मैं जीना चाहती हूं

भारतीय समाज व्यवस्था स्त्री प्रधान कर दीजिएफिर देखिए पुरुष भी सुरक्षित और स्त्रियां भी – बलात्कार की बढ़ती घट्नाओं का एक ही समाधान  

ये वो शब्द है जो उन्नाव पीडिता ने अंतिम समय में कहें। इन शब्दों में छुपी पीड़ा को समझना, एक पुरुष प्रधान समाज के लिए संभव नहीं है। पुरुष प्रधान समाज में जहां चारों और दरिंदें, वहशी और मानसिक विकॄति के व्यक्ति व्याप्त हों, उस समाज में स्त्री की स्थिति दिन प्रतिदिन दयनीय होती जा रही हैं। आज उसके लिए ना घर सुरक्षित हैं और ना बाहर।  पुरुष की विकृत मानसिकता का सामना उसे सड़क पर चलते समय, बसों, ट्रेनों, चौराहों पर, सुनसान स्थानों पर करना पड़ता हैं उसी पुरुष के द्वारा बनाई गई न्याय व्यवस्था से उसे न्याय की गुहार लगानी पड़ती हैं। पीडि़त करने वाला भी पुरुष है और न्याय के लिए प्रतिक्षा कराने वाला भी पुरुष ही है। आज हम अपने आसपास देखें तो  पायेंगे कि महिलाओं के साथ होने वाले दुराचारों का प्रतिशत सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ही जा रहा है।

पुंगु और असहाय हो चले इस समाज की प्रधानता जिन हाथों में हैं वो ही अपराधी हों तो न्याय तो हो ही नहीं सकता। इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज में रेप और बलात्कार के मामलों में या तो पीडि़ता पर तेजाब या पेट्रोल डालकर उसे मार दिया जाता है, यदि वो किसी तरह बच भी जाती है तो समाज उसे स्वीकार नहीं करता। महिलाओं के साथ बढ़ते अत्याचारों के अपराधी कहां से आते हैं, वो इसी शालीन, चरित्रवान, नैतिकता और मर्यादा का ढ़ोंग करने वाले समाज में कभी धर्म, कभी आडंबर और कभी शराफत का आनावरण लिए हुए है। भारत वर्ष की हर गली, हर चौराहें और हर मोड़ पर, हर पल किसी न किसी स्त्री के साथ गलत हो रहा हैं, जब कुछ मामले हाईलाईट हो जाते हैं तो यह पुरुष प्रधान समाज हाथों में मोमबत्तियां लेकर सड़कों पर निकल पड़ता है, आत्मा की शांति की प्रार्थना करने के लिए, पर क्या आपको लगता है कि किसी रेप पीडि़ता की आत्मा को शांति कुछ मोमबत्तियां जलाने से मिल सकती है, कुछ दिन मामला खबरों, और न्यूज की रेटिंग बढ़ता हैं, नेता, राजनेता अपनी राजनैतिक रोटियां सेकतें है और पीड़िता के माता-पिता न्याय की गलियों में अपनी बेटी के लिए न्याय की गुहार लगाते लगाते एक दिन मर जाते हैं। अगर इसे न्याय कहा जाता है तो अन्याय क्या है?

बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था,

हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा “

किसी शायर ने ये लाईन किसी व्यवस्था के लिए ही लिखी थी, आज ये लाईने भारतीय पुरुष प्रधान समाज की वास्तविक व्याख्या करती है। हमारी समाजिक, पारिवारिक और न्यायिक व्यवस्था को घुण लग चुका है, इस व्यवस्था को संभालना पुरुष प्रथान समाज के लिए संभव नहीं हो पा रहा हैं, एक बार फिर से इस समाजिक व्यवस्था को स्त्री प्रधान कर दिजिए, फिर देखिए इस व्यवस्था में स्त्री और पुरुष दोनों कितने सुरक्षित रहते हैं, स्त्री जब तक ही असहाय है जब तक वह  न्याय और सुरक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर हैं, समाज की व्यवस्था यदि स्त्रियों को सौंप दी जाए तो निश्चित रुप वह अपनी और पुरुष दोनों को बेहतर सुरक्षा देने का कार्य कर सकती है।

बैंगलूर कांड हो, उन्नाव कांड हो या फिर निर्भया कांड़ या फिर वो लाखों कांड जो लोक-लाज, समाज, परिवार और अन्य कारणों से सामने न आ पायें। जहां की जेलों में भी संत पाये जाते हैं उन सभी कांडों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। रोज जाने कितनी निर्भया अपनी मर्यादा को खोने के बाद, हर पल मर रही हैं, कभी समाज की चुभती निगाहें उनकी हत्या कर रही हैं, कभी न्याय के नाम पर किए जाने वाले कोर्ट में किये जाने वाले सवाल, कभी चतुर, चालाक अपराधी ही उस पर झूठे आरोप लगा कर उसके सम्मान, उसकी मर्यादा को तार तार कर उसकी हत्या कर रहा होता है। बलात्कार और अनैतिक रिश्तों की शिकार महिला यदि इस सब के बाद अपनी जान गंवा देती है तो उसे उसके लिए सुखद मौत कहा जा सकता हैं, आप कुछ भी कहें परन्तु यह सच्चाई है कि दुराचार का शिकार होने के बाद कोई स्त्री जीना नहीं चाहती, क्योंकि जिस पुरुष प्रधान समाज ने उसे इस स्थिति में पहुंचाया होता है, वही कभी उसके साथ संवेदना व्यक्त करता है और मौका मिलने पर, मौके का फायदा उठाने से चुकना नहीं चाहता है।

महिलाओं के साथ होते घिनौने दुराचार को आज के सभ्य समाज के लिए कलंक कहा जाए तो गलत नहीं होगा, महिलाओं को आनंद और मनोरंजन का साधन मानने वाले अधिकतर दुराचार करने के बाद आनंद का जीवन जीते है और शिकार महिला नरक से बदत्तर जीवन काट रही होती है। जन्म से लेकर मरण तक जिन स्त्रियों पर अपने हर छॊटे बड़े काम के लिए पुरूष निर्भर करता है, कभी मां , कभी बहन और कभी बीवी से सेवायें लेता है बदलें में वो महिलाओं को उपहार के रुप में दुराचार, बलात्कार देता है, कभी शादी का झांसा देकर स्त्री की मर्यादा भंग करता है, कभी प्रेम जैसे पवित्र रिश्ते की आड़ में अपनी वासना को पूरा करता है। शिकार करने पर ना भेड़िया उस स्थान पर रुकता है ना शिकारी और ना अपराधी, वह जल्द ही अपना मुंहखोटा बदलकर किसी ओर जगह अपनी मनमानी कर रहा होता है।

जिस समाज की स्थिति इतनी भयावह हो वहां महिलाएं कैसे सुरक्षित रह सकती है। अंधों के शहर में आईना बेचना और बहरों से अपनी पीड़ा की गुहार लगाने जैसा हो गया है आज के समाज में अपने लिए एक मर्यादित जीवन की मांग करना। कुछ पुरुष आज भी दोहरी मानसिकता और दोहरा व्यक्तित्व का जीवन जी रहे हैं, एक ओर महिलाओं के सम्मान का प्रवचन देते हैं वहीं दूसरी ओर चरण सेवा, मित्रता की आड़ में वहीं करते है जो एक बलात्कारी किसी अनजान महिला के किसी सुनसान स्थान पर मौका मिलने पर करता है। दोनों के कार्य निंदनीय हैं, जिनके अपराध सामने नहीं आते, उन्हें अधिक शातिर अपराधी मानना चाहिए, क्योंकि वो न जाने कितनी ओर महिलाओं को निर्भया की स्थिति में पहुंचायेंगे कहा नहीं जा सकता। आज उन्नाव केस की पीड़िता के ये आखिर शब्द नहीं, ये आखिरी शब्द सभी महिलाओं के लिए है, जो इस समाज में स्वाभिमान, सम्मान और मर्यादा के साथ जीना चाहती हैं, जो चीख कर कहती है कि हां हम जीना चाहती हैं क्या आप हमें जीने देंगे। 

रेखा कल्पदेव

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