टीवी में आतंकी इमेजों का स्वाँग

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मुंबई शांत और सामान्य है। भारत-पाक संबंध गरम और नरम हैं। 26 नबम्वर 2008 की घटना को लोग भूलने लगे हैं। शहर अपनी धुन में लौट आया है। शहर शांत है किंतु देश की राजनीति अशांत है। आतंक की खूबी है वह सत्ता को अशांत रखता है। सत्ता के सामने दो ही रास्ते छोड़ता है समर्पण या मुकाबला। भारत सरकार ने आतंक के खिलाफ संघर्ष का रास्ता चुना और इसके अच्छे परिणाम निकले। आतंकी कार्रवाई में शामिल सभी आतंकवादी मारे गए। उनकी किसी भी मांग को सुनने से इंकार किया। उल्लेखनीय है 26 नबम्बर को आतंकियों ने ‘इंडिया टीवी’ चैनल को दिए साक्षात्कार में अपने साथियों की रिहाई की मांग रखी थी और सरकार ने उनकी बात पर कान तक नहीं दिया।

आतंक को सत्ता यदि सख्ती से ढील करती है तो उसके सही परिणाम निकलते हैं। सत्ता के प्रति जनता की आस्थाएं मजबूत होती हैं। आतंक के खिलाफ कार्रवाई के दौरान अनेक निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। समूची प्रक्रिया में कितने लोग आतंकियों के हाथों मारे गए और कितने कमाण्डो ऑपरेशन में मारे गए, इसके बारे में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव अभी तक बना हुआ है। लेकिन यह सच है कि सरकारी कार्रवाई से कम से कम क्षति हुई और ज्यादातर लोगों को बचाने और समस्त आतंकियों को मारने में कमाण्डो आपरेशन सफल रहा।यह आपरेशन 59 घंटे चला और इसमें 265 लोगों की मौत हुई। आतंकवाद के मीडिया कवरेज के लिहाज से यह सबसे लंबी अवधि तक दिखाया गया लाइव टीवी कवरेज था।

टीवी कवरेज देखते हुए दर्शक इमेज के इर्दगिर्द एकत्रित होता है। सतह पर जो देखता है उसके अंदर छिपे यथार्थ से जुड़ता है। इमेज में निहित तथ्य, प्रस्तुति, प्रभाव, विचार, भावना, अतीत और वर्तमान के साथ जुड़ता है। टीवी इमेज का कोई केन्द्र नहीं होता बल्कि यह अंतरिक्ष जगत (कास्मोलॉजिकल वर्ल्ड) से जुड़ी होती है। फलत: इस इमेज का अतीत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ा संदर्भसूत्र भी नहीं होता। यह इमेज फ्लो में आती है। समय का इसमें चौतरफा प्रवाह होता है। यह इमेज इस कदर चिकनी होती है कि इसे समय का गुलाम नहीं बना सकते।

टीवी इमेज किसी के मातहत नहीं होती। मजेदार बात यह है कि प्रत्येक चीज का समय का संबंध होता है किंतु टीवी इमेज का समय के साथ संबंध नहीं होता। यही वजह है कि टीवी इमेज में दर्शक क्षण में देख रहा होता है। यह क्षण ही वर्तमान में खण्ड-खण्ड रूप में सामने आता है। इमेज की क्षण में प्रस्तुति अतीत को वर्तमान और वर्तमान को अतीत में ले जाती है।

जिस तरह भगवान को देख नहीं सकते किंतु वह है। उसी तरह टीवी इमेज को वास्तव में पकड़ नहीं सकते। वह होती है। भगवान जिस तरह अनंत है टीवी इमेज भी अनंत है। इमेज की अनंतता ही उसके सार को निर्धारित करती है। उसके विचार को तय करती है। टीवी इमेज के तीन धरातल हैं। पहला, इमेज की अंतर्वस्तु में संभावनाएं निहित होती हैं। दूसरा, इमेज की अंतर्वस्तु का वास्तव में अस्तित्व होता है। तीसरा, इमेज का किसी घटना से संबंध होता है। ये तीनों स्तर मिलकर इमेज का निर्माण करते हैं।

टीवी इमेज के साथ ‘अभिव्यक्ति’ का गहरा संबंध है। इमेज की अभिव्यक्ति उपलब्ध चीजों के जरिए ही होती है। उससे ही उसकी सारवस्तु बनती है। उससे ही विचार बनते हैं। टीवी इमेज की अभिव्यक्ति शरीर, पेड़, पहाड़, सैनिक, आतंकी आदि चीजों के जरिए होती है। इमेज की अभिव्यक्ति एक तरह से इमेज का विस्तार और विकास भी है। जब टीवी इमेज विस्तार और विकास करती है तो अनेक चीजें अप्रकाशित रहती हैं, अप्रत्यक्ष रहती हैं। भिन्न रूप में सामने आती हैं। अभिव्यक्ति के दौरान भिन्नता व्यक्त होती है। मसलन् जब टीवी पर ऋत्विक रोशन का शरीर देखते हैं तो सतह पर उसका शरीर ही देखते हैं। किंतु दूसरी ओर यह भी देखते हैं कि उसके शरीर के साथ किसी की तुलना संभव नहीं है। उसका जैसा शरीर बनाना संभव नहीं है। यानी इमेज में सार को देखते हुए सार को अतुलनीय पाते हैं। दूसरी बात यह कि ऋत्विक रोशन का शरीर अतुलनीय है किंतु सारत: शरीर को देखते हैं। टीवी इमेज में सार्वभौम और अपरिहार्य को देखते हैं। इनकी ज्ञानात्मक अभिव्यक्ति देखते हैं। रूपान्तरणकारी इमेज को देखते हैं। फलत: संदेश जाता है कि जीवन रूपान्तरणकारी होता है।

टीवी इमेज को रूपान्तरणकारी परिप्रेक्ष्य में देखने का अर्थ है कि व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए चीजों, जिंदगी और विश्व का सही और पर्याप्त ज्ञान होना जरूरी है। स्वयं की कल्पना के दायरे में कैद होकर नहीं रहना चाहिए। बल्कि रूपान्तरणकारी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इससे ज्ञान के श्रेष्ठतम धरातल का स्पर्श करने में मदद मिलती है।

यथार्थ ही भाषा है। इमेज में जो यथार्थ है वही इसकी भाषा भी है। इमेज की भाषा उसके साथ ही अन्तर्ग्रथित होती है। इमेज में जो पहले से मौजूद है उसी को अभिव्यक्त किया जाता है। कोई ऐसी चीज अभिव्यक्त नहीं होती जो पहले से मौजूद न हो। भिन्नता उसकी प्रस्तुति के जरिए पैदा की जाती है। भाषागत लगाव, भूमिका और संबंध इन तीन चीजों को टीवी इमेज एक ही साथ व्यक्त करती है। बगैर लगाव के कोई भी इमेज संप्रेषित नहीं होती। उसकी भूमिका और संबंध बताए बिना संचार पूरा नहीं होता। टीवी इमेज हमेशा बासी होती है पुरानी होती है। मूलत: वीडियो के माध्यम से संप्रेषित होती है।

टीवी इमेज संकेतों, प्रतीकों, चिन्हों के जरिए व्यक्त करती है। कलात्मक संकेतों के जरिए मर्म को संप्रेषित करती है, मर्म की अभिव्यक्ति में सारी दुनिया इकसार नहीं दिखती। बल्कि भिन्न-भिन्न रूप में दिखती है। मसलन् मुंबई के आतंकी हमले को भारत में विभिन्न समुदाय के लोग एक ही तरीके से अथवा पाक या अमरीका के लोग वैसे ही नहीं देखेंगे जैसे भारत के दर्शक देखेंगे। टीवी इमेज का मर्म अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में दर्शकों में भिन्न -भिन्न रूपों में संप्रेषित होता है। इसके कारण ही एक ही इमेज भिन्न भिन्न स्थानों पर अलग रूप में ग्रहण की जाती है।

टीवी इमेज के संकेत पूरी तरह मर्म पर ही निर्भर नहीं हैं। सभी किस्म के संकेत या प्रतीक अपने सिध्दान्तों के अर्थ को अपने अंदर समेटे होते हैं। भाषा जब भी संकेतों या इमेज को व्यक्त करती है तो परंपरागत अभिव्यक्ति के रूपों में उलटफेर या गड़बड़ी पैदा करती है। परंपरागत प्रस्तुति को अस्तव्यस्त करती है। ऐसे में भाषिक दुर्घटना का होना अनिवार्य है। दैनन्दिन जीवन में चीजें जिस भाषा में व्यक्त होती हैं उससे भिन्न रूप में टीवी में व्यक्त होती हैं। प्रस्तुति के दौरान जो भाषिक दुर्घटना टीवी में नजर आती है वह असल में दैनन्दिन जिंदगी की अभिव्यक्ति है।

टीवी में जब भी कोई इमेज देखते हैं तो वह हमेशा किसी न किसी भाषिक प्रस्तुति के जरिए पेश की जाती है। फलत: भाषा के परंपरागत नियमों और अर्थ संरचनाओं में दाखिल होते हैं। किंतु इसकी अभिव्यक्ति हमेशा विकसनशील बुध्दिमत्ता को सामने लाती है। संकेत अथवा चिन्ह हमेशा परंपरागत होते हैं। वे किसी ठोस वस्तु से जुड़े होते हैं। जबकि भाषिक संकेत भिन्न किस्म के अर्थ को व्यक्त करते हैं। वे कभी मर्म को व्यक्त नहीं करते। मसलन् भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति भिन्न रूप में होती है, दृश्य माध्यमों में अलग रूप में होती है।

इसी तरह आतंकी हमले की इमेज जब प्रस्तुत की जाती है तो देखना होगा कि क्या पेश किया जा रहा है और किस भाषा में पेश किया ज रहा है और लोग किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं। मुंबई की आतंकी घटना के 59 घंटे के कवरेज में आरंभ किसी इमेज से नहीं होता है बल्कि सबसे पहले भाषा में खबर पेश की जाती है। शीर्षक था’दो गुटों में फायरिंग’। इसके कुछ समय बाद इमेजों का प्रक्षेपण आरंभ होता है जो 59 घंटे तक

चलता है। इसमें सबसे पहली इमेज ‘टाइम्स-नाउ’ चैनल पर आती है। जिसमें आतंकी हमलावरों को भागते, फायरिंग करते, पुलिस कास्टेबिलों के साथ मुठभेड़ करते, पुलिस गाड़ी को हाईजैक करते दिखाया गया।

आतंकी घटना के तथाकथित लाइव कवरेज ने दो सवालों को जन्म दिया है। पहला बुनियादी सवाल यह उठा है कि क्या मुंबई की आतंकी घटना के लाइव प्रसारण ने प्रसारण के एथिक्स का उल्लंघन किया है? दूसरा सवाल यह है क्या टीवी से प्रत्यक्ष आतंकी हिंसा का प्रसारण दिखाया जाना चाहिए? इन दोनों सवालों पर विचार करने पहले यह ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि आतंकी हमला क्यों हुआ? आतंकियों की मंशा क्या थी?

आतंकी हमला राष्ट्रद्रोह है। किसी भी तर्क से इसे वैध नहीं ठहराया जा सकता। ‘इकनॉमिक टाइम्स’, (हिन्दी, 30 नबम्बर 2009) में प्रकाशित एसोचैम के सचिव डी.एस. रावत के अनुसार आतंकी हमले से तकरीबन चार हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ।

अनेक मीडिया पंडितों का मानना है मुंबई के आतंकी हमले का लाइव कवरेज मूलत: टीवी के अभिजनवादी नजरिए की अभिव्यक्ति है। लाइव कवरेज के संदर्भ में यह तर्क एकसिरे से बेहूदा और बोगस है। यह संयोग की बात है कि मुंबई के हमले के निशाने पर अभिजन थे। किंतु यह हमला अभिजनों पर नहीं किया गया था। यह हमला भारत पर हुआ था। इस हमले का व्यापक कवरेज इसलिए हो पाया क्योंकि यह घटना मुंबई में घटी थी और टीवी चैनलों के लिए प्रसारण के फलो को बनाए रखना संभव था। यही घटना कहीं दूर-दराज के इलाके में घटी होती तो इतना व्यापक कवरेज नहीं आता। मीडिया की घटना तक सहज पहुँच ने इसके कवरेज को संभव बनाया।

यह भी कहा गया कि मीडिया ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के रेलवे स्टेशन की आतंकी-पुलिस मुठभेड़ और उसके बाद की परिस्थितियों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित न करके पांच सितारा होटलों पर हो रही मुठभेड़ पर ज्यादा ध्यान दिया। रेलवे स्टेशन पर साधारण लोग थे और पांच सितारा में अभिजन थे। रेलवे स्टेशन पर मारे जाने वाले लोग साधारण मध्यवर्ग के थे और पांचसितारा में जो लोग थे वे अभिजन थे। अपने अभिजनवादी नजरिए के कारण मीडिया ने पांचसितारा की मुठभेड़ को ज्यादा कवरेज दिया।

इस तरह के तर्कों के संदर्भ में पहली बात यह है कि आतंकियों के निशाने पर कभी कोई सामाजिक वर्ग या धर्म नहीं होता। आतंकी हमले का मूल लक्ष्य है ‘भय’ पैदा करना और ज्यादा से ज्यादा हत्या करके व्यापक कवरेज हासिल करना। आतंकी हमले के निशाने पर हमेशा राष्ट्र होता है। इस प्रसंग में सिर्फ जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण काफी होगा। जिन इलाकों में आतंकी कार्रवाई जारी है वे इलाके किसी भी दृष्टि से अभिजन इलाके नहीं हैं। यही स्थिति उत्तर-पूर्व के राज्यों में चल रही आतंकी कार्रवाई के संदर्भ में देख सकते हैं। यहां तक कि नक्सल आतंक से वे ही इलाके प्रभावित हैं जो किसी भी रूप में धनी नहीं हैं। आतंकी कभी जाति, दौलत, और धर्म देखकर हमला नहीं करते। आतंकियों का मूल निशाना राष्ट्र होता है। राष्ट्र को तबाह करने के लिए किसी का भी खून बहाया जा सकता है, कहीं पर भी हमला किया जा सकता है। किसी को भी बंधक बनाया जा सकता है और कहीं पर भी मुठभेड़ हो सकती है।

दूसरी बात यह कि टीवी कवरेज खासकर आतंकी कवरेज कितना होगा और कहां पर कैमरा होगा यह कभी दर्शक की स्थिति के अनुसार तय नहीं किया जाता। टीवी पर जब लाइव कवरेज आता है अथवा जब खबरें आती हैं तो उन्हें अभिजन ही नहीं देखते बल्कि साधारण लोग भी देखते हैं। अखबार में जब खबर छपती है तो उसे अमीर ही नहीं साधारण लोग भी पढ़ते हैं। आतंकी हमले के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा अगर कहीं नजर आता है तो साधारण आदमी में नजर आता है। क्योंकि सबसे ज्यादा उसे ही क्षति उठानी पड़ती है।

1 COMMENT

  1. दूरदर्शन छवि को जनसरोकारों के बरक्स्स आद्द्योपंत जानने समझने एवं उसके विभिन्न आयामों को इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत करने में आदरणीय चतुर्वेदी जी आप का कोई विकल्प नहीं .आपके कतिपय पाठक जो की आपको पढ़ते हैं किन्तु नेट सुविधा अथवा अन्य कारणों से आपको अपनी प्रतिक्रया देने में असमर्थ हैं. उनका निवेदन है की आलेख का कलेवर कुछ सीमित किया जाना उचित होगा .विषय वस्तु का चयन भी यदि इसी तरह का हो तो समकालिक सन्देश भी अन्तर्निहित जरुर करें .शुभेच्छु श्रीराम तिवारी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here