राममंदिर टूटने से पहले हुए थे पौने दो लाख हिन्दू बलिदान

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ayodhya‘जय-पराजय का चक्र’

कुछ विजयें ऐसी होती हैं कि उनके कारण किसी  व्यक्ति या किसी राजा का विशेष नाम हो जाता है। जैसे अशोक की ‘कलिंग विजय’। इसी प्रकार कोई पराजय भी ऐसी होती है कि उसके कारण किसी व्यक्ति या किसी राजा की विशेष चर्चा होती है। जैसे खानवा के युद्घ में बाबर के समक्ष महाराणा संग्राम सिंह की पराजय। यह पराजय वैसी ही थी जैसी मौहम्मद गौरी के समक्ष पृथ्वीराज चौहान की पराजय थी।

पृथ्वीराज चौहान का नाम इतना भारी है कि उसकी पराजय को भारत की पराजय माना गया। इसी प्रकार अब राणा संग्रामसिंह का नाम इतना भारी था कि उसकी पराजय को भी हिंदुस्थान की पराजय माना गया।

इसका कारण स्पष्ट है कि पृथवीराज चौहान की पराजय के पश्चात भारतवर्ष में दिल्ली सल्तनत का क्रूर कालचक्र चला तो राणा संग्रामसिंह की पराजय के पश्चात भारतवर्ष में मुगलवंश की स्थापना हुई, अथवा उसका क्रूर कालचक्र चला।

जब पराजित भी पूज्यनीय हो जाता है

पृथ्वीराज चौहान और महाराणा संग्रामसिंह पराजित होकर भी विजयी के समान पूजनीय हैं। इसका कारण एक दृष्टांत से स्पष्ट हो सकता है-

‘‘एक बार राष्ट्रपति रूजवेल्ट के एक मित्र ने उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए उनसे पूछ लिया-‘क्या जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए साधारण योग्यता का होना आवश्यक है?’ इसका उत्तर देने से पूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट गंभीर हो गये, कुछ क्षण रूककर तत्पश्चात बोले-‘मैंने विचार किया है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के अथवा महान बनने के दो ही उपाय हैं-एक वह काम करना जिसे असाधारण योग्यता वाले ही कर सकते हैं। परंतु असाधारण योग्यता वाले संसार में कम हैं, इसलिए इस प्रकार की सफलता संसार में एकाध व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है। साधारण लोगों को ऐसी सफलता नही मिल सकती। दूसरा उपाय है कि उस काम को करना है जिसे प्रत्येक मनुष्य कर तो सकता है परंतु करता नही है। मुझमेें भी कोई असाधारण प्रतिभा नही है। जीवन में सफलता पाने के लिए उन्हीं साधारण गुणों की आवश्यकता है, जो प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात होते हैं। आवश्यकता उन गुणों को पहचानने की है।’

अपराजित विजयी

इतिहास का विशेष दायित्व होता है कि वह कौन पराजित हुआ और कौन अपराजित विजयी रहा? इस बात पर ध्यान न देकर निष्पक्ष आंकलन करे कि असाधारण गुणों से संपन्न कौन था और किसने साधारण गुणों को पहचानकर ही उन्हें अपने भीतर धारण कर स्वयं को असाधारण बना लिया।

इतिहास ने यदि पृथ्वीराज चौहान और महाराणा संग्रामसिंह को अपनी कसौटी पर कसकर देखा होता तो ज्ञात होता कि ये दोनों महामानव ‘पराजित योद्घा’ थे। उनका अदम्य साहस और शौर्य शरीर पर दर्जनों घावों के रहते भी अटूट और अक्षय बना रहा। दोनों ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक देश की स्वतंत्रता और हिंदुत्व की रक्षार्थ संघर्ष किया। बाबर की तोपों का सामना राणा की तलवारों ने नही किया था जैसा कि आज तक कहा जाता रहा है, अपितु ‘हिंदू वीरों की छाती’ ने किया था। इस तथ्य को यदि समझा जाए और आज के प्रचलित इतिहास में बच्चों को पढ़ाया जाए तो वह भी राणा संग्रामसिंह की भांति राष्ट्र रक्षा का संकल्प लेकर आज के भारत के शत्रुओं को पहचान सकते हैं और उनके विरूद्घ राणा संग्रामसिंह की भांति  ही सीना तानकर खड़े हो सकते हैं।

‘हिंदू वीरों की अजेय छाती’

तनिक स्मरण करें उन क्षणों को जब बाबर की तोपें आग उगल रही थीं तो उनके सामने अंधे होकर भागने और भागकर तोप और तोपची को अपने नियंत्रण में लेने का रोमांचकारी आदेश जब राणा सांगा ने अपने सैनिकों को दिया था तो वह अंधे होकर ही तोपों के सामने आ गये और बिना किसी चिंता के सैकड़ों हिंदूवीरों ने अपना बलिदान दे दिया, यह उन हिंदू वीरों का असाधारण गुण था। इतिहास का यह धर्म नही है कि वह ऐसे असाधारण गुणों की उपेक्षा करे।

ऐसे असाधारण गुणों के सामने  तुच्छता (छल, कपट और षडय़ंत्रों के बल पर) जीत रही थी। वह ‘तुच्छता’ हमारे इतिहास का दुर्भाग्य हो सकती है, पर वह इतिहास का ‘श्रंगार’ नही कही जा सकती।

30 हजार बनाम एक लाख

खानवा के युद्घ में महाराणा  सांगा ने तीस हजार सैनिकों के बल पर बाबर के एक लाख सैनिकों के छक्के छुड़ाये थे। इस युद्घ में बाबर के कुछ हजार और राणा के छह सौ सैनिक ही बचे थे। यदि  बाबर के मृतक सैनिकों की संख्या नब्बे हजार भी मानी जाए तो भी राणा के तीस हजार सैनिकों में से प्रत्येक ने तीन शत्रुओं का नाश किया। इस प्रकार खानवा का मैदान यदि महाराणा संग्रामसिंह के तीस हजार सैनिकों का स्मारक स्थल है, तो बाबर के नब्बे हजार सैनिकों की कब्रगाह भी है। बाबर की संख्या नही जीती और हमारा साहस नही हारा? फिर किसकी हार किसकी जीत? इतिहास के पास क्या उत्तर है, हमारे इस प्रश्न का?

बाबर बढ़ा अवध की ओर

बाबर के विषय में यह प्रामाणिक तथ्य है कि वह खानवा के युद्घ में मिली सफलता से उत्साहित होकर 1527 ई. के मार्च माह के अंत में अवध की ओर बढ़ा था। उसने अवध के निकट जाकर पड़ाव डाल दिया, तथा अवध के प्रबंध हेतु कुछ कार्यवाही भी की।

यहां पर उसे कुछ ऐसे धर्मांध मुसलमान मिले जो राम जन्मभूमि पर खड़े मंदिर को तुड़वाकर वहां मस्जिद बनवाना चाहते थे। इसका कारण यह था कि राम को भारत में राष्ट्र का पर्यायवाची माना जाता था। राम भारत के रोम-रोम में रचे बसे पड़े थे। राम इस देश की आत्मा थे और मुस्लिम फकीर यह जानते थे कि यदि राम को भारत से निकाल दिया जाए तो भारत को गुलाम बनाने में देर नही लग सकती। इसलिए उन लोगों ने बाबर को इस बात के लिए प्रेरित किया कि राम जन्मभूमि पर खड़े मंदिर को यह यथाशीघ्र नष्ट कर दें।

बाबर बचता रहा राम मंदिर तोडऩे से

बाबर यह जानता था कि यदि उसने भारत में रहकर भारतीयों की आस्था के प्रतीक राममंदिर को तोडऩे का प्रयास किया तो इसका परिणाम क्या होगा? संपूर्ण भारत में उबाल आ जाएगा और तेरी बादशाहत के लिए अभूतपूर्व संकट उठ खड़ा होगा। वह जानता था कि सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस के पश्चात भारतवासी हिंदू वीरों ने अपनी आस्था, संस्कृति और राष्ट्रीयता के स्मारक उस मंदिर के विध्वंसकों से प्रतिशोध लेने के लिए कितना व्यापक आंदोलन चलाया था और उस आंदोलन से मुस्लिम आक्रांताओं का कितना अहित हुआ था? इसलिए वह राममंदिर को किसी भी प्रकार से क्षतिग्रस्त करना नही चाहता था। पर जब कुछ मुस्लिम फकीरों ने उसे अभिशाप देने की बात कही तो वह राममंदिर के विध्वंस के लिए तैयार हो गया। इस प्रकार यह सत्य है कि बाबर ने राममंदिर को तोडऩे का निर्णय अपने अंत:करण की आवाज को सुनकर नही लिया था, अपितु मुस्लिम फकीरों के दबाव के सामने झुककर उसने ऐसा करने का मन बनाया था।

राममंदिर ढहाने की राजाज्ञा
सत्यदेव परिव्राजक जी ने स्वतंत्रता पूर्व (1924 ई.) में इस विषय पर अच्छा शोध किया था। उन्होंने अपने विशेष अध्यवसाय से दिल्ली में पुराने अभिलेखों में से एक ऐसी राजाज्ञा को (शाही फरमान को) ढूंढ़ निकाला जो अयोध्या में स्थित रामजन्मभूमि पर खड़े मंदिर को गिराकर वहां मस्जिद बनाने के संबंध में था। उसमें लिखा था-‘शहंशाहे हिंद मालिकूल जहां बादशाह बाबर के हुकुम से हजरत जलालशाह के हुकुम के बमुजिब अयोध्या में राम की जन्मभूमि को मिसमार करके उसी जगह उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गयी। बजरिये इस हुकुमनामे के तुमको बतौर इत्तिला के आगाह किया जाता है कि हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिंदू अयोध्या न जाने पाये, जिस शख्स पर यह शुबहा हो कि वह अयोध्या जाना चाहता है तो उसे फौरन  गिरफ्तार करके दाखिले जिंदा कर दिया जाए। हुक्म सख्ती से तामील हो फर्ज समझकर।‘शाही मुहर’

बरती गयी पूर्ण सावधानी

इस राजाज्ञा के अवलोकन से स्पष्ट है कि बाबर और उसके दरबारी मंत्री यह भली भांति जानते थे कि यदि रामजन्म भूमि पर हो रहे मस्जिद निर्माण की भनक भारत के हिंदुओं को हो गयी तो संपूर्ण भारत वर्ष में विद्रोह और विप्लव की आंधी आ जाएगी। इसलिए उचित यही होगा कि लोगों को वहां जाने से रोका जाए और अयोध्या की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था कर दी जाए।

भारतीयों की वीरता

भारत के आर्य-हिंदू लोगों की वीरता के संबंध में मि. एल्ंिफस्टन का कथन है कि-‘‘वे प्राय: ऐसी वीरता का प्रदर्शन करते हैं जिसका युद्घकला में प्रवीण कोई भी राष्ट्र दमन नही कर सकता और वे धर्म एवं सम्मान के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने को सदैव तत्पर रहते हैं।’’

इसी प्रकार कर्नल टॉड भी भारतवर्ष के आर्य हिंदुओं की वीरता से बहुत प्रभावित था। वह लिखता है कि-‘एक राजपूत के मस्तिष्क में उसके देश का नाम एक जादुई शक्ति का स्रोत है। उसकी पत्नी का नाम और उसके देश का नाम सदैव आदर से लेना चाहिए, अन्यथा उसकी तलवार को म्यान से बाहर निकलने में किंचित भी देरी नही होगी।’

इसे कहते हैं-भारत का राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव के प्रति समर्पण का उसका संपूर्ण भाव।

जिस देश के निवासी शत्रु द्वारा अपनी पत्नी का और अपने देश का नाम सम्मान से न लेने वाले के प्रति अत्यंत कठोर होते हैं, और उसे तलवार से काटकर वह शांत करने में भी देर नही लगाते उस देश के लोग अपनी सामूहिक चेतना के केन्द्र राम मंदिर को तोडऩे वालों के प्रति भला कैसे चुप रह सकते थे? यह बात विचारणीय है।

मीरबकी खां ने लिखा था…

जब बाबर ने अयोध्या में राम मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनवानी आरंभ की तो मीरबकी खां ने उसके लिए लिखा था-‘‘मंदिर को भूमिसात करने के पश्चात उसके ही मलबे और मसाले से जब से मस्जिद का निर्माण आरंभ हुआ है, दीवारें अपने आप गिर जाती हैं। दिन भर में जितनी दीवार बनकर तैयार होती है, शाम को न जाने कैसे गिर पड़ती है? महीनों से यह खेल चल रहा है।’’

बाबर ने की पुष्टि

बाबर की आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ के पृष्ठ 523 पर बाबर इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखता है-‘‘मीर बकीखां ने मेरे पास खत लिखा  है कि अयोध्या के रामजन्म भूमि मंदिर को मिस्मार करके जो मस्जिद तामीर की जा रही है, उसकी दीवारें शाम को आप से आप गिर जाती हैं। इस पर मैंने खुद जाकर सारी बातें अपनी आंखों से देखकर चंद हिंदू आलियाओं, फकीरों को बुलाकर यह मसला उनके सामने रखा, इस पर उन लोगों ने कई दिनों तक गौर करने के पश्चात मस्जिद में चंद तरकीमें करने की राय दी। जिनमें पांच खास बातें थीं यानि मस्जिद का नाम सीता पाक रखा जाए। परिक्रमा यथावत रहने की आज्ञा दी जाए। सदर गुम्बद के दरवाजे में लकड़ी लगा दी जाए। मीनारें गिरा दी जाएं और हिंदू महात्माओं को भजन पाठ करने दिया जाए। उनकी राय मैंने मान ली, तब मस्जिद तैयार हो सकी।’’

बाबरी मस्जिद नही सीता पाक नाम दिया गया था

इसका अभिप्राय है कि राम मंदिर के स्थान पर जो कुछ भी बाबर ने निर्माण कराया वहां ‘सीता पाक’ था। बाबरी मस्जिद का नाम उसे कालांतर में दिया गया। बाबर ने हिंदू विद्वानों के परामर्श पर जो निर्णय लिया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है-जिसे उसकी ‘आत्मकथा’ अनुमोदित रहती है।

पहले दिन से ही आरंभ हो गया था विरोध

जिस समय मुस्लिम विद्वानों ने बाबर को राममंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाने के लिए प्रेरित किया, उसी समय से हिंदू साधु संत और जनसाधारण मस्जिद का विरोध करने के लिए सचेष्ट हो गया था। साधु संतों का तर्क था कि जब हमारे पास एक से बढक़र एक महापुरूष है, देवी-देवता हंै तो हम उन्हीं के पूजा स्थल बनाएंगे और बनने देंगे। अपने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की जन्म स्थली पर खड़े मंदिर को टूटने नही दिया जाएगा और ना ही वहां कोई मस्जिद बनने दी जाएगी।

ऐसी परिस्थितियों में बाबर ‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ था। वह भारत में अभी आकर ही बैठा था, पूर्णत: स्थापित नही हो पाया था। उसका सपना अपना साम्राज्य स्थापित करके इस्लाम का विस्तार करते हुए इस्लाम की सेवा करने का अवश्य था, पर वह इतनी शीघ्रता से यहां के लोगों से शत्रुता करना नही चाहता था। वह पहले भारतीयों के साथ उठना -बैठना और सामंजस्य स्थापित करना चाहता था। भारत के लोग उससे संवादहीनता बनाये हुए थे, जो उसे चुभती थी और वह इसे समाप्त करना चाहता था। जिससे कि ‘अपना लक्ष्य’ सरलता से प्राप्त किया जा सके। इसलिए वह अयोध्या को अपने लिए ‘कफन की कील’ बनाने का पक्षधर नही था। तब उसने 1528 ई. में अयोध्या के लिए प्रस्थान करने का मन बनाया। वहां जाकर बाबर सात-आठ दिन रहा। उससे मुस्लिम आलियाओं ने स्पष्ट कर दिया कि उसे यदि भारत में रहकर शासन करना है तो राममंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण कराना ही होगा।

‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ बाबर ने निकाला रास्ता

तब बाबर ने हिंदू साधुसंतों से भेंट की। अंग्रेज इतिहासकार लोजन ने लिखा है-‘सम्राट बाबर सिरबा तथा घाघरा के संगम पर जो अयोध्या से तीन कोस की दूरी पर पूर्व में स्थित है, 1528 ई. में डेरा डाले हुए था। वहां पर सात-आठ दिनों तक पड़ा रहा।’’ उसने अपनी समस्या अयोध्या के साधुओं के सामने रखी कि ‘वह क्या करे! शाह साहब अपनी जिद पर अड़े हैं।’

किया हिंदू साधु संतों से समझौता

इसके उपरांत भी बाबर को हिंदू साधु संतों से समझौता करना पड़ा। अपने समझौते में हिंदुओं के पांचों प्रस्ताव स्वीकार कर लिए गये। मस्जिद के चारों ओर जिन मीनारों का निर्माण कराया गया था उन्हें गिरा दिया गया, जिससे कि वह मस्जिद सी ना लगे। द्वार पर मुडिय़ा और फारसी में ‘श्री सीता पाक’ लिखवा दिया गया। हिंदुओं को नित्य पूजा-पाठ की आज्ञा दे दी गयी। साथ ही लकड़ी लगाकर द्वारों में भी अपेक्षित परिवर्तन कर दिया गया।

ऐसा क्यों किया बाबर ने

इतना परिवर्तन बाबर ने दो परिस्थितियों में ही किया होगा एक तो वह अपने साम्राज्य को चिरस्थायी करने के लिए अभी हिंदू विरोध से बचना चाहता था। दूसरे उसकी पूर्णत: सावधानी बरतने के उपरांत भी राममंदिर के बिंदु पर सारी-हिंदू प्रजा में रोष और विद्रोह भाव इतना प्रबल था कि वह अभी उनसे शत्रुता करना नही चाहता था। इसलिए उसने मध्यममार्ग अपनाया और दोनों पक्षों को प्रसन्न करके आगे बढऩा ही उचित समझा। कजल अब्बास और जलालशाह (जो कि मस्जिद निर्माण की हठ करे बैठे थे) को बाबर के मध्यममार्गीय समाधान पर ही अपनी सहमति व्यक्त करनी पड़ी।

यह मध्यममार्गीय समाधान बाबर ने हो सकता है कि हिंदुओं का मूर्ख बनाने के लिए ही लिया हो, क्योंकि जब उसने आत्मकथा में इस मस्जिद निर्माण का उल्लेख किया तो उसने लिखा-‘‘हजरत कजल अब्बास मूसा आशिकान कलंदर साहब की इजाजत से जन्मभूमि मंदिर को मिस्मार करके मैंने उसी के स्थान पर उसी के मसाले से यह मस्जिद बनवाई।’’

(बाबर नामा पृष्ठ 173)

एस.आर. नैबिल ने भी की है इस तथ्य की पुष्टि

इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए एस.आर. नैबिल ने लिखा है-‘‘हिंदू मंदिर का विध्वंस कर उसी की सामग्री से वह (मस्जिद) बनायी गयी है। मस्जिद के भीतर 12 और फाटक लगे हैं, और दो काले कसौटी के पत्थरों के स्तंभ लगे हैं। केवल ये ही स्तंभ अब प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष मात्र स्मारक के रूप में रह गये हैं।’’

भीटी के राजा ने भरी हुंकार

भीटी के राजा उस समय महताबसिंह थे। वह बहुत ही देशभक्त और धर्मभक्त शासक थे। जिस समय उन्हें यह समाचार मिला कि राममंदिर का विध्वंस कर वहां पर मस्जिद का निर्माण कराया जा रहा है, उस समय वह बद्रीनाथ की यात्रा के लिए जा रहे थे। पर इस समाचार को पाते ही वह बूढ़ा शासक युवकों जैसे साहस से भर उठा, और उसने अपनी यात्रा का विचार त्यागकर सर्वप्रथम रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए युद्घ पर जाना उचित समझा। राजा के समक्ष अपने धर्म के लिए मर मिटना अनिवार्य था, क्योंकि वह जानता था कि धर्म की रक्षा से ही राष्ट्र की रक्षा हो पाना संभव है।

अत: राजा की आज्ञा से 80,000 हिंदू वीरों की एक विशाल सेना तैयार की गयी। राजा ने इस पुण्य कार्य में सहयोग देने के लिए चारों दिशाओं में अपने संदेश वाहक दूत भेजे और लोगों से सहयोग की अपील की। बड़ी संख्या में लोग स्वेच्छा से राजा के साथ आ खड़े हुए। इस राजा ने और उसकी सेना ने सत्रह दिन तक विदेशी शासक की सेना के साथ घोर संग्राम किया। बड़ी संख्या में लोगों ने रामजन्म भूमि की मुक्ति के लिए अपनी प्राणाहुति दी। राजा महताबसिंह स्वयं वृद्घ होते हुए भी युद्घ कर रहा था। पर यहां तो वृद्घावस्था में भी युद्घ करने की ‘भीष्म परंपरा’ और राष्ट्रवेदी के लिए निज अस्थियों का भी दान कर देने की ‘दधीचि परंपरा’ सदियों से नही युगों से चली आ रही थी, इसलिए वृद्घ राजा को युद्घ करने से कोई परहेज नही था और जनता को इतने वृद्घ राजा को युद्घ करते देखकर कोई आश्चर्य नही था। राजा ने वृद्घ होते हुए भी बड़ी संख्या में मुस्लिम सेना का विनाश किया। चारों ओर हाहाकार मची थी, बूढ़ा राजा जिधर भी निकल जाता उसी ओर ही राममंदिर विनाशकों में हडक़ंप मच जाता था।

देशभक्ति का ऐसा ज्वर चढ़ गया था कि लोग मर मारने पर उतारू हो गये थे, उन्हें इस समय अपनी प्राण रक्षा की उतनी चिंता नही थी, जितनी धर्म रक्षा और राष्ट्र रक्षा की चिंता उन्हें सता रही थी।

शिव का तांडव नृत्य करते राजा महताबसिंह ने दिया अपना बलिदान

राजा महताब सिंह आज शिव का तांडव नृत्य कर रहे थे और राममंदिर की रक्षार्थ किसी भी सीमा तक जाने को कृतसंकल्प थे। राजा के लिए सत्रहवें दिन का युद्घ अंतिम सिद्घ हुआ। वह युद्घ करते-करते बलिदान हो गये। राजा की सेना में भी बहुत थोड़े से सैनिक ही बच पाये थे। इस प्रकार लगभग 80 हजार लोगों की सेना ने रामजन्म भूमि की मुक्ति के लिए अपना बलिदान दिया। इसके अतिरिक्त अन्य लोग जो जनता की ओर से या तो युद्घ कर रहे थे या किसी अन्य प्रकार से शत्रुओं के द्वारा मार दिये गये थे उनकी संख्या अलग थी।

इतिहासकार कनिंघम ने कहा है कि-‘‘जन्मभूमि के मंदिर को गिराये जाने के समय हिंदुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी और एक लाख तिहत्तर हजार हिंदुओं के शवों के गिर जाने के पश्चात ही मीर बांकी खान मंदिर को तोप से गिराने में सफल हो सका था।’’ (लखनऊ गजेटियर)

हमने बलिदानों को भुला दिया

इतने बड़े बलिदानियों का इतना बड़ा बलिदान हमने यूं ही भुला दिया। राम मंदिर के विध्वंस की बात सुनकर उस समय भारत के राष्ट्रभक्त लोगों के हृदय में आग लग गयी थी-देशभक्ति की और स्वतंत्रता की। वह नही चाहते थे कि देश में किसी भी प्रकार से आक्रांता और संस्कृति नाशक लोग अपने पैर जमा सकें, और हमारे राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के प्रतीक राममंदिर का बाल भी बांका न कर सकें?

इतने भारी हिंदू प्रतिरोध के उपरांत मीरबकी खां ने भारत के ओज, तेज और सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक राममंदिर को तोप से उड़ा ही दिया। परंतु इसका अभिप्राय यह नही था कि भारत के देशभक्त हिंदुओं का साहस और यौवन दोनों ही समाप्त हो गये थे, उनका साहस और यौवन दोनों अक्षुण्ण रहे और इसलिए देश में देशभक्ति और स्वतंत्रता की ज्योति और भी प्रचण्ड हो उठी। यही कारण था कि अगले बीस वर्षों में हिंदुओं ने राम जन्मभूमि की मुक्ति को लेकर बीस बार ही संघर्ष किया। जिसका उल्लेख हम आगे करेंगे। जिनसे स्पष्ट होता है कि संघर्ष की ज्योति निरंतर जलती रही और भारतीयों की वीरता कभी भी आहत नही हुई। इस युद्घ में मीरबकी खां की कुल पौने दो लाख की सेना में से तीन चौथाई सेना हिंदू वीरों ने काट डाली थी। यह भी इतिहास का एक बहुत बड़ा सत्य है, सामान्यत: ऐसा माना जाता है या ऐसा प्रदर्शित करने का प्रयास किया जाता है कि हमने रामंदिर को लेकर केवल बलिदान बलिदान दिये हैं और शत्रु के शव हम नही बिछा पाये, परंतु सत्य यह है कि शत्रु को भी बड़ी मात्रा में हमने क्षति पहुंचाई।

क्रमश:

3 COMMENTS

  1. A fantastic effort by writer to spread venom. Article is far away from the real history. earlier there were no hindu muslim thing. if it is, then why rajputs are on muslim ruler side and afgans and other muslim fought for pratap.

  2. मैं जब यह आलेख पढ़ रहा हूँ,तो मुझे अपना एक आलेख याद आ रहा है,”भारत का इतिहास: हमारी गलतियों की कहानी”. हम अपनी वीरता की कहानी तो कहते हैं,पर यह हमेशा हमारी पराजय की कहानी बन कर क्यों रह जाती है? क्या यह शोध का विषय नहीं है?

    • श्रीमान आर सिंह जी,
      हम यदि कहीं हारे हैं तो अपने ही जयचंदों के छलछंदों के कारण हारें हैं और उसका ज्वलंत उदाहरण जे०एन०यू० की घटना है । जिसके पीछे इस देश को परास्त होते देखने की एक पूरी विचारधारा काम कर रही है। कुछ निराशावादी लोग भारत की पराजय की कहानी लिखने में ही बड़प्पन समझते हैं। उन्हें गलतियां ढूँढने में आनंद आता है। मेरा मानना है कि गलतियां ढूंढी जाए और उनसे शिक्षा ली जाए इसलिए जयचंदी परम्परा में व्यस्त लोगों के द्वारा की जा रही जे०एन० यू० जैसी घटनाओं के खिलाफ सारा देश एक साथ उठ खड़ा हो यह समय की आवश्यकता है पर हम विचारधाराओं के नाम पर अटक भटक जाएंगे और ऐसी मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेतृत्व का साथ छोड़ जाएंगे। ऐसी गलती करने वाले के विषय में आपके क्या विचार होंगे मुझे नहीं पता। पर मैं यह कहना चाहता हूँ क़ि लंबे संघर्ष के पश्चात भी यदि हम आज जीवित है तो इसके पीछे हमारे पूर्वजों के संघर्ष की गाथा है। हमसे बड़ी गलती यह हो जाती है कि हम गलतियों का स्मारक बनाते बनाते अपने पूर्वजों के महान और प्रतापी कार्यों को उसके नीचे दबा देतें हैं। यह लोगों की सोच है जो अपने आपको सेक्युलर कहते हैं।
      मेरा मानना है-
      ये नज़र नज़र के चिराग हैं
      कहीं जल गए कहीं बुझ गए
      और यह भी कि –
      जैसी दृष्टि
      वैसी सृष्टि

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