सतपुड़ा की अनूठी खेती पद्धति है उतेरा

बाबा मायाराम

इन दिनों खेती-किसानी का संकट गहरा रहा है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि किसान अपनी जान दे रहे हैं। पिछले 16 सालों में ढाई लाख आत्महत्या कर चुके हैं। होशंगाबाद जिले में भी आत्महत्या होने लगी हैं। अब सवाल है कि क्या आज की भारी पूंजी वाली आधुनिक खेती का कोई विकल्प है। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में परंपरागत खेती में इस विकल्प के कुछ सूत्र दिखाई देते हैं, जो मैंने हाल ही उन किसानों से जाने जिन्हें आदिवासी किसान सालों से करते आ रहे हैं। सतपुड़ा घाटी के दतला पहाड़ की तलहटी में बसा है धड़ाव गांव। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अपूर्व है। हाल ही मेरा यहां खेती-किसानी के अध्ययन के सिलसिले में जाना हुआ। तब चना की फसल कट रही थी। यहां का किसान गनपत अपने हंसिया से चने काट रहा था। खेत में मचान बना था जहां से वह सुआ और चिडि़या भगाता है। जंगली सुअरों व सांभर से फसल की रखवाली करता है।

होशंगाबाद जिला भौगोलिक रूप से दो भागों में बंटा है। एक है सतपुड़ा की जंगल पट्टी दूसरा है नर्मदा का कछार। धड़ाव जंगल पट्टी का गांव है और दूधी नदी के किनारे स्थित है। यह नदी जिले की सीमा निर्धारित करती है। जंगल पट्टी में प्रायः सूखी और असिंचित खेती होती है। जबकि नर्मदा के कछार में तवा की नहरें हैं। कछार की जमीन काफी उपजाऊ मानी जाती है लेकिन अब यह लाजवाब जमीन भी जवाब देने लगी है। सतपुड़ा की जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की पद्धति प्रचलित है जिसे उतेरा कहा जाता है। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस अनूठी पद्धति में ज्चार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। एक साथ सभी बीजों को मिला कर खेत में बोया जाता है और बक्खर चलाकर पेंटा लगा देते हैं। फसलें जून (आषाढ़) में बोई जाती हैं लेकिन अलग-अलग समय में काटी जाती हैं। पहले उड़द, फिर धान, ज्वार और अंत में तुअर कटती है। कुटकी जल्द पक जाती है। 60 की उम्र पार कर चुके गनपत बताते हैं कि इसमें किसी प्रकार की लागत नहीं है। खुद की मेहनत, बैलों का श्रम और बारिश की मदद से हमारी फसल पक जाती है। हर साल हम अगली फसल के लिए बीज बचाकर रखते हैं और उन्हें खेतों में बो देते हैं। हमारे पास बैल हैं जिनसे हम खेतों की जुताई करते हैं। मवेशियों से हमें गोबर खाद मिलती है जिससे हमारे खेतों की मिट्टी उपजाऊ बनती है।

उतेरा से पूरा भोजन मिल जाता है। दाल, चावल, रोटी और तेल सब कुछ। इसमें दलहन, तिलहन और मोटे अनाज सब शामिल हैं। इन सबसे साल भर की भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है। मवेशियों के लिए चारा और मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए जैव खाद मिल जाती है। यानी उतेरा से इंसानों के लिए अनाज, मवेशियों के लिए फसलों के ठंडल, भूसा और चारा, मिट्टी के लिए जैव खाद और फसलों के लिए जैविक कीटनाशक प्राप्त होते हैं। गणपत द्वारा किए जा रहे खेती पद्धति को गांव के किसान भी अपना रहे हैं। रामख्याली ठाकुर तो इस खेती को रासायनिक खेती से भी अच्छा मानते हैं। क्योंकि इसमें लागत बिल्कुल नगण्य है। रासायनिक खाद और उर्वरक भी नहीं के बराबर लगते हैं। रासायनिक खाद के बारे में चन्द्रभान का विचार है कि इससे मछन्द्री (धरती) को भूंज (जला) रहे हैं। यानी मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु को खत्म कर रहे हैं। जिला गजेटियर के अनुसार पहले इस इलाके में मिलवां फसलें होती थी। जिसमें मिट्टी में उपजाऊपन बनाए रखने के लिए फल्लीवाले अनाज बोए जाते थे। अलग-अलग अनुपात में मिलवां फसलें बोई जाती थी। गेहूं और चना मिलाकर बिर्रा बोते थे। तिवड़ा और चना मिलाकर बोते थे। कपास, तुअर, तिल, कोदो और ज्वार मिलवां बोते थे। किसान यह भलीभांति जानते थे फल्लीदार फसलें मिट्टी को उर्वर बनाती हैं और उत्पादन बढ़ाने में मददगार होती हैं।

वास्तव में कई फसलें एक साथ बोने से पोशक तत्त्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियोंवाली फसलें बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों केा भारी नुकसान होता है। हाल ही में यहां सोयाबीन की फसल खराब होने से 3 किसानों ने आत्महत्या की है। मिश्रित और मिलवां फसलें एक जांचा परखा तरीका है। इसमें फसलें एक दूसरे को फायदा पहुंचाती हैं। कुछ साल पहले हर घर में बाड़ी होती है जिसमें उतेरा की ही तरह मिलवां फसलें हुआ करती थीं। बाड़ी में घरों के पीछे कई तरह की हरी सब्जियां और मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेमी (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोशण के स्रोत होते थे। इसमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न ही खाद। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है। कुल मिलाकर, जंगल में रहनेवाले लोगों की जीविका उतेरा खेती और जंगल पर निर्भर होती है। खेत और जंगल से उन्हें काफी अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, जो पोशण के लिए निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। ये सभी चीजें उन्हें अपने परिवेश और आसपास से मिल जाती हैं। जैसे बेर, जामुन, अचार, आंवला, महुआ, मकोई, सीताफल, आम, शहद और कई तरह के फल-फूल, जंगली कंद, और पत्ता भाजी सहज ही उपलब्ध हो जाते है। यह सब पोषण और भोजन का प्रमुख स्त्रोत हैं। यानी खेती एक जीवन पद्धति है जिसमें जैव विविधता का संरक्षण भी होता है। मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण होता है। यानी हमारे देश के अलग-अलग भागों में परिस्थति, आबोहवा और मौसम के अनुकूल परंपरागत खेती की कई पद्धतियां प्रचलित हैं। कहीं सतगजरा (7 अनाज), कहीं नवदान्या (9 अनाज) तो कहीं बारहनाजा (12) की खेती पद्धतियां हैं। इनकी कई खूबियां हैं। इससे कीटों की रोकथाम होती है। मिट्टी का उपजाऊपन बना रहता है। खाद्य सुरक्षा होती है। यह सघन खेती की तरह है, जिसमें भूमि का अधिकतम उपयोग होता है। चूंकि अलग-अलग समय में फसलें पकती हैं, इसलिए परिवार के सदस्य ही कटाई कर लेते हैं। इस कारण न तो अतिरिक्त महंगे श्रम की जरूरत पड़ती है और न ही हारवेस्टर की। जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा है। यानी यह परंपरागत खेती खाद्य सुरक्षा, मिट्टी के संरक्षण, पशुपालन में मददगार, जैवविविधता व पर्यावरण का संरक्षण सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यह खेती की सर्वोत्तम विधि है जिसका कोई विकल्प अब तक नहीं है। (चरखा)

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