तुम चलत सहमित संस्फुरत !

तुम चलत सहमित संस्फुरत,
स्मित औ सिहरत प्रष्फुटत;
परिप्रेक्ष्य लखि परिद्रश्य तकि,
पटकथा औ पार्थक्य लखि !

उड़िकें गगन आए धरणि,
बहु वेग कौ करिकें शमन;
वरिकें नमन भास्वर नयन,
ज्यों यान उतरत पट्टियन !

बचिकें विमानन जिमि विचरि,
गतिरोध कौ अवरोध तरि;
आत्मा चलत झाँकत जगत,
मन सहज करि लखि क्षुद्र गति !

आकाश कौ आभास तजि,
वाताश कौ भूलत परश;
ऊर्जा अगिनि संयत करत,
वारिधि की बाधा करि विरत !

अहसास अपनौ पुनि करत,
विश्वास प्रभु सत्ता रखत;
‘मधु’ चेतना चित वृति फुरत,
चिर नियन्ता आदेश रत !

गोपाल बघेल ‘मधु’

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