेतृत्व उभर रहा है, जो हर बात के लिए पाकिस्तान या अरब देशों की ओर नहीं देखता। इस लिहाज से मुसलमानों के मामले में सुदर्शन जी को प्रगतिशील कहा जा सकता है।

स्व. श्री सुदर्शन देश की बौद्धिक दशा को लेकर भी काफी चिंतित थे। बौद्धिक क्षेत्र पर

मार्क्स-मेकाले के घुसपैठ और प्रभावों का उन्होंने हमेशा विरोध किया। भारत के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों को वे यूरंडपंथी और मार्क्स-मेकाले के मानसपुत्र कहा करते थे। देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जो कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम में डूब रहा था, उसकी सोच एवं प्रतिभा को राष्ट्रवाद के प्रवाह की ओर मोड़ने हेतु ‘प्रज्ञा-प्रवाह’ नामक वैचारिक संगठन भी आज देश के बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हो रहा है। इसकी नींव में श्री सुदर्शन जी ही थे। संघ-कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के प्रयासों की दृष्टि से उन्होंने ब्रिटेन, हालैंड, केन्या, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग, अमेरिका, कनाडा, त्रिनिडाड, टुबैगो, गुयाना आदि देशों का प्रवास भी किया।

संघ कार्य में सरसंघचालक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा कि स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। कन्नड़ परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर अपना नाम बोलते हैं। उनके पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। रायपुर, दमोह, मंडला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर विश्वविद्यालय) से 1954 में दूरसंचार विषय में बी.ई की उपाधि ली तथा तब से ही संघ-प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया। प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद 1964 में वे मध्यभारत के प्रान्त-प्रचारक बने।

सुदर्शन जी अनुशासन के मामले में कभी समझौता नहीं करते थे। संघ कार्य में उन्होंने निष्ठा और प्रामाणिकता की ही तरह गुणवत्ता को भी महत्व दिया। वे अंतिम समय तक सक्रिय रहे। निष्क्रियता उन्हें सुहाती नहीं थी। अपने जीवन में उन्होंने प्रशिक्षण और अभ्यास को सिद्धांत के साथ गुंथ दिया था। शाखा हो या प्रशिक्षण वर्ग, वे घंटों शारीरिक और मानसिक श्रम करते देखे गये। संघ के वे इकलौते ऎसे ज़्येष्ठ कार्यकर्ता रहे हैं जिन्होंने शारीरिक और बौद्धिक दोनों कार्यों के प्रमुख का दायित्व वहन किया। वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। उन्हें संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया, उसमें अपनी नव-नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला। आज तो प्रातःकालीन शाखाओं पर आसन तथा विद्यार्थी शाखाओं पर नियुद्ध एवं खेल का अभ्यास एक सामान्य बात हो गयी है।

आपातकाल के अपने 19 माह के बन्दीवास में उन्होंने योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिलकुल बदल डाला। योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। 1977 में उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ वे पूर्वात्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक भी रहे। 1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी।

वैसे जिस विचार और संगठन परंपरा से वे जीवनपर्यंत आबद्ध रहे उसमें वयक्तित्वों की तुलना कठिन है। वहां लगभग एक जैसे गुण-स्वभाव वाले लोग होते हैं। लेकिन सुदर्शन जी इस मामले में विशेष थे कि वे पहले दक्षिण भारतीय और दूसरे गैर महाराष्ट्रीयन सरसंघचालक हुए। कन्नड और अंग्रेजी से ज्यादा वे हिन्दी पर अधिकार रखते थे। पूर्वांचल में कार्य करते हुए उन्होंने वहां की समस्याओं का गहन अध्ययन किया। अध्ययन करते हुए उन्होंने बंगला और असमिया भाषा पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया। इसके अलावा भी वे कई भाषाओं का ज्ञान रखते थे। हिन्दी के प्रति उनके विशेष आग्रह के कारण ही मध्यप्रदेश में हिन्दी विश्वविद्यालय की कोपलें फूंटी। आज वे नहीं हैं, लेकिन हिन्दी में विज्ञान और तकनीक, चिकित्सा और अभियांत्रिकी जैसे विषयों की साधना करने वालों का स्वप्न साकार होने लगा है।

बढती उम्र ने उन्हें कई समस्याएं दी। वे स्मृतिलोप के शिकार होने लगे थे। उन्होंने अपनी नहीं, अपनों की परवाह की। देह और मन कमजोर होता रहा, लेकिन वे देश-समाज की समस्याओं से जूझते रहे। उनके निकटस्थ लोगों को पता है, वे ज्योतिष के भी जानकार थे। ज़्योतिष के कई विद्वानों के साथ उनकी लंबी चर्चाएं भी हुआ करती थी। शायद वे इस जीवन के अंत और अगले जीवन के प्रारब्ध से परिचित थे। यह भी एक संयोग है कि 15 सितम्बर, 2012 को अपने जन्म-स्थान रायपुर में ही उनका देहांत हुआ। श्री सुदर्शन जी ने एक हिन्दू के रूप में जन्म लिया। एक स्वयंसेवक के रूप में देश-समाज और मानवता की सेवा की। पुनर्जन्म में हिन्दुओं का अकाट्य विश्वास है। अपनी धर्म के प्रति निष्ठा, हिन्दुत्व के प्रति अटूट श्रद्धा, मानवता की सेवा का व्रत और संघ की प्रतीज्ञा उन्हें बार-बार हमारे बीच लायेगा। संभव है सुदर्शन जी ने जैसे अपने पुराने शरीर का त्याग किया है, शायद वैसे ही सर्वथा नूतन शरीर में प्रवेश कर लिया हो! इस दृष्टि से उनके जाने और आने का विषाद और हर्ष दोनों ही होना स्वाभाविक है।

5 COMMENTS

  1. जितनी बार सुदर्शन जी को सुना था, उनके चिन्तन की गहराई का अनुमान सघनता से स्पष्ट प्रकाशित होता था।
    आपकी आत्मा को परमात्मा सद्गति और परम शान्ति प्रदान करें। सादर प्रणाम।

    कण कण भी यदि अणु में तेज हो तुम्हारा।
    चमकाएं तिमिर भरा भूमण्डल सारा।

  2. काफी अच्छे जानकारी से भरा लेख है – मैंने कुछ सुदर्शनजी के बारे में लिखा था वह फिर लगा रहा हूँ 3.8.12 ko उनके मैसूर से गायब होने की सूचना मिली थी , फिर उनके फोटो को बच्चों के साथ 4.8.12 ko मीडिया में दिखाया गया था तो मैंने rediffboard par टिप्पणी की थी Dhanakar Thakur” I used to say that a swayamsevak should rise and go to highest post and then relinquish gradually to be a swayamsevak again(of course he came to that a simple plain swaymsevak at a go)- in the picture a grandfatherly Sudarshanji is with kids. I do not know whether I could see him again or not my reverence to him.”
    मैं उन्हें नहीं देख पाया . १५.९.२०१२ को दोपहर नेपालसे एक मैथिलीभक्त प्रवीण कुमार चौधरी के फेसबुक पर दी गयी श्रद्धांजलि “Deep Condolance! खोलने पर देखा-
    “मैथिलिके अष्टम अनुसूचीमे नाम दियौनिहार के सी सुदर्शन अमर छथि . हिनक पुण्यआत्माके ईश्वर चिरशांति प्रदान करैथ ,” .से मैं जान पाया की सुदर्शनजी अब नहीं रहे और उनकी अनेक स्मृतियाँ माथे में कौंध गयी
    उन्होंने जो कहा सो किया – अडवानीजी को दुसरे युवा के लिए जगह छोड़ने कहा और स्वयम भी अपना जगह छोड़ दिया
    यह सही है की मैथिली को अष्टम अनुसूचीमे डलवाने वाले वे ही थे – डॉ. भुबनेश्वर प्रसाद गुरुमैता ८१ वर्ष के हैं सुदर्शनजी के हमउम्र हैं, उन्हें वाजपेयी जी के पास इस काम के लिए ले गए थे और उनके आग्रह को वाजपेयी ने माना था-“जब आपलोग आये हैं तो यह होगा” वाजपयीजी पहले चिंता थी की तब हिन्दी का क्या होगा – क्योंकि दूर से हिन्दीवालोंको मैथिली हिन्दी की बोली लगती है -१७७४ से अंग्रेजों के सरकार तिरहुत(मिथिला) )को सरकार बिहार के साथ मिला दिया गया था बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यु के पटना में गठन के बाद और क्रमशः हिन्दी सरकारी रूप से मिथिला में लाड दी गयी थी कहना न होगा की वाजपेयी जी जैसे महामना स्वयमसेवक को एक सरसंघचालक की उचित बात को स्वीकार करने में समय नहीं लगा
    गुरुमैताजी का फोन आया की वे रांची १९-२० को भारतेंदु हरिश्चन्द्र के कार्यक्रम में रहेंगे – इसी प्रकार ८१ वर्ष के सुदर्शनजी किसी कार्यक्रम के लिए मैसूरसे रायपुर आये जो उनकी जन्मस्थली रही
    मैं उनके काफी करीब रहा – मुझे याद है की १९९७ में संभवतः अगस्त ९ या १० को मैं दिल्ले के झंडेवालान कार्यालय गया था -सुदर्शनजी ने बैठा लिया की डॉ. हर्षवर्धन आनेवालें है ,उनसे मिल लें- अपनी ह्रदय चिकित्सा के फाइल दिखाए- लौकी के रस का फायदा बताया पर एक बात मजेदार अपने जीवन की सुनाई – कभी तिरुपति गए थी- एक वृद्ध पूर्वजन्मज्ञाता ने एक फाइल निकाली – तुम्हारा गाँव कुप्पहेली , गलत फाइल निकली, दूसरा निकली, हां यह कुप्पहेली की है , ठीक है- “तुम पूर्व जन्म में श्री लंका के अनुराधापुर में एक महा लम्पट थे, पर जीवन के अंत में तुम भगवान् के भक्त बने, इस जन्म में ब्राह्मण हुए हो , तुम अच्छा कम करोगे, मोक्ष मिलेगा”
    सुदर्शनजी ने बताया की फिर कुछ वर्ष बाद उन्हें तिरुपति जाने का मौक़ा मिला पर वे पूर्वजन्मज्ञाता उन्हें नहीं मिले
    मैं बार बार सोचता हूँ की सुदर्शन जी का जब पूर्वजन्म ऐसा तो मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति का कैसा रहा होगा पर साथ ही जो सन्देश है अच्छा काम करें मुक्ति मिलेगी
    इस बीच एक आदमी वंहा आकार बैठे , मैं उनकी बात सुन रहा था/ उन्होंने उनसे नेरे बारे में पूछा की इन्हें जानते हो ? उन्होंने कहा- जानता तो नहीं था पर अब जान गया ये NMO वाले डॉ धनाकर ठाकुर हैं
    मैंने कहा पर मैं इन्हें नहीं जानता .
    ये तरुण विजय हैं, पांचजन्य के सम्पादक
    उनकी अच्छी बालों को देख मेरे मुंह से निकल गया- यू आर सो तरुण?
    सुदर्शन जी हंसने लगे और उन्होंने एक घटना सुनाई- १९४८ के आस पास जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा था , मल्कानीजी मद्रास गए राज्गोपलाचारीजी से मिलने
    जब अन्दर गए , राजाजी ने अपना मोटा चश्मा उठाकर देखा -कौन हो? मलकानी. इतने युवा ,इसलिए ही तुम मेरे खिलाफ ऐसे कड़े शब्द लिखते हो (आग्गेनैज़र में )
    मैंने तरुण विजय को कहा की पांचजन्यमे हिन्दू कुश को अच्छे माने में कहा गया है (संघ के एक गीत में भी ….ध्वज को हिन्दू कुश पर लहराया ) पर यह है हिन्दू- कॉफ़ , हिन्दुओ को काटने की जगह slaughter हाउस ऑफ़ हिन्दुस
    (बाद में मैंने उन्हें व्यासजी का अमेरिका से भेजा एक लेख के प्रती भेजी और शायद अपने हिन्दू कुश पर लेख का खंडन भी उन्होंने छापा )
    फिर आये उस समय दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन और मंत्र चिकित्सा पर कुछ बात हुई
    सुदर्शनजी का NMO के प्रति इतना स्नेह था की २००२ में रजत जयन्ती पर सिरी फोर्ट औदितोरियम के कार्यक्रम में वे उद्घाटन सत्र छोड़ सभी सत्रों में उपस्थित रहे जबकि हमने उन्हें केवल समापन सत्र के लिए आमंत्रित किया था – ‘मैं पूरा सूनूँगा .
    ऐसे महापुरुष इतने सीधे , इतना सरल जीवन, एक इंजीनियर से प्रचारक बने, इंदौर में पहले , अधिकांश समय पूर्वोत्तर के लोगों के बीच
    अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख से सीधा बौद्धिक प्रमुख होना अपवाद है फिर सह से पूरा कार्यवाह आ अंत में सरसंघचालक और तब एक स्वयमसेवक होकर मैसूर की शाखा में जिस दिन गूम हुए थे उस दिन भी बच्चो को बताया था कैसे प्रार्थना की जाती है – हाथ का अंगूठा कहाँ रखना है
    कोलकता में उनका बहुत प्रवास होता था डॉ. सुजीत धर के घर ८-१/बी चक्रेबेरिया में भोजन कर ८४, आशुतोष मुख़र्जी रोड के एक छोटे कमरे में – जब श्रीमती धर ने एक बार मुझे बताया की उनके घर खाकर मुखे वंही सोने जाना है तो मैंने देखा की कितने छोटे कमरे में वे ठहरते थे
    प्रातः स्मरण का संशोधन हो रहा था – मैंने उन्हें पत्र दिया —-सास्कृतिक भारत प्रणमामि हम ..कर एक श्लोक भी बना दिया था .. उत्तर उनका पोस्टकार्ड में मेरे सभी शंकाओं का उत्तर था – गण्डकी से नेपाल का बोध (नेपाल से ही मुझे खबर मिली उनके जाने की.. नैशनल मेडिकोस ओर्गेनाजेसन एवं अंतरराष्ट्रिय मैथिलि परिषद् की तरफ से उन्हें श्रद्धांजलि देता हूँ .. ६ कोटि मैथिल समाज उनके प्रति सदैव श्रद्धावनत रहेगा – वे एक सच्चे अर्थ में राष्ट्रिय नेता थे जो कन्नडाभाषी होते हुए भी पूर्वोत्तर के लिए बहुत किया और भारत की पूर्वी भाषाओँ की जननी मैथिली को पहचान कर इसे संविधान में प्रतिष्ठित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की . वे अमर रहेंगे
    – डॉ धनाकर ठाकुर , संस्थापक अंतरराष्ट्रिय मैथिलि परिषद् एवं नैशनल मेडिकोस ओर्गेनाजेसन 9470193694

  3. वे एक प्रेरणास्रोत थे, हृदय से नितांत भारतीय थे तथा भारतीय संस्कृति को ही बढ़ावा देते थे, भगवान उनकी पवन आत्मा को शांति प्रदान करे तथा, फिर से इस धरती पर अवतरित कर इस दुनिया और मानवजाति के भलाई के लिए भारतभूमि पर भेजे|

  4. श्री मोरोपंत पिंगले पर भी दोनों दायित्व (अ० भा० शारीरिक तथा बौद्धिक प्रमुख) रहे हैं.

  5. स्वर्गीय सुदर्शन जी से मेरी भेंट २००६ में उनके मेरठ आगमन पर हुई थी मेरठ के पूर्व संसद स्वर्गीय ठाकुर अमर पाल सिंह भी साथ थे.लगभग डेढ़ घंटे हमने वार्ता की बीच में भोजन भी किया. उन्होंने संघ के बारे में बात न करके नगरों में उत्पन्न होने वाले कूड़े कचरे से एनर्जी उत्पन्न करने पर वार्ता की.न्होंने बड़े उत्साह से नागपुर की रसायन शास्त्र की प्राध्यापिका श्रीमती अनीता झाड़गाँवकर द्वारा प्लास्टिक कचरे से पेट्रोल बनाने की तकनीक विकसित करने के बारे में बताया और कहा की उससे उत्पन्न पेट्रो वास्तव में एवियेशन टरबाईन फ्यूल की श्रेणी का पाया गया है.और प्रत्येक नगर में ऐसे संयंत्र स्थापित किये जा सकते हैं.उन्होंने ये भी बताया की श्री राम नाईक जी के पेट्रोलियम मंत्री रहने के समय इन्डियन ऑयल ने इसमें रूचि दिखाई थी लेकिन यु. पीऐ. की सर्कार आने के बाद इन्डियन ऑयल उदासीन हो गया है. पूरे समय उनसे बात करके यही लगा की एक वैज्ञानिक बोल रहा है. ये संभवतः उनके व्यक्तित्व का अंजन पक्ष है इसी कारन से लिखा है. इश्वर उन्हें श्री चरणों में स्थान दे और यदि वो पुनः अवतरित हों तो इसी भारत भूमि पर मार्गदर्शन के लिए आयें.

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