संघ यात्रा : एक विहंगम दृष्टि

के. एन. गोविन्दाचार्य

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज परिवर्तन के क्षेत्र में पिछली सदी में एक महत्वपूर्ण एवं अभिनव प्रयोग है। जहां महात्मा गांधी ने देश की आजादी के लिए राजा और रंक, अमीर और गरीब सभी को आंदोलित एवं संगठित कर देश के कोने-कोने से अंग्रेजों को भगाकर आजाद होने की ललक जगा दी।

वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूजनीय डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने गांधी जी के समान ही आजादी के लिए लड़ाकों का एक अनोखा संगठन तैयार किया। साथ ही उनमें आजादी के बाद की समाज-संरचना और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए राष्ट्रवाद पर आधारित नये-नये प्रयोग करने का संस्कार भी डाला।

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में समाज के अन्य सक्रिय लोगों को साथ लेकर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का जो प्रयास कर रहे हैं उसके बीज संघ के प्रारंभ के 15 वर्षों में ही पड़ गये थे। इस बात को दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा लिखित पुस्तक ‘संकेत रेखा’ में पढ़कर जाना जा सकता है।

देश की आजादी के बाद जब संघ चलाने वाले शीर्षस्थ कार्यकर्ताओं में यह चर्चा होने लगी कि आजादी हासिल करने के उद्देश्य से संगठन की रचना हुई थी और अब चूंकि आजादी मिल गई है तो संघ के कार्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए? इस चर्चा का सूत्रपात गुरुजी के पश्चात बने सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने 30 दिसम्बर 1947 को नागपुर से प्रकाशित एक अखबार में अपने लेख ‘संघ कार्य के अगले कदम’ लिखकर की थी।

इस लेख के माध्यम से उन्होंने यह विचार व्यक्त किया था कि आजादी के बाद संघ के स्वयंसेवक समाज के लोगों को साथ लेकर आवश्यकतानुसार नये-नये संगठन खडे क़रते हुए राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के काम में भी लगें। उस लेख के आधार पर संघ में चर्चा होती और कोई कार्ययोजना तैयार होती, उससे पहले ही यानी लेख के एक महीने बाद 30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या हो गयी।

तत्कालीन सत्ताधीशों ने इस दुखद घड़ी का राजनैतिक शोषण किया और 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। परिणामस्वरूप उस लेख की विषय-वस्तु पर चर्चा नहीं हो पाई। मगर लेख की भावना के अनुरूप उस प्रतिबंध काल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के रूप में स्वयंसेवकों ने रचनात्मक और आन्दोलनात्मक गतिविधियां शुरू भी कीं।

मगर व्यवस्थित रूप से यह प्रयास आकार लेता और पूरे भारत में यह चीज दोहराई जाती उससे पहले ही 12 जुलाई 1949 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। यह संयोग ही है कि प्रतिबंध हटने के तीन दिन पूर्व ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को रजिस्ट्रेशन नम्बर मिल गया था।

प्रतिबंध हटने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ढांचे को दुरुस्त करना सबकी प्राथमिकता थी। गांधी हत्या को राजनैतिक औजार के रूप में सत्ताधीशों ने इस्तेमाल किया था और इस कारण संघ के कार्य के विस्तार में कठिनाई हो रही थी। स्वयंसेवकों को हर जगह सफाई देनी पड़ रही थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गांधीजी की हत्या में कोई हाथ नहीं था। लेकिन प्रतिबंध की अग्निपरीक्षा से संघ और तप कर निकला और कार्य विस्तार की कठिन चढ़ाई शुरू हुई।

इसी दौरान संघ के आगामी स्वरूप के बारे में बहस खड़ी हुई जिसमें तीन धाराएं थीं-

(1) संघ को अब रचनात्मक कार्यों में जुट जाना चाहिए। शिक्षा और सेवा पर जोर देना चाहिए।

(2) संघ पर गांधीजी की हत्या के अन्यायपूर्ण आरोप के विरोध में कोई भी राजनैतिक दल सामने नहीं आया था। इस अनुभूति से दुखी कार्यकर्ताओं ने यह विचार प्रकट किया कि संघ को एक राजनैतिक दल के रूप में सामने आना चाहिए।

(3) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दैनिक शाखा पर ही जोर देगा। पहले एवं दूसरे विकल्पों में नहीं ढलेगा।

साल-डेढ़ साल की बहस के बाद यह निर्णय हुआ की संघ तीसरा रास्ता अपनाएगा। इसी बीच देश के राजनीतिक वातावरण में जो हलचल चल रही थी, उसमें हिंदुत्वनिष्ठ राजनीतिक दल समय की आवश्यकता थी। उसको पूरा करने के लिए स्वर्गीय डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संघ के तत्कालीन सर संघचालक परम पूजनीय गुरुजी से इस विषय में सलाह की।

गुरुजी ने उनके प्रयास को बल प्रदान करते हुए उनकी मदद के लिए कुछ कार्यकर्ताओं को उनके साथ लगाया। परिणामस्वरूप अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीति से अलिप्त रहते हुए संघ शाखा के माध्यम से व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए संकल्पबद्ध था। उस समय की राजनीतिक स्थिति को देखा जाए तो भारतीय जनसंघ ही एक ऐसा राजनैतिक दल था जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखता था। बाकी अन्य दल तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर निंदक एवं विरोधी थे। इसलिए संगठन के निर्णय या निर्देश से नहीं बल्कि तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के कारण संघ के सामान्य स्वयंसेवको का रूझान जनसंघ की ओर रहा।

1952, 1957, 1962, 1967 और 1971 तक के विधानसभा व लोकसभा चुनावों में गुरुजी ने इस बात पर पूरा जोर दिया कि संघ का दायित्व लिए हुए लोग किसी भी दल के चुनाव प्रचार में सक्रिय भूमिका न निभाएं। शाम को लगने वाली शाखा, जिनमें स्कूल और कालेज के विद्यार्थी ही उपस्थित होते थे, को निर्देशित किया जाता रहा कि वे एकाग्र होकर शाखा वृद्धि की ओर ही ध्यान दें। चुनाव प्रचार से अलग रहें।

इसी काल खंड में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अतिरिक्त सरस्वती शिशु मंदिर, मजदूर संघ, हिन्दुस्तान समाचार प्रकाशन संस्था, विश्व हिन्दू परिषद आदि संस्थाएं आकार लेती गईं। इस संपूर्ण काल खंड में 1967 तक जनसंघ के साथ गुरुजी का दीनदयाल उपाध्याय के माध्यम से संवाद चलता रहा।

गुरुजी वर्ष में दो बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय से विचारधारा, कार्यपद्धति और आचरण के संदर्भ में अपनी जानकारियां तथा अनुभव अवश्य बांटते थे। साथ ही राष्ट्रीय स्थिति, राजनैतिक स्थिति और अन्य दलों से संवाद आदि महत्वपूर्ण पहलुओं पर भी विचार-विमर्श करते थे।

भारतीय जनसंघ का 1951 से 1966 तक का समय वैकल्पिक विचारधारा व एकात्म मानववाद को निरूपित एवं प्रस्तुत करने में बीता। कार्यकर्ताओं के सामान्य आचरण को आदर्शवाद का पुट मिले, इस पर भी कुछ ध्यान दिया गया। मगर जिस प्रकार विद्यार्थी परिषद एवं मजदूर संघ अपने-अपने कार्य क्षेत्र के स्वभाव, वैशिष्टय और विकार की पहचान करते हुए वैज्ञानिक कार्यशैली विकसित करने में लगे थे, वहीं किन्हीं कारणों से राजनैतिक क्षेत्र में भारतीय जनसंघ में उपयुक्त वैज्ञानिक कार्यशैली का विकास नहीं हो सका।

फलत: वैचारिक, सांगठनिक, राजनैतिक और चुनावी पहलुओं के बीच संतुलन बिगड़ता गया। केवल चुनावी पहलू ही मानस पर हावी होता गया। इसका नतीजा यह निकला कि गुरुजी की प्रेरणा से पंडित दीनदयाल द्वारा प्रतिपादित दस्तावेज ‘एकात्म मानववाद’ को पार्टी के अन्दर ही पर्याप्त महत्व नहीं मिल सका। उसे पार्टी की नीतियों के अधिष्ठान के नाते स्थापित नहीं किया जा सका। पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा रचित पुस्तक ‘भारतीय अर्थनीति- विकास की दिशा’ की संगठन में विस्तृत चर्चा नहीं की गयी। पार्टी ने इस किताब को दुबारा छपवाने की भी जरूरत नहीं महसूस की।

इसी बीच 1967 के चुनावों में गैर-कांग्रेसवाद को अप्रत्याशित सफलता मिली और बेमेल गठबंधन की सरकारें अस्तित्व में आ गईं। आया राम गया राम की प्रवृत्ति, सिद्धांतहीनता, अवसरवाद एवं सत्ता प्रेरित गठबंधन जैसी बातें राजनीति की मुख्यधारा बन गईं।

इन सब बातों पर गहराई से विचार हो, आदर्शवाद के संरक्षण हेतु संघ और जनसंघ के संबंधों को वैज्ञानिक आधार मिले, इस दिशा में शीर्ष नेतृत्व बढ़ने ही वाला था कि 11 फरवरी 1968 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या हो गई। उनका शव मुगलसराय स्टेशन पर पाया गया।

संघ के लोगों ने तो अपनी विचारधारा के संप्रेषण हेतु और नये संपर्क बढ़ाने हेतु जनसंघ की रचना में सहयोग दिया था। संघ और जनसंघ के बीच संवाद गुरुजी एवं दीनदयाल के माध्यम से ही होता था। पंडित दीनदयाल की मृत्यु के बाद जनसंघ की कार्यपद्धति को वैज्ञानिक स्वरूप देने का कार्य कठिन हो गया। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य में उत्तरोत्तर प्रगति हो रही थी।

असम, बंगाल, बिहार, केरल, राजस्थान, दिल्ली सरीखे प्रांतों में तेजी से काम का विस्तार हुआ। मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद भी तेजी से बढ़ चले थे। एक राजनीतिक संगठन होने के कारण जनसंघ को संघ के शीर्ष नेतृत्व से सतत् मार्गदर्शन की विशेष आवश्यकता थी। लेकिन अपने तमाम अनुषांगिक संगठनों को आगे बढ़ाने में संघ इतना व्यस्त रहा कि वह जनसंघ की आवश्यकताओं पर चाह कर भी विशेष ध्यान नहीं दे पा रहा था।

पंडित दीनदयाल की जनसंघ में भूमिका माला में धागे जैसी थी। उनके जाने के पश्चात माला के मणि बिखरने लगे। एक टीम की बजाय टीम में कई ध्रुव बन गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी कार्य वृद्धि में व्यस्त होने के कारण जनसंघ की समस्याओं के प्रति उदासीन रहने लगा।

इसी दौरान गुरुजी कैंसर की बीमारी से ग्रस्त हुए और उनका आपरेशन भी हुआ। स्वाभाविक था कि मार्गदर्शक के निष्क्रिय हो जाने के कारण जनसंघ दिशा भ्रम, अव्यवस्था और अनुशासनहीनता का भी शिकार हुआ।

संघ को अपनी कार्यवृद्धि के साथ-साथ इस बात का भी ख्याल रखना था कि विद्यार्थी परिषद, मजदूर संघ आदि संगठन अपनी विचारधारा से भटक न जाएं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए गुरुजी विभिन्न अनुषांगिक संगठनों के सामने कुछ खास सुझाव रखना चाहते थे। इन सुझावों से सबको परिचित कराने के लिए देश भर से संघ के और संघ की विचारधारा से संबंध रखने वाले विभिन्न अनुषांगिक संगठनों के प्रमुख कार्यकर्ताओं को मुंबई में 1972 में पांच दिनों की अखिल भारतीय बैठक में आमंत्रित किया गया।

इस बैठक में गुरुजी की भूमिका परिवार के उस मुखिया की तरह थी जो मानो बहुत दिनों की तीर्थ यात्रा पर जा रहा हो और लौटकर न आने वाला हो, परिवार के सदस्यों को उनके लायक महत्वपूर्ण हिदायत और नसीहत देकर जाना चाहता हो। उस बैठक में वातावरण भी इसी प्रकार का था।

हर संगठन की रिपोर्टिंग, उस पर चर्चा और गुरुजी द्वारा संक्षिप्त अभिव्यक्ति, यही उस बैठक का स्वरूप था। उसमें शामिल कार्यकर्ताओं ने जो संदेश ग्रहण किया, वो इस प्रकार था :

(1) संघ का जोर अभियानों पर कम रहे। दैनंदिन संपर्क कार्यकर्ताओं के स्वभाव का हिस्सा बने।

(2) दैनिक शाखा और उसमें संस्कार हेतु गट पद्धति और गण पद्धति का कोई विकल्प नहीं है।

(3) स्वयंसेवक एक घंटे की शाखा के अलावा शेष तेईस घंटे के जीवन में समाज के प्रति जागरुक, प्रगतिशील और सक्रिय भूमिका निभाते हुए जीएं।

(4) बैठक में विद्यार्थी परिषद के आंदोलन के उस स्वरूप की गुरुजी ने आलोचना की जिसमें कुलपतियों की कुर्सी पर छात्र नेताओं द्वारा कब्जा किया जाता हो या उनका पुतला दहन किया जाता हो। गुरुजी ने रचनाधर्मिता पर जोर दिया।

(5) गुरुजी ने विश्व हिन्दू परिषद को हिदायत दी कि वह घर वापसी और परावर्तन के प्रयासों को एकमात्र प्रमुख एजेंडा मानकर न चले। उनका कहना था कि परावर्तन के लिए लोभ और भय का सहारा न लेते हुए सहज स्नेह, संपर्क, सहानुभूति और सेवा को अपने कार्य का आधार बनाया जाए।

बैठक में गुरुजी ने स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी और भारतीय मजदूर संघ की खुलकर प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि यदि एक कार्यकर्ता एक क्षेत्र में ध्येयवाद और आदर्शवाद का संरक्षण और संपोषण करते हुए अपने कार्य क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्यशैली के आधार पर आगे बढ़े तो वह कार्य किस प्रकार यशस्वी हो सकता है, इसका उदाहरण दत्तोपंत ठेंगड़ी और भारतीय मजदूर संघ में देखा जा सकता है।

गुरुजी ने श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी को संघ का Thoughr Giver भी बताया। इसी प्रकार भारतीय जनसंघ पर भी चर्चा हुई। गुरुजी ने जनसंघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं को निम्न निर्देश दिए:

(1) हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है, यह तर्क का नहीं, केवल बुद्धि का नहीं, बल्कि अखण्ड श्रद्धा का विषय है। इसके बारे में किसी भी प्रकार का संशय कार्यकर्ताओं के मन में नहीं होना चाहिए। अपने-अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार इस संदर्भ में भाषा व शैली में कुछ भिन्नता हो सकती है। मगर अविभाज्य श्रद्धा के विषय से हम अगर हटे तो हमारी स्थिति इतो भ्रष्ट: ततो भ्रष्ट: की हो जायेगी।

(2) जनसंघ की संगठनात्मक स्थिति के बारे में उन्होंने कहा, ”एक ही तो व्यक्ति था जो असमय ही चला गया। उससे बहुत कुछ होना था।” उनका संकेत पंडित दीनदयाल उपाध्याय की तरफ था। उन्होंने आगे कहा था, ”शेष तो कंगूरे के कलश हैं। फिर भी अगर सब साथ चलें तो उस व्यक्ति के अभाव की एक सीमा तक क्षतिपूर्ति हो सकती है।”

(3) बोगस वोटिंग और अनैतिक तरीकों से चुनाव जीतने की जल्दबाजी के तहत गलत तरीको को अपनाने की आदतों के बारे में गुरुजी का कहना था कि सत्ताधीश कांग्रेस के लोग तो नये-नये अनैतिक तरीके गढ़ते जायेंगे और यदि जनसंघ के लोग उन्हीं तरीको का अनुकरण करेंगे तो वे नम्बर 2 की ही स्थिति में ठहरेंगे। इसलिए गुरुजी का उस बैठक में आग्रह था कि जनसंघ के लोग प्रतिद्वंद्वी को अपने अखाड़े में लाकर पछाड़ना सीखें।

इन हिदायतों पर सारे संगठन कितना चले या नहीं चले, यह एक स्वतंत्र आकलन का विषय है। 5 जून, 1973 के दिन गुरुजी ने शरीर छोड़ दिया। उन्होने एक-दो मास पूर्व ही तीन पत्र लिख छोडे थे जिसमें से एक में उन्होंने अपने बाद बालासाहब देवरस को सरसंघचालक का दायित्व देने की घोषणा की थी।

बालासाहब देवरस ने सरसंघचालक का दायित्व गुरुजी की मृत्यु के एक माह बाद नागपुर में आयोजित प्रमुख कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में ग्रहण किया।

पहली ही बैठक में बालासाहब देवरस ने आगे की कार्यपद्धति के बारे में निम्न महत्वपूर्ण घोषणाएं कीं :

(1) चूंकि डा. हेडगेवार और गुरुजी विलक्षण व्यक्ति थे, इसलिए संबोधन में उनके नाम के आगे परम पूजनीय शब्द लगाना शोभा देता है। किंतु बालासाहब देवरस को केवल माननीय ही कहना पर्याप्त होगा। यह संबोधन भी सभी समय आवश्यक नहीं है।

(2) संगठन के कार्यक्रम में पहले दो सरसंघचालको के चित्र चाहे तो लगाएं। तीसरे, चौथे और पांचवें आदि के चित्र नहीं लगाए जाने चाहिए।

(3) अभी तक संघ की कार्यपद्धति की मूल बातो में ‘एक चालकानुवर्तित्व’ को एक महत्वपूर्ण सूत्र माना जाता था। आगे से इस शब्द का संघ शिक्षा वर्गों में तथा भाषणों में उपयोग न किया जाए। आगे टीम कार्यपद्धति ही संघ में आरूढ़ रहेगी।

उन्होंने संघ के कार्य में समाज के वंचित वर्गों की समस्याओं के बारे में अत्यंत संवेदनशील रुख अपनाया। उन्होने कहा कि अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है।

1974 के बिहार आंदोलन के दौरान जब वे पटना प्रवास पर थे तो उन्होने उस समय बढ़ रही नक्सली गतिविधियों के बारे में पत्रकारों से बातचीत करते हुए टिप्पणी की, ”नक्सलवाद को केवल कानून व्यवस्था की दृष्टि से देखने से समाधान नहीं होगा, बल्कि नक्सलवाद तो सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर गैरबराबरी, विपन्न्ता और संवेदनहीनता का परिणाम है।”

कार्यकर्ताओं से बात करते हुए उन्होंने कहा कि बिहार आंदोलन से व्यवस्था परिवर्तन उपजना दूर की बात है। इससे अधिक से अधिक सामाजिक आत्मविश्वास और सामाजिक दण्ड शक्ति को एक स्वरूप दिया जा सकता है।

आपातकाल के अंत में जब 19 जनवरी 1977 को चुनाव कराने की घोषणा हुई तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने विवेकानंद केन्द्र के संस्थापक एकनाथ रानाडे के माध्यम से यरवदा जेल में बालासाहब देवरस के पास एक संदेश भेजा। संदेश में कहा गया था कि यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चुनाव से अपने को अलग कर ले तो चुनाव समाप्त होने के बाद संघ पर से प्रतिबंध उठा लिया जायेगा।

बालासाहब देवरस ने स्वर्गीय मोरोपंत पिंगले के द्वारा संदेश भिजवाया कि वे संकट में साथियो को मझधार में नहीं छोड़ेंगे। उनके साथ चुनाव में भागीदारी करेंगे। चुनाव पश्चात उत्पन्न स्थितियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिबंध के सवाल पर विचार किया जायेगा।

उन्होने 80 के दशक के प्रारंभ में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में अकेले पूरे संगठन पर हावी होते हुए आरक्षण के पक्ष में प्रस्ताव पारित कराया। उन्होंने प्रतिनिधियों से कहा कि आरक्षण के औचित्य का निर्णय करते समय अपने आप को आरक्षण मांग रहे लोगों की सामाजिक, आर्थिक अवस्था में डालकर संवेदनशीलता के साथ विचार करने की जरूरत है।

उन्होंने यह भी कहा कि जो केवल जाति के आधार पर आरक्षण की बात करते हैं वे जातिवाद से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। लेकिन जो केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते हैं, वे अपने देश के सदियों के दुखद सामाजिक इतिहास को अनदेखा करते हैं।

इसी प्रकार 1964 में गुरुजी ने संघ के प्रात: स्मरण में महात्मा गांधी का नाम शामिल कराया था।

80 के इस दशक से हिन्दू वोट बैंक की चर्चा चल पड़ी। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ। कांग्रेस द्वारा अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद की दो नावों पर सवारी करने का खेल भी शुरू हुआ। बाद में रामजन्म भूमि आंदोलन का आरंभ व मंडल कमीशन का उभरना इसी राजनीति की सूचना देता है।

इसके अलावा राजनीति के इस स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाली कई और घटनाएं भी घटीं। जैसे केन्द्र में 1977 के समान 1989 में सत्ता परिर्वतन होना और फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का बिखरकर खत्म हो जाना, स्वर्गीय श्री राजीव गांधी की तमिलनाडु में स्ज्ज्म् द्वारा हत्या कर दिया जाना, उदारवाद और वैश्वीकरण की लहर का उठना।

स्वर्गीय नरसिंहाराव द्वारा नई आर्थिक नीति को बढ़ावा देना, छ: दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे का ध्वस्त होना, 1993 के पांच विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का हारना, 1994 के सितंबर महीने में भारत द्वारा विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता स्वीकार किया जाना तथा 1996 और 1998 में भाजपा (राजग) की सरकार का केन्द्र में सत्तारूढ़ होना।

बालासाहब ने अपने जीवन काल में ही रज्जू भईया को सरसंघचालक घोषित कर दिया जो सन 1993 से सन 2000 तक कार्यरत रहे। उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए रज्जू भईया ने सुदर्शन जी को स्वयं यह दायित्व सौंपकर सरसंघचालक घोषित किया। संघ कार्यपद्धति की यह अनोखी मिसाल है।

इन्हीं दो दशको में राजनैतिक क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी और धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद का फैलाव और प्रभाव भी बढ़ा। 1990 से 2000 तक विश्व हिन्दू परिषद का कद सबसे ऊंचा था। 2000 के बाद भाजपा के प्रमुख लोगों पर संघ का प्रभाव कुछ कम होता दिखा। संघ विचार के समर्थको की नजर में भाजपा सरकार का प्रभाव बढ़ता दिखा।

संघ के विचार को आगे बढ़ाने की बजाए भाजपा के ऊपर राजनैतिक क्षेत्र में सत्ता स्वार्थ सन 1996 से विशेष रूप से हावी होने लगा। फलत: संगठन के मूल उद्देश्य मानस पटल से ओझल होने लगे। गुटबाजी, निजी अहंकार और स्वार्थपरता जैसी बीमारियां भी बढ़ती गईं। परिणाम स्वरूप ‘आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’ जैसी स्थिति बन गई।

इस पृष्ठभूमि में संघ के समक्ष जो तमाम चुनौतियां उपस्थित हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि विचारधारा, आचरण और कार्यपद्धति के स्तर पर राजनैतिक तंत्र को मूल्यों और मुद्दों की पटरी पर कैसे वापस लाया जाए?

संघ के द्वारा अनेक संगठन स्थापित करने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि सामान्य जन से संपर्क और हिन्दुत्व के विचार का संप्रेषण समाज के सभी क्षेत्रों में ये संगठन करेंगे। राजनैतिक क्षेत्र के लोग संघ के समर्थक वर्ग का सहयोग लेने में तो रुचि रखते हैं, लेकिन हिन्दुत्व का विचार और उसके अनुरूप नीतियों पर चलना उन्हें असंगत, अप्रासंगिक और बोझ लगने लगा है।

उनकी दृष्टि में विचारधारा, साधन शुचिता और जीवन शुचिता की तुलना में सत्ता प्राप्ति और सत्ता को बचाए रखना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। फलत: राजनैतिक क्षेत्र में उत्तरोत्तर ध्येयवाद व आदर्शवाद का क्षरण होता गया। सत्ताकांक्षा, सत्तासुख और सत्तामोह अधिक हावी होता गया।

आज हिन्दू समाज को त्रस्त कर रहे संकटो और चुनौतियों का सामना करने के साथ-साथ संघ और संघ विचार के संगठनों के समक्ष आंतरिक चुनौतियां भी जोर मार रही हैं। इसका समाधान खोजा जाना शेष है। इतिहास के अनुभव के साथ उपरोक्त यक्ष प्रश्न अब उत्तर चाहते हैं।

6 COMMENTS

  1. संध्या जी नमस्कार , संघ तो सबको साथ लेकर चलता है/ फिर वो किसी भी मत,समुदाय के मानने वाला क्यों न हो./ संघ में होने वाले सामूहिक भोज,खेल, इत्यादि में भाग लेने वालो से नातो उनकी जाति
    पूछी जाति है और नहीं ही उनकी उपासना पद्द्ति के बारे में /

  2. संघ विरोधियों को आह्वान है की इस लेख को पढने के बाद संघ के बारे में कुछ कहें. बिना जाने-समझे आलोचना तो ना समझी का काम है और अपने आपको नासमझ कौन सिद्ध करना चाहेगा ?. समझने का बाद आशा है की विरोध नहीं करना चाहेंगे. …. उत्तम लेख हेतु साधुवाद.

  3. कुछ लोग संघ की कटु आलोचनाएँ करते नहीं थकते हैं मेरा उनसे सिर्फ इतना अनुरोध है की वे संघ द्वारा चलाये जा रहे विद्यालयों में पढने वाले बच्चों का आचरण देख ले और तथाकथित पब्लिक विद्यालयों में पढने वाले बच्चों का अपने आप समझ में आ जाएगा की देश-प्रेम की शिक्षा कौन दे रहा है और देश द्रोह की कौन.कोई मुझे कितना भी भला बुरा कहे लेकिन जो धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा भारत में देखने को मिल रही है मैं इसे राष्ट्र-द्रोह की भावना ही मानता हूँ. और यह इस देश को पूरी तरह नेस्तानबूत करके ही रहेगी.

  4. vibhor जी सही कह रहे हैं।
    ७० के दशक में बाबुराव पटेल के मदर इंडिया में. पढा हुआ है, कि १४ अगस्त १९४७ के, पाकीस्तान के “डॉन”वृत्तपत्र के, संपादकीय अग्रलेख में लिखा था, कि संघ यदि १९२५ के बदले १९३५ में जन्मता तो पाकीस्तान को दूगुना क्षेत्र मिला होता। और १९१५ में ही संघ जन्मा होता, तो पाकीस्तान बन ही ना पाता। अनजाने में संघ की इतनी प्रशंसा किसी से नहीं सुनी-लिखी-पढी।
    वन्दे मातरम्‌॥

  5. आज हमारे देश के बारे में अगर कोई सोचता है तो वो है “राष्टीय स्वयं सेवक संघ” और संघ से जुड़े लोग अगर हमारे देश में संघ न होता हो सकता है की देश के हालत और भी ख़राब हो सकते थे? लेकिन शुक्र है डॉक्टर हेडगेवार जी का जो की आपने सही वक़्त पे संघ को खरा कर के इस देश को बचने में महतवपूर्ण योगदान किया
    डॉक्टर साहब को मेरा ह्रदय से प्रणाम है जय हिंद वन्दे मातरम

  6. निश्चेये राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ एक बड़ा संगठन हे.जिसने देश में कई शिक्षण संसथान खोले .जिन्होंने अपने देश से प्रेम करना सिखाया .और यह सीकाया की भारत का हर वासी भारतीय हे.परन्तु अपनी कथनी और करनी में भेदभाव किया .कितना अच्छा होता अगर वह समाज के हर वर्ग को अपने साथ लेकर आगे बड़ता तो निश्चय ही भारत में एक अदभुत संघटन होता और भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा न लांग गया होता .अभी भी हमें उसकी सहायता चाहिए .जरूरत हे इस बात की वह इस समय अपने आपको भारत की अख णदाता को बनाये एसेसंस्थान के रूप में सामने आये तो हमारे देश को कोई भी हानिनहीं पहुंचा सकता हे. जयहिन्द.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here