समस्या पर विलाप की बजाय समाधान खोजें

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जिस नकल की मानसिकता और भावना से हमारे भारत का एक बडा वर्ग अपना वास्तविक मूल्य और अस्तित्व खोता जा रहा है, वह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है । लोगों में यह भेद उॅंच-नीच, पढे-लिखे और अनपढ या जाति, धर्म की वजह से नहीं बल्कि स्वयं को पृथक दिखाने की लालसा है । चाहे रहन-सहन हो या खान-पान अथवा बोलचाल, अपने से श्रेष्ठ दिखने या लगने वालों की नकल ही ऐसे तबकों का शगल बन गया है ।
मैं अपने बीच रहने वाले ऐसे अनेक लोगों को जानता हूॅं जो हमारे पारम्परिक स्वास्थ्यवर्द्धक, पौष्टिक, जलवायु के अनुसार शरीर में आसानी से सामंजस्य पा लेने वाले खान-पान को छोडकर बडी नामचीन कंपनियों जैसे मैक्डोनाल्ड, केएफसी, पिज्जा हट इत्यादि के पिज्जा, बर्गर और चिकन आदि जैसे शरीर को नुकसान पहुॅंचाने वाले फास्ट-फूड के सेवन को अपना स्टेटस सिम्बल मानते हैं ।
हाल ही में मैंने एक लेख पढा, जिसे पढकर मुझे विस्मय और गर्व हुआ कि अमेरिका में बहुत गरीब मजदूर वर्ग मैक्डोनाल्ड, केएफसी, पिज्जा हट इत्यादि के पिज्जा, बर्गर और चिकन आदि जैसे फास्ट-फूड का सेवन करते हैं । वे गरीब पैक किये हुए भोजन को एकत्रित करके जरूरत के अनुसार सप्ताह या महीने भर के भोजन के रूप में फ्रीजर के अंदर रखते हैं और उसी भोजन को गर्म करके खाते रहते हैं । जबकि अमेरिका और यूरोप के रईस और धनाढ्य लोग ताजी सब्जियों को उबालकर तथा ताजे गुॅंथे हुए आटे की गरम रोटियाॅं खाना पसंद कर रहे हैं । ताजे फल और सब्जियों का सलाद वहाॅं के नसीब वालों को ही मिल पाता है तथा ताजी हरी पत्तेदार सब्जियाॅं वहाॅं के अमीर लोग ही जुटा पाते हैं और वही उनका लग्जरी भोजन होता है ।
यह भी गणना करने योग्य है कि ताजे फल और सब्जियों के दाम फसल चक्र के अनुसार घटते बढते रहते हैं, लेकिन डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ का मूल्य एक समान रहता है तथा उनकी एक्सपायरी तिथि आते-आते उसे सस्ते दामों में जैसे-तैसे बेचने का प्रयास किया जाता है ।
अर्थात जिस भोजन की उपलब्धता अमेरिका में लग्जरी मानी जा रही है, वही हमें सहज उपलब्ध है । जो भोजन हमारे भारत में आसानी से उपलब्ध है, उसे भूलकर नकल की परिणिति में गुलामी की मानसिकता से जकडे लोग फ्रिज में रखे बासी भोजन को खाने को तरसते हुए दरिद्रता अपनाने के लिये मरे जा रहे हैं ।
आजकल विद्यालयों में इस बात की सराहनीय पहल देखने में आई है । विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को लंच के दौरान टीचर की मौजूदगी में ही भोजन कराया जाता है तथा टिफिन में फास्ट-फूड रखकर लाये छात्र-छात्रा को भोजन के लिये अलग बिठाया जाता है । साथ ही उनको यह भी हिदायत दी जाती है कि वे फास्ट-फूड का न के बराबर कम से कम इस्तेमाल करें । उन्हें ताजे फल, सब्जी तथा पारम्परिक भोजन के महत्व के बारे में समझाया जाता है । यह अनुकरणीय अनुभव मेरे स्वयं के बच्चों के विद्यालय का है, जिसे बताते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है ।
हम 125 करोड की भारतीय जनता बहुत भाग्यवान है जिसे प्रतिदिन कम से कम एक समय तो ताजे भोजन, फल और सब्जी सहजता से उपलब्ध है । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि हम बहुत तेजी से ताजे भोजन की समृद्धि का त्याग कर डिब्बेबंद भोजन की दरिद्रता की ओर अग्रसर है ।

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