देवभूमि के लिए चुनौती बनता बेरोजगार युवा

1
218

आशीश रावत

नब्बे के दशक में उत्तराखण्ड को अलग राज्य बनाने की मांग ने जब गति पकड़ी तो इसका मूल कारण यह रहा कि विकास के मामले में उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में पर्वतीय जिलों की घोर उपेक्षा होती थी। उत्तराखण्ड को अलग राज्य का दर्जा देने के लिए हमारे आंदोलनकारियों ने अलग राज्य स्थापित करने की मांग में जो अमूल्य सहयोग और अपने जीवन की आहुति दी शायद उसे कोई भी सरकार भूल जाए लेकिन उत्तराखण्ड स्थापित होना उन आंदोलनकारियों का मूल-प्रमाणपत्र है। लेकिन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु और चिन्ता पलायन ही थी। पहाड़ और पलायन पर मर्सिया पढ़ने के शुरुआती दिनों में पलायन के जोरदार और तार्किक पोस्टमार्टम किए गए। पलायन की यह परम्परा कमोबेस आज भी जारी है। इस परम्परा पर प्रकाश डालने से पहले यह बताना उचित होगा कि उत्तराखण्ड की आबादी का जो पलायन महानगरों की ओर हुआ उसमें गांवों की भूमिका 90 प्रतिशत से भी अधिक रही। यानि शत-प्रतिशत पलायित कृषि, पशुपालन एवं संबंधित अवलम्बनों के आधीन थे।

उत्तराखण्ड की खूबसूरत वादियों में जहां मैदानी क्षेत के सैलानी पाकृतिक सौंदर्य का लुफ्त उठाने के लिए आते हैं वहीं गरीबी व सुविधाओं के अभाव से तस्त इन पहाड़ों के लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन के कारण उत्तराखण्ड के दो जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में जनसंख्या बढ़ने की दर नकारात्मक हो गई है। योजना आयोग ने इस पलायन को खतरनाक और लोगों का अंसतोष करार दिया है। पहाड़ दूर से बहुत सुन्दर लगते हैं। करीब जाइए तो उनकी हकीकत समझ में आती है। अपनी आंखों के सैलानीपन से बाहर आकर आप देखेंगे तो पाएंगे कि पहाड़ की जिन्दगी कितने तरह के इम्तिहान लेती है। यह बदकिस्मती नहीं, विकास की बदनीयती है कि इन दिनों पहाड़ के संकट और बढ़ गए हैं। पहाड़ आज की तारीख में बेदखली, विस्थापन और सन्नाटे का नाम है। सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। अपने विकास और खूबसूरत दुनिया को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंग लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सबकुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयां करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखण्ड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं। पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नहीं है। वर्तमान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ रहा है।

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गई। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। इन बेरोजगार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों के उत्पाद के साथ कुछ मात्रा में हाईस्कूल फेल पास ग्रामीणों की जमात भी अभी तक महानगरों की ओर भाग रही है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोडा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। जब भी चुनाव नजदीक आते हैं राजनीतिक दल लाखों की नौकरियों की बात करते हैं। यह सच है कि देश-दुनिया में आज के समय में रोजगार पाना किसी चुनौती से कम नहीं है।

जब 9 नवम्बर, 2000 को उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुआ तो उस वर्ष केवल दो महीने के भीतर उत्तराखण्ड में 2,70,114 बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए थे। बदले में 37 युवाओं को रोजगार मिल पाया था। उसके अगले वर्ष 3,13,185 बेरोजगारों की तुलना में 836 को रोजगार मिला था। बात रोजगार की हो रही है तो वर्ष 2005 रोजगार के हिसाब से बेरोजागरों के लिए सबसे धनी वर्ष रहा। इस वर्ष 3,80,217 रजिस्टर्ड बेरोजगारों की तुलना में 6,094 बेरोजगारों को रोजगार मिला। वर्ष 2007 में 3,856 युवाओं को रोजगार मिला। वर्ष 2006 में 3,169 और वर्ष 2002 में 2,930 बेरोजगारों के रोजगार के सपने पूरे हुए। सच्चाई यह भी है कि बेरोजगारी के मुद्दे पर ईमानदार कोशिश हुई ही नहीं। हुक्मरान तो सिर्फ ‘सत्ता’ के खेल में उलझे रहे। जिन पर राज्य के भविष्य की जिम्मेदारी रही वे सिर्फ अपनी तरक्की के फेर में व्यस्त रहे।

देवभूमि में सरकार कोई भी रही हो हर सरकार में बेरोजगारों के नाम पर सिर्फ छल हुआ। चुनाव के समय हर दल ने वायदे किए, लेकिन जब वायदों को पूरा करने की बारी आई, तो किनारा कर गए। साफ है कि राज्य में बड़ी संख्या में ऐसे युवा बेरोजगार घूम रहे हैं, जिन्हें छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश है। हालात बेहद चिंताजनक हैं। आज बेरोजगारी चरम पर है। पढ़े-लिखे युवा बेरोजगार भटक रहे हैं। महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। लोग नियमित आमदनी में घर नहीं चला पा रहे हैं। बिजली, पानी, सड़क हर व्यक्ति की मूलभूत जरूरत है। लेकिन, कोई इस समस्या पर ध्यान नहीं देता। सच्चाई यह है कि पहले आपदा, फिर नोटबंदी और अब जीएसटी लागू होने के बाद बेरोजगारी का आंकड़ा और तेजी से बढ़ रहा है। राज्य में बढ़ती बेरोजगारी किसी गम्भीर चुनौती से कम नहीं, यह सरकार लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति है। यदि देवभूमि में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर सख्त कदम नहीं उठाए गए तो इसके दूरगामी परिणाम राज्य के भविष्य के लिए घातक भी हो सकते हैं।

1 COMMENT

  1. आशीष रावत जी, प्रस्तुत निबंध द्वारा आपके विचारों से अवगत मैं गंभीर सोच में पड़ गया हूँ| आप लिखते है तो अवश्य ही देवभूमि के लिए चुनौती बनता बेरोजगार युवा की अपेक्षा पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी की भांति आप नियोजित अथवा व्यावसायिक धंधे में लगे हुए होंगे| विडंबना तो यह है कि सफलता के शिखर पहुँच आप जैसे नौजवान केवल प्रश्न ही पूछा करते हैं| केवल प्रश्न, जैसे कि प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत “क्यों पनपते हैं बाबाओं के डेरे?” अथवा, कल तक के राजनीतिक वातावरण में एक अन्य प्रश्न पूछा जाए, “लगभग सत्तर वर्ष कांग्रेस-राज में हम इतने अनैतिक व भ्रष्ट क्यों हो गए?” आपको इन प्रश्नों का उत्तर कहीं नहीं मिलेगा क्योंकि अधिकांश भारतीय केवल प्रश्न पूछने में लगे हुए हैं! हाँ, देवभूमि के लिए चुनौती बनता बेरोजगार युवा” उस कांग्रेस-राज की उत्पत्ति है जिसने रोटी-रोज़ी के नाम पर बाबाओं के ढेरों को पनपने की भूमिका निभाई है|

    सभ्य और प्रगतिशील विकसित देशों में कोई प्रश्न के मन में आने पर वहां नागरिक संगठित हो प्रश्न के विषय अथवा समस्या का समाधान ढूंढ़ने और प्रायः उसे पा लेने में लगे रहते हैं| भारत में केवल प्रश्न पूछने वाला निडर बुद्धिजीवी अथवा सम्मानित माना जाता है| संभवतः इन प्रश्न पूछते निडर लोगों ने श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा २०१४ में दिल्ली-स्थित लाल किले की प्राचीर से एक अरब पच्चीस करोड़ भारतीयों को सम्बोधित करते उन्हें एक संग मिल प्रगति की और एक कदम बढ़ने को नहीं सुना था|

    आशीष रावत जी, आप से अनुरोध है कि फिर कभी लिखें तो देवभूमि के लिए चुनौती बनता बेरोजगार युवा के लिए कुछ ऐसे अच्छे सुझाव ले कर आये जो उनका व उन जैसे अन्य अभागों का मार्गदर्शन कर सकें| जब कोई एक हाथ में समस्या और दूसरे हाथ में उस समस्या का समाधान ले कर आता है मैं उसे पुरुषार्थ करते उस व्यक्ति का सम्मान करता हूँ| निठल्ले तो बहुतेरे हैं|

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here