ट्रम्प हों या ओबामा, अमेरिकी ‘भारत-नीति’ का एक ही पैमाना

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मनोज ज्वाला


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करने सम्बन्धी भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तथाकथित अपील का बयान देकर बता दिया कि नई दिल्ली के प्रति वाशिंगटन की नीति व नीयत पाक-साफ नहीं है। भले ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने ट्रम्प के बयान से इनकार कर भारत के जख्मों पर मरहम लगाने का भरसक प्रयास किया है। यह सर्वविदित है कि अमेरिका गिरगिट की तरह रंग बदलते रहता है। जिस देश को वह आतंकवाद का पोषक एवं शांति के लिए खतरा घोषित कर चुका होता है मौका पड़ते ही उसकी पीठ भी थपथपाने लगता है। राष्ट्रपति ट्रम्प हों या ओबामा, सभी ऐसा ही करते रहे हैं। भारत के प्रति अमेरिकी नीति का पैमाना कुछ और ही है। इसे जानने-समझने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन में शामिल व्यक्तियों-संस्थाओं की नीयत को जानना जरूरी है ।अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए ‘प्रेसिडेण्ट्स एडवाइजरी काउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’ नामक एक परिषद कायम है। यह परिषद अमेरिकी राष्ट्रपति के ‘आंख-कान’ के रुप में जानी जाती है। इस 25 सदस्यीय सलाहकार परिषद में तमाम सदस्य वर्ल्ड विजन, क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एसोसिएशन, वर्ल्ड इवैंजेलिकल एलायन्स, नेशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंशन, रैण्ड कारपोरेशन, ग्लोबल ह्यूमन राइट्स एण्ड इण्टरनेशनल आपरेशन्स व पॉलिसी इंस्टीट्यूट फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट आदि विभिन्न कट्टर ईसाई-विस्तारवादी चर्च-मिशनरी संस्थाओं के प्रमुख हुआ करते हैं। वे ईसाइयत की सर्वोच्च सत्ता  ‘वेटिकन सिटी’ से निर्देशित होते हैं। उनकी प्राथमिकताओं में सनातन धर्म का उन्मूलन, हिन्दू समाज का विघटन व भारत राष्ट्र का विघटन शामिल होता है। उनकी इन प्राथमिकताओं का खास कारण यह है कि वे विस्तारवादी चर्च-मिशनरी संस्थायें पूरी दुनिया को ईसाइयत के अधीन कर लेने पर आमदा हैं। जबकि, भारत की राष्ट्रीयता ‘सनातन धर्म’ है। यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद से यदा-कदा आक्रांत होते रहने के बावजूद वह उन आतंकी संगठनों एवं उन्हें पनाह देने वाले राज्यों की वे तरफदारी करते रहते हैं और भारत के विरुद्ध उपकरण के तौर पर उनका इस्तेमाल भी करते हैं। पिछले 60-70 वर्षों के भीतर जिस पाकिस्तान व बांग्लादेश में राज्य-प्रायोजित हिंसा व आतंक से हिन्दुओं का लगभग सफाया कर दिया गया, उसके विरुद्ध कोई आपत्ति दर्ज करने की पहल करने से भी अमेरिकी विदेश मंत्रालय और अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता विषयक अमेरिकी आयोग आखिर क्यों कतराते रहे हैं? जबकि, कश्मीर में आतंकियों के विरुद्ध भारतीय सेना की कार्रवाई पर वही अमेरिका कई बार मानवाधिकार-हनन का सवाल उठाते रहा है। उसका विदेश मंत्रालय अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम के तहत भारत को तो धर्मान्तरण-विरोधी भारतीय कानूनों की वजह से हिन्दू-संगठनों की तथाकथित आक्रामकता का ढिंढोरा पीटते हुए तत्सम्बन्धी कठघरे में खड़ा करते रहता है, किन्तु हिन्दू-समाज के उत्पीड़न-उन्मूलन पर आमदा इस्लामी आक्रामकता वाले देशों की शासन-संपोषित करतूतों पर चुप्पी साधे रहता है। अभी हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भारत के खिलाफ धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक रिपोर्ट जारी किया है। जाहिर है, अमेरिकी राष्ट्रपति की ‘भारत -नीति’ असल में ‘प्रेसिडेण्ट्स एडवाइजरी काउंसिल ऑन फेथ-बेस्ड नेबरहुड पार्टनरशिप’ नामक उसकी सलाहकार परिषद की नीयत के अनुसार ही निर्धारित होती है। कश्मीर मसला भी इसका अपवाद नहीं है।बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कयास लगाया जा रहा था कि अमेरिकी शासन में ऐसी गहरी पैठ रखने वाली ईसाई विस्तारवादी चर्च-मिशनरी शक्तियां कमजोर पड़ जाएंगी। भारत के प्रति अमेरिकी नीति में भी बदलाव आएगा, किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। उलटे हुआ यह कि खुद ओबामा ने ही उपरोक्त सलाहकार परिषद के एक सदस्य जोशुआ ड्युबॉय नामक उस व्यक्ति को अपना दाहिना हाथ बनाये रखा, जिसने चुनाव में उनके लिए कट्टरपंथी विस्तारवादी ईसाई समूहों का वोट-बैंक पटाया था। इस सलाहकार परिषद की सलाहों-सिफारिशों की उपेक्षा कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति कतई नहीं कर पाता। उदारवादी व स्वतंत्र विचारों के हिमायती कहे जाने वाले जिमी कॉर्टर और बिल क्लिंटन जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति भी इस परिषद में शामिल धर्मान्तरणकारी विस्तारवादी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संस्थाओं की अनदेखी नहीं कर सके थे तो ट्रम्प इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं?उल्लेखनीय है कि कश्मीर समस्या तो वैसे भी दक्षिण एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को जमीनी आधार प्रदान करने की ब्रिटिश कूटनीति का ही परिणाम है। जिसके तहत सन 1947 में ही ब्रिटिश वायसराय माउण्ट्बेटन द्वारा कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने की बाबत वहां के महाराजा पर दबाव डालने की बहुविध कोशिशें की गई थी। एक ब्रिटिश लेखक लॉरी कालिन्स ने ‘माउण्टबेटन एण्ड इण्डिपेण्डेण्ट इण्डिया’ में माउण्टबेटन के हवाले से ही लिखा है- ‘मैंने बड़ी मुश्किल से पटेल को मना लिया था कि वे पाकिस्तान में जम्मू-कश्मीर के शामिल होने का बुरा न मानें, लेकिन मेरी सारी योजना गुड़ गोबर हो गई। इसका मुझे बहुत दुःख हुआ और यह सब उस ब्लडी फूल हरि सिंह के कारण हुआ’। फिर उस असफलता से खीझे माउण्टबेटन ने ‘आगे सलट लेने’ की सोचकर भारत-कश्मीर विलय मामले को नेहरुजी के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र संघ में भेज दिया, जहां वह आज तक लम्बित है। उस पूरे प्रकरण के भीतर का राज यही है कि ब्रिटिश -अमेरिकी गठजोड़ वस्तुतः ईसाई-विस्तारवाद की योजना क्रियान्वित करने के निमित्त दक्षिण एशिया में अपनी सामरिक अनुकूलता के अनुसार कश्मीर को भारत से पृथक कर देने में ही रुचि लेता रहा है। ऐसा इस कारण, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से युक्त कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाने अथवा एक स्वतंत्र राज्य बन जाने पर ही अमेरिकी-ब्रिटिश गठजोड़ इस भूमि का मनमाना सामरिक इस्तेमाल कर सकता है।इसी कूटनीति एवं भारत के एक और विखण्डन की युक्ति  के तहत अमेरिकी शासन कश्मीर-मामले में मध्यस्थता के अवसर और हस्तक्षेप की जमीन तैयार करने में लगा रहता है। कभी पाकिस्तान के माध्यम से तो कभी यूएनओ के माध्यम से। लेकिन भारत से आर्थिक हितों का नुकसान होने के कारण खुलकर इसकी हिमाकत नहीं करता। डोनाल्ड ट्रम्प कोई सनकी या पागल नहीं हैं जो पिछले तीन-चार वर्षों से नरेन्द्र मोदी के साथ गलबाहियां करते रहने के बावजूद ऐसा बयान देकर अपनी किरकिरी कराने लगे कि मोदीजी ने कश्मीर मामले में उनसे मध्यस्थता करने की अपील की थी। उन्होंने सोचा होगा कि दोस्ती निभाने के लिए मोदी अगर मौन रह गए तो अवसर निर्मित हो सकता है और मुखर होकर विरोध कर दिए, तो विदेश मंत्रालय पल्ला झाड़ लेगा। लेकिन, मोदी से पाला पड़ने पर अपना ही पल्ला झाड़ना पड़ता है, यह आभास उन्हें कदाचित पहली बार हुआ होगा। बहरहाल, अपने देश के नीति-नियन्ताओं को यह तो समझना ही चाहिए कि ट्रम्प हों या ओबामा, अमेरिकी ‘भारत-नीति’ का एक ही पैमाना है और वह है ईसाई-विस्तारवाद का हित साधना और इस के लिए भारतीय राष्ट्रीयता (सनातन धर्म) की विरोधी मजहबी शक्तियों का तदनुसार इस्तेमाल करते हुए उनका पक्षपोषण करना।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।) 

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