‘सृष्टि सृजक‘ महर्षि कश्यप का पौराणिक स्वरूप

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राजेश कश्यप

हमारे लगभग सभी पौराणिक ग्रन्थों में सृष्टि की रचना का बखूबी उल्लेख मिलता है। पौराणिक ग्रन्थ ‘सुख सागर’ में श्री शुकदेव मुनि जी पाण्डव वंशज एवं प्रतापी राजा परीक्षित को सृष्टि की रचना के बारे में विस्तार से बताते हैं। इस पौराणिक ग्रन्थ के अनुसार, श्री शुकदेव मुनि परीक्षित से कहते हैं:

“हे परीक्षित! अब मैं आपके ज्ञानवर्धन के लिये आपको इस सृष्टि के उत्पत्ति के विषय में बताता हूँ। सृष्टि के आरम्भ में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष शैया पर विराजमान योग निद्रा में लीन थे। सृष्टिकाल आने पर काल शक्ति ने उन भगवान नारायण को जगाया। उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय होकर उस अपार जल को प्रकाशमान करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा जी को भगवान नारायण सम्पूर्ण जगत की रचना करने की आज्ञा दी।

ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा जी ने यह विचार करके कि मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम ‘का’ और ‘या’ (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। स्वयम्भुव मनु और शतरूपा से दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद और तीन कन्यायें आकूति, देवहूति एवं प्रसूति की उत्पत्ति हुई। मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति और देवहूति का विवाह कर्दम जी के साथ कर दिया। इन्हीं तीन कन्याओं से सारे जगत की रचना हुई।’’

आगे चलकर ब्रहा्रा जी के मन से उत्पन्न हुए मरीचि ऋषि, जिन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है, का विवाह देवी कला से हुआ। देवी कला कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थी। उनकी कोख से महातेजस्वी बालक कश्यप का जन्म हुआ।

श्रीमद्भागवत के छठे अध्याय के अनुसार ब्रहा्रा जी के अंगूठे से पैदा हुए दक्ष प्रजापति ने ब्रहा्रा जी के कहने पर अपनी पत्नी के गर्भ से 60 कन्याएं पैदा कीं। उन्होंने इन 60 कन्याओं मंे से 10 कन्याओं का विवाह धर्म के साथ, 13 कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप के साथ, 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ, दो कन्याओं का विवाह भूत के साथ, दो कन्याओं का विवाह अंगीरा के साथ, दो कन्याओं का विवाह कश्यप के साथ और शेष चार कन्याओं का विवाह भी तार्क्ष्यधारी कश्यप के साथ ही कर दिया। इस प्रकार महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनि आदि पत्नियां बनीं। मुख्यतः इन्ही से ही सृष्टि का सृजन हुआ और जिसके परिणामस्वरूप महर्षि कश्यप जी ‘सृष्टि के सृजक’ कहलाए।

महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से बारह आदित्य पैदा किए, जिनमें सर्वव्यापक देवाधिदेव नारायण का वामन अवतार भी शामिल था। श्री विष्णु पुराण के अनुसार:

मन्वन्तरेऽत्र सम्प्राप्ते तथा वैवस्वतेद्विज।

वामनः कश्यपाद्विष्णुरदित्यां सम्बभुव ह।।

त्रिमि क्रमैरिमाँल्लोकान्जित्वा येन महात्मना।

पुन्दराय त्रैलोक्यं दत्रं निहत्कण्टकम्।।

(अर्थात-वैवस्वत मन्वन्तर के प्राप्त होने पर भगवान् विष्णु कश्यप जी द्वारा अदिति के गर्भ से वामन रूप में प्रकट हुए। उन महात्मा वामन जी ने अपनी तीन डगों से सम्पूर्ण लोकों को जीतकर यह निष्कण्टक त्रिलोकी इन्द्र को दे दी।)

पौराणिक सन्दर्भो के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तर में तुषित नामक बारह श्रेष्ठगणों ने बारह आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया, जोकि इस प्रकार थे -विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरूण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। महर्षि कश्यप के पुत्र विवस्वान् से मनु का जन्म हुआ। महाराज मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करूष और पृषध्र नामक दस श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई।

महर्षि कश्यप ने दिति के गर्भ से परम् दुर्जय हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री पैदा की। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जोकि मरून्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र निःसंतान रहे। देवराज इन्द्र ने इन्हें अपने समान ही देवता बना लिया। जबकि हिरण्याकश्यप को चार पुत्रों अनुहल्लाद, हल्लाद, परम भक्त प्रहल्लाद, संहल्लाद आदि की प्राप्ति हुई।

महर्षि कश्यप को उनकी पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरूण, अनुतापन, धुम्रकेश, विरूपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान् पुत्रों की प्राप्ति हुई। रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गन्धर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी की कोख से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं। कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने साँप, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए। ताम्रा ने बाज, गीद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।

महर्षि कश्यप ने रानी विनता के गर्भ से गरूड़ (भगवान विष्णु का वाहन) और वरूण (सूर्य का सारथि) पैदा किए। कद्रू की कोख से अनेक नागों का जन्म हुआ। रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतिंगों) का जन्म हुआ। ब्रहा्रा जी की आज्ञा से प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नाम के साठ हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ जोकि कालान्तर में निवातकवच के नाम से विख्यात हुए।

महर्षि कश्यप पिंघले हुए सोने के समान तेजवान थे। उनकी जटाएं अग्नि-ज्वालाएं जैसी थीं। महर्षि कश्यप ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ माने जाते थे। सुर-असुरों के मूल पुरूष मुनिराज कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे पर-ब्रह्म परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। मुनिराज कश्यप नीतिप्रिय थे और वे स्वयं भी धर्म-नीति के अनुसार चलते थे और दूसरों को भी इसी नीति का पालन करने का उपदेश देते थे। उन्होने अधर्म का पक्ष कभी नहीं लिया, चाहे इसमें उनके पुत्र ही क्यों न शामिल हों। महर्षि कश्यप राग-द्वेष रहित, परोपकारी, चरित्रवान और प्रजापालक थे। वे निर्भिक एवं निर्लोभी थे। कश्यप मुनि निरन्तर धर्मोपदेश करते थे, जिनके कारण उन्हें ‘महर्षि’ जैसी श्रेष्ठतम उपाधि हासिल हुई। समस्त देव, दानव एवं मानव उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करते थे। उन्ही की कृपा से ही राजा नरवाहनदत्त चक्रवर्ती राजा की श्रेष्ठ पदवी प्राप्त कर सका।

महर्षि कश्यप अपने श्रेष्ठ गुणों, प्रताप एवं तप के बल पर श्रेष्ठतम महाविभूतियों में गिने जाते थे। महर्षि कश्यप सप्तऋषियों में प्रमुख माने गए। सप्तऋषियों की पुष्टि श्री विष्णु पुराण में इस प्रकार होती है:-

वसिष्ठः काश्यपोऽयात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः।

विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन्।।

(अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं, वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।)

 

महर्षि कश्यप ने समाज को एक नई दिशा देने के लिए ‘स्मृति-ग्रन्थ’ जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की। इसके अलावा महर्षि कश्यप ने ‘कश्यप-संहिता’ की रचना करके तीनों लोकों में अमरता हासिल की। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार ‘कस्पियन सागर’ एवं भारत के शीर्ष प्रदेश कश्मीर का नामकरण भी महर्षि कश्यप जी के नाम पर ही हुआ। महर्षि कश्यप द्वारा संपूर्ण सृष्टि की सृजना में दिए गए महायोगदान की यशोगाथा हमारे वेदों, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों एवं अन्य अनेक धार्मिक साहित्यों में भरी पड़ी है, जिसके कारण उन्हें ‘सृष्टि के सृजक’ उपाधि से विभूषित किया जाता है। ऐसे महातेजस्वी, महाप्रतापी, महाविभूति, महायोगी, सप्तऋषियों में प्रमुख व सृष्टि सृजक महर्षि कश्यप जी को कोटि-कोटि वन्दन एवं नमन!!

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