समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता का प्रतीक

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uniform civil codeबी.आर.कौंडल
विविधता में एकता का समावेश इस बात का प्रतीक है कि हम विभिन्न धर्म, भाषा व संस्कृति के बावजूद एकता के सूत्र में बंधे है | संविधान रचेताओं ने विभिन्न राष्ट्रों के संविधान का अध्ययन करने के उपरांत भारत के संविधान की रचना की थी तथा जो-जो प्रावधान उन्हें अपने राष्ट्र के अनुकूल लगे, उन्हें संविधान में डाला गया | कुछ ऐसे प्रावधान डाले गये जो संविधान लागू होते ही अमल में आ गये परन्तु कुछ ऐसे भी प्रावधान थे जो धीरे-धीरे राष्ट्रहित में लागू होने थे | समान नागरिक संहिता ऐसे ही कुछ प्रावधानों में से एक है जिसे भविष्य में लागू करने हेतु छोड़ा गया जो आज तक भी लागू नही हो पायी |

भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ परन्तु 64 साल के बाद भी अभी समान नागरिक संहिता के लागू होने का इंतजार है | इस बात पर मत अलग-अलग हो सकते हैं कि समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए या नही परन्तु इस बात पर कोई मतभेद नही कि इसे लागू करने की राजनितिक इच्छा शक्ति की हमारे देश में कमी रही है | शायद धार्मिक कट्टरवाद इस के लिए जिम्मेवार हो परन्तु यदि सरकार चाहे तो क्या नही हो सकता |

एक समान नागरिक संहिता लागू न होने की वजह से विभिन्न समुदायों में अलग-अलग किस्म की असमानताएं उभर कर आ रही है | कोई समुदाय सरकार की एक प्रणाली को लागू करता है तो कोई उनका विरोध करता है जिससे एक समान विकास भी प्रभावित हो रहा है | उदाहरण के तौर पर राष्ट्रीय जनसंख्या नीति हिन्दुओं पर तो लागू है लेकिन मुसलमानों पर नहीं | परिणामस्वरूप 1991 से 2001 के बीच मुस्लिम आबादी वृद्धि दर 29% थी तथा 2001 से 2011 के बीच यह दर 24% थी जो कि राष्ट्रीय वृद्धि दर 18% से 6% अधिक रही | जबकि हिन्दुओं की आबादी वृद्धि दर 2001 से 2011 के बीच 16% रही | स्वभाविक है कि मुस्लमानो की संख्या हिंदु जनसंख्या के मुकाबले 8% ज्यादा तेजी से बढ़ रही है जो कि आने वाले समय में असंतुलन पैदा कर देगी | दूसरी तरफ पारसी समुदाय की जनसंख्या तेजी से घटती जा रही है जो कि चिंता का विषय है | यह सब तभी संभव हो रहा है क्योंकि देश में समान नागरिक संहिता लागू नही है | एक और असमानता देखने को तब मिली जब झारखंड में जनजाति की महिलाओं की परिवार नियोजन के अंतर्गत नसबंदी की गयी जबकि जनजाति के लोगों पर जनसंख्या नीति लागू नही होती | स्पष्ट है अधिकारियों ने अपने टारगेट पूरे करने के लिए उन गरीब महिलाओं को शिकार बनाया |

अत: सरकार को चाहिए संविधान की धारा 44 के अंतर्गत समान नागरिक संहिता के प्रावधान को लागू किया जाए जिस के लिए वर्तमान मोदी सरकार सक्षम है | इस सम्बंध में भारत के उच्चतम न्यायलय ने 1985 में जार्डन बनाम एस.एस केस में कहा है कि अब समय आ गया है कि शादी सम्बंधी कानून को बदला जाये तथा समान नागरिक संहिता को लागू किया जाए | न्यायालय ने आगे कहा था कि इस ओर अभी तक कोई प्रयास नही किया गया है | साल 1985 में उच्चतम न्यायालय ने मुहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो केस में यह फैसला सुनाया था कि सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के अंतर्गत मुस्लिम पति अपनी पत्नी को गुज़ारा भत्ता देने के लिए बाध्य है | न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान की धारा 44 एक “डैड लैटर” के तरह पड़ी है तथा तथा राजनितिक गलियारों में इस ओर कोई गतिविधि नजर नही आती है | कोर्ट ने यह भी माना की समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता में सहायक होगा |

समान नागरिक संहिता लागू न होने की वजह से साल 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने मधुकिश्वार बनाम बिहार राज्य केस में यह निर्णय दिया था कि यदि कोई हिंदु पति अपना धर्म बदल कर मुस्लिम धर्म अपना लेता है व उसके बाद पहली पत्नी के होते दूसरी शादी कर लेता है तो उसके खिलाफ आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत कार्यवाही नही की जा सकती क्योंकि मुस्लिम कानून के अंतर्गत दूसरी शादी करना गुनाह नही है | साल 1995 में मुद्गल बनाम भारत सरकार केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि संविधान की धारा 44 धर्म व निजी कानून की पृथकता पर आधारित है | न्यायालय ने आगे कहा कि सभ्य समाज निजी कानून व धर्म में कोई सम्बंध नही मानता | संविधान की धारा 25 जहाँ धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देती है वहीँ धारा 44 धर्म को निजी कानून व समाजिक सम्बन्धों से अलग करती है | हालाँकि बाद में न्यायलय ने लिलिथोमस बनाम भारत सरकार केस में स्पष्ट किया कि मुद्गल बनाम भारत सरकार केस के फैसले में विधानपालिका को समान नागरिक संहिता लागू करने का आदेश कोर्ट ने नही दिया था |

इसमें कोई शक नही की भारत दुनिया का सबसे अधिक विविधता वाला देश है – बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और बहुनस्लीय | हमारे पास दुनिया के सारे बड़े धर्म है, 22 अधिकारिक भाषाएँ और 780 बोलियाँ है | इसी कारण विविधता में एकता बनाये रखने के लिए संविधान में धारा 44 का प्रावधान किया था हालाँकि इस मुद्दे पर संविधान गठित करने हेतु विधानसभा में कई मुस्लिम नेताओं ने विरोध किया था जिन्हें यह आशंका थी कि इसके तहत उनके निजी कानूनों व धर्म में छेड़छाड़ होगी | बाद में यह सहमति बनी कि राष्ट्र की एकता के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए परन्तु विधानपालिका इस को तब तक लागू नही करेगी जब तक लोग इस पर अपनी सहमति नही देते |

भारतवर्ष में धर्माधता का जहर हर समुदाय में बढ़ रहा है | सांप्रदायिकता ऐसा रक्तबीज है, जो सिर्फ अपने लहू से नही, बल्कि दूसरे के खून से भी पनपता है | अत: इसे रोकना होगा | बाबासाहिब भीमराव अंबेडकर ने कहा है कि “संविधान सिर्फ वकीलों की दस्तावेजों की पोथी नही, यह इंसानी जिन्दगी का संवाहक है, और इस की आत्मा हमेशा अपने युग के अनुरूप होती है” | अत: अब वह युग आ चुका है जब संविधान की धारा 44 में निहित समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए लागू किया जाए | तभी हमारा संविधान इंसानी जिन्दगी का संवाहक बन पायेगा व आज के युग के अनुरूप इस की आत्मा बन पायेगी |

हाल में बराक ओबामा राष्ट्रपति अमेरिका ने जाती बार भारत को नसीहत दी है कि यदि भारत धर्म के नाम पर नही बंटेगा तो ही आगे बढ़ पायेगा |

 

1 COMMENT

  1. The beauty of India lies in its diversified culture. We have distinct languages, religions, castes and creed. Despite these diversities there is a thread that run through the length and breadth of the country and unite it as a single nation which exemplify the concept of the “unity in diversity”. It has existed from quite long and is a matter of surprise to world all over and makes India an attractive place and renders mysticism to it. The Uniform Civil code might look desirable to resolve the issues of hatred and religion intolerance but there are practical difficulties to bring different faiths and persuasions on same pedestal. Even the Courts have found it difficult to bridge the gap between personal laws and achieving a uniform civil code. The uniform civil code should be brought with caution and in conformity with the social and economic conditions prevalent in the country. Also a regard to be given to the practices prevalent among the ethnic tribes which are declared endangered tribes and requires a constant protection for their survival. The law must take care of all faiths and culture by allowing them to flourish without suffocating them with rigidity.

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