आमंत्रण के बहाने कूटनीति

-प्रमोद भार्गव-
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प्रधानमंत्री की शपथ लेने जा रहे नरेंद्र मोदी ने पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाने की कूटनीतिक चाल आमंत्रण के बहाने चल दी है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत अन्य सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इस बुलावे को स्वीकार लिया। दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) के सभी राष्ट्र प्रमुखों को शपथ-समारोह में बुलाकर मोदी ने साफ कर दिया है कि वे अतीत की गांठें खोलने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। साथ ही जो राजनीतिक दल पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका को लेकर टीका-टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें संदेश दे दिया है कि देश की विदेश नीति तय करना केंद्र सरकार का अधिकार है, इसमें राज्य सरकारों और क्षेत्रीय दलों का बेजा दखल नहीं चलेगा। जहां तक जातीय या क्षेत्रीय भावनाएं आहत होने का सवाल है तो ये उपराष्ट्रीयताएं भी भारत की संप्रभुता व अखंडता से जुड़ी हैं, इनका हल खोजना भी केंद्र का दायित्व है। अलबत्ता दो देशों के बीच जारी कटुता का व्यापक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हल तलाशना भी केंद्र की जिम्मेदारी है।

दक्षेस मसलन हमारे वे पड़ोसी देश जो हमारी जमीनी अथवा समुद्री सीमा से जुड़े हैं। इन देशों की संख्या 8 है। ये देश हैं, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और श्रीलंका हैं। हालांकि चीन भी हमारी सीमा से जुड़ा है, लेकिन वह दक्षेस का सदस्य देश नहीं है। इस समूह में यदि मॉरिशस, वर्मा, ईरान, म्यांमार और मध्य एशिया के पांच गणराज्य भी शामिल हो जाएं तो इसकी ताकत वैश्विक मुद्दों में हस्तक्षेप के लायक बन सकती है। मनमोहन सिंह पूरे एक दशक प्रधानमंत्री रहे, लेकिन वे विदेश नीति में मौलिक परिवर्तन लाने की दृष्टि से कोई भी पहल नहीं कर पाए। क्योंकि वे अनुकंपा प्रधानमंत्री थे और क्षेत्रीय छत्रपों के दबाव में तुरंत आ जाते थे। इसके उलट मोदी राजनेता होने के साथ, दृढ़इच्छाशक्ति वाले निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं, उनका यही आत्मबल उन्हें पड़ोसियों से संबंध सुधारने व विदेषी नीति को नई दिशा देने के लिए प्रेरित कर रहा है। गोया उन्होंने क्षेत्रीय दलों के दबाव के बावजूद पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के शासनाध्यक्षों को बुलाने का फैसला नहीं बदला।

यहां गौरतलब है कि दक्षेस संगठन के गठन में पाकिस्तान की अहम् भूमिका रही है। पाक के पूर्व राष्ट्रपति जियाउर्र रहमान ने इस परिकल्पना को अंजाम तक पहुंचाया था। उन्होंने दक्षेस के ज्यादातर देशों की यात्रा कर उनमें समन्वय हेतु एक दस्तावेज तैयार किया। 1981 में भारत समेत अन्य दक्षेस देशों के विदेश सचिवों की पहली बैठक बांग्लादेश में हुई थी। बाद में 1983 में विदेश मंत्रियों की बैठक नई दिल्ली में हुई और इसी बैठक में ‘दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन’ वजूद में आया। इसलिए यदि इस संगठन पर पड़ी धूल को झड़ाना है, तो पाकिस्तान की सहभागितान जरूरी है।
भारत-पाक के संबंध आजादी के बाद से ही नरम-गरम बने चले आ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर का 78,000 वर्गकिमी भूभाग पर पाक का अतिक्रमण है। नियंत्रण रेखा के उल्लंघन और सीमा पार से गोलीबारी और आतंकी गतिविधियां जारी हैं। दाऊद जैसा आतंकी भगोड़ा भी पाक की शरण में है। बार-बार इन गतिविधियों पर अंकुश लगाने की मांगों को पाक अनदेखा करता रहा है। जाहिर है, वह रिश्तों को मधुर बनाने में दिलचस्पी नहीं ले रहा। आखिर दो पड़ोसी और लोकतांत्रिक देशों में यह तनाव कब तक बना रहेगा। अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर बस सेवा शुरू करके और फिर परवेज मुशर्रफ को आगरा में आमंत्रित करके, जमीं बर्फ को पिघलाने में बड़े भाई सा बड़प्पन भी दिखाया था, लेकिन इसकी दुखद परिणति कारगिल युद्ध में देखी गई।
पाक के साथ बड़ी विडंबना यह भी है कि वहां लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकार जरुर है, लेकिन चलती सेना की है। इसीलिए नवाज शरीफ को न्यौता मंजूर करने में तीन दिन लगे। हालांकि इसके लिए शरीफ की भी प्रशंसा करने की जरूरत है कि उन्होंने सेना को अपने पक्ष में किया और पाक कट्टरपंथियों के दबाव में नहीं आए। इससे यह संदेश भी निकला है कि पाक प्रधानमंत्री के भीतर सेना के दबाव से उबरने की बैचेनी अंगड़ाई ले रही है। इसीलिए शरीफ शपथ समारोह की औपचारिकता पूरी करने के बाद अगले दिन मोदी से द्विपक्षीय वार्ता भी करेंगे। हालांकि इस बातचीत का कोई निश्चित एजेंडा नहीं है, इसलिए इस वार्ता से किसी समस्या का हल निकलेगा, ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। यह संवाद गहराते तनाव में शिथिलता लाए, यही बहुत है।

बांग्लादेश से तीस्ता नदी के जल बंटवारे और बस्तियों की अदला बदली को लेकर लंबा विवाद बदस्तूर है। मनमोहन सिंह तीस्ता से जुड़े समझौते के पक्ष में थे, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरोध के कारण समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर पाए। तब भाजपा भी इस समझौते के विरोध में थी। अब केंद्रीय सत्ता में आने के बाद भाजपा का क्या रुख रहता है, इसकी प्रतीक्षा है। हालांकि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना मोदी को ऐतिहासिक जीत के लिए बधाई देते वक्त भी इस मुद्दे को कुरेद चुकी हैं। तब मोदी ने बांग्लादेश के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाने का भरोसा जताया था। बांग्लादेश से भारत का घुसपैठ को लेकर भी विवाद है। इस कारण पूर्वोत्तर के कई राज्यों में जनसंख्यात्मक घनत्व गड़बड़ा गया है। घुसपैठियों ने इन क्षेत्रों में मूल निवासियों के आजीविका के संसाधनों पर भी कब्जा शुरू कर दिया है। इस वजह से घुसपैठियों और आदिवासियों के बीच लगातार हिंसक झड़पें हो रही हैं। मोदी ने पूर्वोत्तर की चुनावी सभाओं में घुसपैठियों को केंद्र में सरकार बनने के बाद खदेड़ने की हुंकार भरी थी। लिहाजा क्षेत्रीय जनता को उनसे उम्मीद है कि मोदी इस दिशा में ठोस कदम आगे बढ़ाएंगे। हालांकि कांग्रेस, तृणमूल और वामपंथी दल घुसपैठियों को खदेड़ने के खिलाफ में हैं। हो सकता है कि तीस्ता के समझौते के बूते घुसपैठ की समस्या का कोई हल निकले ?

तमिलों के मुद्दे को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच रिश्तों में कड़वाहट है। भारत की संसद ने श्रीलंका के खिलाफ तमिलों के नरसंहार के संदर्भ में मानवाधिकारों के उल्लंघन का निंदा प्रस्ताव भी पारित किया था। इस मुद्दे को लेकर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता, एम. करुणानिधि और तमिलों की प्रबल पैरवी करने वाला दल एमडीएमके राजग का घटक दल भी है। वाइको मोदी और राजनाथ सिंह से मिलकर श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के आमंत्रण पर पुनर्विचार का आग्रह भी कर चुके हैं। लेकिन फैसला बदला नहीं गया। दरअसल, मोदी इस मुद्दे पर बेफिक्र इसलिए हैं, क्योंकि उनकी सरकार तमिलनाडु की किसी पार्टी के समर्थन पर टिकी नहीं है। फिर यहां यह भी सोचने की जरूरत है कि कोई भी देश किसी एक व्यक्ति या एक दल की विचारधारा या इच्छा के अनुसार नहीं चलता ? किसी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को आगे बढ़ाने की दूरदर्शिता से यदि दक्षेस देशों को आमंत्रित किया गया है, तो उसमें किन्हीं क्षेत्रीय वजहों से किसी एक या दो दक्षेस सदस्य देशों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ? फिर मोदी तो अपने साक्षात्कारों में कहते भी रहे हैं कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं।

विदेश नीति की यह नई पहल चीन के बढ़ते साम्राज्यवादी मंसूबों पर अकुंश लगाने के नजरिए से भी अहम है। चीन ने अपनी सामरिक रणनीति पुख्ता करने की दृष्टि से पाक अधिकृत कश्मीर में 80 अरब डॉलर की पूंजी लगाई है। चीन ने मालदीव के मराओ द्वीप को गोपनीय ढंग से लीज पर ले लिया है। इसका उपयोग निगरानी अड्डे के रूप में किया जाएगा। इसी तरह चीन, श्रीलंका और बांग्लादेश में हंबनटोटा व चटगांव बंदरगाह विकसित करने में रुचि ले रहा है। जिससे भारत के नौसैनिक और व्यापारिक पोतों पर नजर रखी जा सके। चीन ने नेपाल में सीधा दखल देते हुए कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक माओवादी नेपालियों को ही अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इस लिहाज से दक्षेस संगठन में यदि मोदी नई जान डालने का काम कर रहे हैं तो यह कूटनीति देशहित में है। लिहाजा क्षेत्रीय दलों को संकीर्ण सोच से उबरने की जरूरत है।

3 COMMENTS

  1. केवल एक प्रश्न अगर भाजपा या नमो के बदले किसी अन्य पार्टी या ग्रुप के सरकार के मनोनीत प्रधान मंत्री की ताजपोशी होती ,तो नवाज शरीफ को निमंत्रित करने पर भाजपा और आर. एस. एस. का क्या रूख होता?

    • भाजपा और आर एस एस के रुख को आप नहीं पहचाने गे क्योंकि आपको नहीं मालूम कि राजनीति के खेल में खिलाड़ी और दर्शक की अपनी अपनी मर्यादा होती है|

      • इस सीधे सादे प्रश्न का सीधा उत्तर क्यों नहीं देते?आप उत्तर देने में में क्यों हिचकिचा रहे हैं ? गोल मटोल बाते बनाने से तो इसका उत्तर नहीं मिल जायेगा।इसे विचार विमर्श का भी मुद्दा बनाया जा सकता है। क्योंकि सब विचार धारा वालों केलिये मानक एक ही होना चाहिये।

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