मोदी को मोहने की कोशिश में अमेरिका

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-प्रमोद भार्गव- Narendra_Modi कोई जरूरतमंद देश अपने नीति और सिद्धांतों में कैसे बदलाव लाता है, इसका ताजा उदाहरण अमेरिका है। यहां तक कि उसने 2007 में जारी ‘सालाना अंतररा धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम हटा दिया। यह वही रिपोर्ट है, जिसमें गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहराया गया था। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। जबकि इस बार की ताजा रिपोर्ट में मुजफ्फरनगर दंगों के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार को लपेटते हुए, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा न कर पाने के लिए दोषी ठहराया गया है। अमेरिकी गुप्तचर संस्था द्वारा खासतौर से भाजपा नेताओं की जासूसी के संदर्भ में भी नरम रुख अपनाते हुए साइबर सुरक्षा कड़ी करने की बात कही गई। एक समय मोदी को वीजा देने से भी इंकार करने वाला अमेरिका अब मोदी के नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ मंत्र में अपने हितों का ख्याल रखते हुए भारत में बाजार तलाशने की तिकड़म में है। यही वह सुनहरा अवसर है, जब भारत को द्विपक्षीय और बहुपक्षीय वार्ताओं में खाद्य सुरक्षा, परमाणु दुर्घटना उत्तरदायित्व कानून और संयुक्त राश्ट सुरक्षा परिशद् की स्थायी सदस्यता जैसे अर्से से अनुत्तरित चले आ रहे मुद्दों के स्थायी हल खोजने की जरूरत है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी भारत नरेंद्र मोदी की सितंबर में होने वाली अमेरिका यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार करने आए हैं। भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक वार्ता का यह पांचवां दौर है। विदेश मंत्री सुशमा स्वराज से हुई बातचीत के दौरान जहां स्वराज आक्रामक दिखाई दीं, वहीं अमेरिकी विदेष मंत्री केरी कमोबेश रक्षात्मक रहे। यदि स्वराज कड़े लहजे में पेश नहीं आती तो नरेंद्र मोदी को एक दशक से भी ज्यादा समय तक अछूत मानकर चलने वाला अमेरिका सीधे मुंह बात नहीं करता। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में परस्पर मित्र देशों को एक दूसरे की जरूरत पड़ती है। लेकिन इस बाबत अमेरिका ने अब तक भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों को नजरअंदाज ही किया है। भारत अर्से से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सदस्यता लेने की कतार में खड़ा है। हालांकि अमेरिका का अभिमत भारत के पक्ष में है। लेकिन चीन इस सदस्यता में बड़ी बाधा है। चीन और अमेरिका के बीच व्यापारिक साझेदारी भारत से कहीं ज्यादा है, इसलिए अमेरिका ढीला पड़ जाता है। इसी वजह से अमेरिका के समर्थन के बावजूद जापान को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता नहीं मिल पा रही है। इस कतार में दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और जर्मनी भी हैं। लिहाजा इस मुद्दे पर भारत को दो टूक बात करने की जरूरत है। दूसरा मुंह बाए खड़ा सवाल भारत की एक बड़ी आबादी को खाद्य सुरक्षा के सिलसिले में दी जा रही सब्सिडी है। जेनेवा में 160 सदस्यीय देशों वाले विश्व व्यापार संगठन की वार्ता इस बाबत किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले समाप्त हो गई। दरअसल, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ जैसे विकसित व पूंजीपति देश चाहते हैं कि भारत समेत जो विकासशील देश हैं, वे अपने खाद्य सब्सिडी में कुल कृषि उत्पादन के बाजार मूल्य से 10 फीसदी से ज्यादा धनराशि खर्च न करें। इस कारण व्यापार सरलीकरण अनुबंध पारित नहीं हो पाया। इस मुद्दे पर भारत ने अपना कड़ा रुख बरकरार रखा, क्योंकि सप्रंग सरकार जो नया खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर छोड़ गई है, उसके तहत देश की गरीब व वंचित 67 प्रतिशत आबादी को खाद्य सुरक्षा हासिल करानी है। यह आबादी 81 करोड़ के करीब है। जाहिर है, इस पर खर्च भारत में होने वाले कुल फसलों के उत्पादन मूल्य के 10 फीसदी से कहीं बहुत ज्यादा बैठेगा। देश की किसी भी संवेदनशील सरकार का पहला दायित्व अपनी संपूर्ण जनता को भोजन उपलब्ध कराना है, न कि पराए देषों को भोग व उपभोक्तावादी वस्तुओं के लिए बाजार खोलना ? फिलहाल इस मुद्दे पर भारत और अमेरिका आमने-सामने खड़े हैं। भारत का तीसरा बड़ा सवाल परमाणु उर्जा जन उत्तरदायित्व कानून से जुड़ा है। इस कानून की धारा 17 में प्रावधान है कि किसी अमेरिकी उपकरण के कारण भारत में यदि कोई दुर्घटना होती है तो परमाणु संयंत्र प्रदायक कंपनी को नुकसान की भरपाई करनी होगी। जबकि अमेरिका चाहता है कि धारा 17 में दर्ज प्रावधानों को शिथिल कर दिया जाए, जिससे भारत को अमेरिका जो पुराने परमाणु उर्जा रिएक्टर बेच रहा है, यदि उनमें अचानक खराबी आने के कारण कोई बड़ी दुर्घटना घटती है तो अमेरिका को कोई मुआवजा न देना पड़े। अमेरिका की जेई इलेक्टोनिक्स और वेस्ंिटग हाउस कंपनियां पुराने परमाणु संयंत्रों और उपकरणों को बेचने की दिशा में तो प्रयत्नशील हैं, किंतु त्रासदी होने पर मुआवजे की भरपाई से छूट चाहती हैं। जाहिर है, यह बर्ताव भोपाल की यूनियन कार्बाइड जैसा है। जिसमें दुर्घटना होने पर 1000 लोग तो मर जाते हैं, लेकिन मृतकों के परिजन और अन्य पीडि़तों को मुआवजा अब तक नहीं मिला। चौथा बड़ा मुद्दा रक्षा क्षेत्र से जुड़ा है। अमेरिका भारत को लड़ाकू विमान, हथियार और जासूसी उपकरण बेचने का सिलसिला तो जारी रखना चाहता है, लेकिन रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और तकनीक हस्तांतरण की शर्तें मानने को तैयार नहीं है। नवंबर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक हुसैन ओबामा जब भारत आए थे तो भारत को पुराने परमाणु उर्जा संयंत्र, स्पाइस जेट-33, आधुनिकतम 737 एयरक्राफ्ट बोइंग विमान और सुरक्षा व जासूसी उपकरण बेचने में सफल हुए थे। भारत सुरक्षा व जासूसी उपकरणों का इसलिए बड़ा बाजार है, क्योंकि यहां कई आंतरिक संकट सुरसामुख बने हुए हैं। पाकिस्तान पोषित आंतकवाद ढाई दशक से अंगद का पैर बना हुआ है। माओवादी नक्सलवाद ने एक बड़े क्षेत्र में पैर पसार लिए हैं। आए दिन वह हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहा है। सीमांत प्रदेश अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, असम और नागालैण्ड में चीनी शह से अलगाववाद पनप रहा है। बांग्लादेशी घुसपैठिये भी खासतौर से जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ते हुए उग्रवाद को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। लिहाजा भारत को रक्षा, सुरक्षा और गुप्तचरीय उपकरणों की बड़ी जरुरत है। लेकिन इनकी खरीद के साथ तकनीक हस्तांतरण की शर्त भी भारत को रखनी चाहिए। पांचवां मुद्दा पाकिस्तान से आयतित आतंकवाद से जुड़ा है। अमेरिका पाक को सालाना 7.5 अरब डॉलर की आर्थिक मदद दे रहा है। इस राषि का दुरुपयोग भारत में अषांति और हिंसा फैलाने के लिए हो रहा है। चूंकि अमेरिका और पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबानों के विरुद्ध जारी लड़ाई में परस्पर सहयोगी हैं, इसलिए अमेरिका इस राशि को किन उद्देश्यों के लिए खर्च किया जा रहा है, इस पर सवाल नहीं उठाता ? लेकिन भारत अमेरिका के सामने इस राशि के सदुपयोग की शर्त रख सकता है। हालांकि दोनों विदेश मंत्रियों की जो साझा जानकारी सामने आई है, उससे इतना तो साफ हुआ है कि सुषमा स्वराज ने देश हित से जुड़ी चिंताओं को बेबाकी से रखा हैै। लिहाजा अमेरिका की खुफिया एजेंसी एनएसए द्वारा भारतीय नेताओं की कराई गई जासूसी के सिलसिले में केरी ने सफाई दी है कि ओबामा ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए अमेरिकी खुफिया सूचना-तंत्र की व्यापक और गंभीर समीक्षा शुरू कर दी है। गौरतलब है, जासूसी से जुड़े इस मुद्दे का पर्दाफाश एनएसए के ही कर्मचारी रहे एडवर्ड स्नोडेन ने किया था। इस खुलासे से भारत में बवाल मच गया था। लिहाजा मोदी की जिस दूरदर्शिता और नारों को मंत्र मानते हुए अमेरिका प्रसन्नता जाहिर कर रहा है। दरअसल इन तरीफों की पृष्ठभूमि में भारत में आर्थिक सुधारों के बहाने बाजार में पैठ बनाने का लक्ष्य अंतर्निहित है। इसलिए अमेरिका में जब ओबामा और मोदी आमने – सामने हो तब भारत को भी अपने हित साधने में कोई संकोच बरतने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारत अपने बाजार के कारण अमेरिका के लिए एक बड़ी जरूरत बना हुआ है।

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  1. भारत और अमरीका के बीच विभिन्न स्थितियों, विशेषकर व्यक्ति विशेष नरेन्द्र मोदी से भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर संयुक्त राज्य अमरीका के व्यवहार पर आधारित प्रमोद भार्गव द्वारा प्रस्तुत आलेख, “मोदी को मोहने की कोशिश में अमेरिका” भारत को देश की भलाई के प्रति सतर्क रहने का संदेश है| भारत के लिए किसी भी विदेशी शासन के साथ समझौते में देश और देशवासियों के हितों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए लेकिन ऐसा केवल भावनाओं पर नहीं बल्कि परिस्थिति की वास्तविकताओं पर निर्भर होना चाहिए| सच तो यह है कि वास्तविकता की मांग है कि भारत और संयुक्त राज्य अमरीका में व्यापार, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, मानव अधिकारों, इत्यादि के मुद्दों पर पारस्परिक संबंध दोनों देशों के हित में हैं| तथाकथित स्वतंत्रता के शीघ्र पश्चात से ही दोनों देशों में असहयोग अथवा दूरी व भारत का तत्कालीन सोवियत संघ की ओर झुकाव को मैं देश में पूर्व शासन द्वारा एक घिनौने षड़यंत्र की कड़ी समझता रहा हूँ| आज जीवन की साधारण उपलब्धियों के विकट अभाव के बीच देश के दो तिहाई जनसमूह के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम २०१३ के अंतर्गत रियायती खाद्यान्न का प्रावधान उस षड़यंत्र का सीधा प्रभाव है| राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा ‘ब्रांड इंडिया’ को पुनर्जीवित करने के लिए मोदी सरकार की योजना की रूपरेखा में बताई बहुत सी योजनाओं की सफलता में संयुक्त राज्य अमरीका के साथ भारत के संबंध अवश्य महत्वपूर्ण हो सकते हैं|

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