ट्रिपल तलाक़:संस्थागत धर्म की सीमाएं तय करना जरूरी

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इंस्टैंट ट्रिपल तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला न्याय प्रक्रिया की बारीकियों के आधार पर मूल्यांकन करने पर एक संतुलित और तकनीकी दृष्टि से परिपूर्ण परंपरागत फैसला है किन्तु अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह ऐतिहासिक बनते बनते रह गया है।
सर्वप्रथम पांच जजों की बेंच द्वारा दिए गए फैसले पर नज़र डालना आवश्यक है। जस्टिस गण कुरियन जोसफ, यू यू ललित तथा आर एफ नरीमन के बहुमत निर्णय के अनुसार तलाक़ ए बिद्दत में न्यायिक पवित्रता का अभाव है। विश्व के अनेक देशों में यह कानूनी नहीं है किंतु भारत में यह प्रचलन में है। कुरान ए पाक विवाह को पवित्र एवं स्थायी मानता है। केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में विवाह विच्छेद का प्रावधान है। उसके पूर्व वैवाहिक संबंध को बरकरार रखने और मतभेदों को सुलझाने के हर संभव प्रयत्न किए जाने चाहिए। किन्तु ट्रिपल तलाक़ वैवाहिक संबंध को बरकरार रखने की हर संभावना का अंत कर देता है। इस प्रकार इंस्टैंट ट्रिपल तलाक़ पवित्र कुरान की शिक्षाओं के विपरीत है। कुरान ए पाक जिसे बुरा समझता है वह शरीअत की दृष्टि से भी उचित नहीं हो सकता। अर्थात जो धर्म शास्त्र की दृष्टि से बुरा है वह कानून के नजरिये से भी बुरा होगा। विभिन्न हितों में समन्वय स्थापित करने का कार्य विधायिका का है। किन्तु उसे कानून बनाने हेतु निर्देशित करना कोर्ट का कार्य नहीं है। तलाक़ ए बिद्दत अतार्किक एवं एकपक्षीय और मनमानी प्रक्रिया होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। अतः इसे शून्य,असंवैधानिक और गैरकानूनी करार दिया जाता है।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर तथा जस्टिस एस अब्दुल नजीर का अपने अल्पमत निर्णय में कहना था कि तलाक़ ए बिद्दत की प्रथा 1400 वर्षों से चली आ रही है। धर्मशास्त्र की दृष्टि से बुरी होते हुए भी यह कानून की दृष्टि से उचित समझी जाती रही। इसलिए केवल याचिकाकर्ताओं के कहने पर इसे कानून की दृष्टि से अनुचित मात्र इस आधार पर नहीं ठहराया जा सकता कि यह धार्मिक दृष्टि से गलत है। जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर का कहना है कि इंस्टैंट ट्रिपल तलाक़ संविधान के अनुच्छेद 25 के विपरीत नहीं है। यह प्रथा नैतिक व्यवहार,स्वास्थ्य एवं कानून व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाली नहीं है। यह संविधान के अनुच्छेदों 14(समानता का अधिकार),15 (धर्म,लिंग आदि के आधार पर भेद भाव के विरुद्ध अधिकार)तथा 21(मान सम्मान के साथ जीवनयापन का अधिकार) के विपरीत भी नहीं है जो कि राज्य के कार्यकलापों से संबंधित हैं। भारत में विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ में सामाजिक रूप से अस्वीकार्य प्रथाओं के संबंध में संशोधन विधायिका के हस्तक्षेप के बाद ही कानून निर्माण द्वारा हुए हैं और इस प्रकरण में भी यही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। जस्टिस द्वय का यह मानना है कि धर्म विश्वास की विषय वस्तु है न कि तर्क की।
इस प्रकार न्यायालय का पूरा विमर्श धर्म के इर्दगिर्द घूम रहा है। इंस्टैंट ट्रिपल तलाक़ को खारिज करने वाला बहुमत निर्णय भी अंततः धार्मिक स्वीकृति की बुनियाद पर आधारित है। यह मुस्लिम महिलाओं का सौभाग्य था कि पवित्र कुरान में विवाह और विवाह विच्छेद के संबंध में स्पष्ट निर्देश मौजूद थे जो आसानी से व्याख्यायित किए जा सकते थे और जो इन महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करते थे। किन्तु इस बात की संभावना निरंतर बनी रहेगी कि आधुनिक समाज की जटिल परिस्थितियों और उदार अपेक्षाओं पर जब धर्म ग्रन्थों में स्पष्ट मार्गदर्शन उपलब्ध न होगा तब हमें पुरुषवादी और कुलीनों के पक्षधर विद्वज्जनों की ऐसी व्याख्याओं पर आश्रित होना पड़ेगा जो सामाजिक समानता के लिए घातक और वंचित वर्गों(महिला-दलित आदि) के लिए हानिप्रद होती हैं। यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और मूलभूत अधिकारों के अंतः संबंधों को व्याख्यायित नहीं करता और इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि चयन की स्थिति बनने पर इनमें से कौन सा वरेण्य है। बहुमत निर्णय धर्म ग्रंथ की व्याख्या द्वारा ट्रिपल तलाक़ को अधार्मिक सिद्ध करता है और परिणामतः उसे गैरकानूनी मानता है तो अल्पमत निर्णय धर्म को आस्था की विषयवस्तु मानकर उसे तर्क से परे समझता है। यदि इन व्याख्याओं को इस्लाम धर्म तक सीमित और संकुचित न रखते हुए व्यापक अर्थ में देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक असमानता को दूर करने के प्रयासों का धर्म सम्मत होना आवश्यक बन गया है। यह हम सभी जानते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार(अनुच्छेद 25) एक व्यक्तिगत अधिकार है। किंतु व्यवहार में यह देखा जाता है कि हमारे देश में उपस्थित सभी धर्मों के संदर्भ में यह सामूहिक अधिकार के रूप में कार्य करता दीखता है और इसका प्रभाव व्यक्तिगत अधिकारों के हनन के रूप में अधिकतर देखा जाता है।
देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नागरिक कानून अर्थात कॉमन सिविल कोड की स्थापना संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में नीति निर्देश के रूप में वर्णित है। वर्तमान में पारसी, इसाई एवं मुस्लिम धर्मावलंबियों के अपने पर्सनल लॉ हैं जबकि हिन्दू, जैन,बौद्ध और सिख मतावलंबी हिन्दू सिविल लॉ के अंतर्गत आते हैं। धर्म आधारित वैयक्तिक कानूनों ने जहाँ एक ओर विभिन्न धर्मावलंबियों की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान किया है वहीं इन धर्मों के संस्थागत स्वरूप में व्याप्त रूढ़िवादिता एवं कट्टरता को प्रश्रय देने के कारण एक बड़े वर्ग( महिलाओं, दलित आदि) के साथ स्थायी भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण बने हैं।
यदि सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए बनाए गए कानूनों पर नजर डालें तो बड़ी लम्बी चौड़ी सूची सामने आती है- सती प्रथा निषेध अधिनियम(1829),हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम(1850), बाल विवाह निषेध अधिनियम(1929) विशेष विवाह अधिनियम (1872,1954), आर्य विवाह वैधानिकरण अधिनियम (1937), हिन्दू विवाह अधिनियम (1955), हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधित)अधिनियम (1925,1991),हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षण अधिनियम(1956), हिन्दू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम(1956),अस्पृश्यता अपराध अधिनियम(1955),दहेज उन्मूलन कानून(1961,1984,1986), लॉ ऑफ एबॉर्शन (1971), भ्रूण हत्या प्रसव पूर्व निदान तकनीक नियमन अधिनियम (1994),घरेलू हिंसा अधिनियम(2005) आदि।
इन कानूनों के समानांतर बल्कि अनेक बार इन कानूनों के निर्माण के लिए उत्तरदायी सामाजिक आंदोलनों और समाज सुधारकों की परंपरा रही है। राजा राममोहन रॉय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती,ज्योति बा फुले, सावित्री बाई फुले, पंडिता रमा बाई, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, बाबा साहब अम्बेडकर, विनोबा भावे, बाबा आमटे,मदर टेरेसा जैसी कितनी ही विभूतियों ने समाज सुधार के क्षेत्र में अपना जीवन न्योछावर कर दिया। भक्ति आंदोलन को समाज सुधार आंदोलन के रूप में देखने का एक पूरा विमर्श है और कबीर, नानक,रैदास,चैतन्य महाप्रभु,दादू दयाल आदि कितने ही संतों का जीवन और दर्शन इस विमर्श को एक सशक्त आधार देता है।
किन्तु इन सारे प्रयत्नों के बावजूद भी वृन्दावन और वाराणसी में हजारों विधवाएँ बहुत कष्टपूर्ण जीवन जीने को विवश होती हैं,अक्षय तृतीया पर प्रशासन के रोकते रोकते ढेरों बाल विवाह हो जाते हैं, अंतरजातीय विवाह करने पर खाप पंचायतें भयानक दंड देती हैं, छुआछूत के नाम पर हत्याएं होती हैं, जातियों की सेनाएँ बनती हैं और हिंसक संघर्ष होते हैं,जातिवाद के नाम पर चुनाव लड़े और जीते जाते हैं, दहेज हत्याओं का दौर बदस्तूर जारी रहता है, कन्या भ्रूण का जीवन पढ़े लिखे शहरी तबके द्वारा सर्वाधिक खतरे में डाला जाता है, डायन मानी जा कर निर्दोष ग्रामीण औरतें पीट पीट कर मार डाली जाती हैं, ग्रामीण और शहरी नारी दमन और हिंसा को चुपचाप सहन करने को मजबूर होती है, कलबुर्गी-दाभोलकर-पानसरे जैसे तर्कवादियों को जान से हाथ धोना पड़ता है, मुस्लिम कट्टरपंथियों के फ़तवे हर तरक्कीपसंद मुसलमान की उड़ान पर रोक लगा देते हैं, इंस्टैंट ट्रिपल तलाक़ पर फैसले का इस्तकबाल करने के बजाए मुस्लिम जमात के ताकतवर लोग यह कहते पाए जाते हैं कि न्यायालय का फैसला जो भी हो सच्चे मुसलमान के लिए तलाक़ ए बिद्दत अभी भी जिंदा है और बिल्कुल इन्हीं की तरह हरियाणा और पंजाब में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत सिंह के समर्थक देश और देश के कानून को मिटा देने पर आमादा नजर आते हैं।
प्रश्न बहुत गहरे हैं हमारे जीवन में धर्म और खास तौर पर संस्थागत धर्म का क्या स्थान होना चाहिए? क्या अदालतों को यह स्थान तय करने का अधिकार है? क्या हमारी अंतरात्मा में जो न्यायाधीश बैठा है वह सर्वोत्तम रूप से इस बात का निर्णय नहीं कर सकता? क्या हममें यह कहने का साहस है- वी आर स्पिरिचुअल बट नॉट रिलीजियस!
डॉ राजू पाण्डेय

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