देश में असुरक्षित स्त्री

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प्रमोद भार्गव

कठुआ, उन्नाव, सूरत और राजस्थान में मासूम बलिकाओं और महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्मो  के बाद पनपे जनाक्रोश के बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने पाॅक्सो एक्ट में बदलाव का बड़ा फैसला लिया है। अब बारह साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म  करने वालों को फांसी की सजा का भी प्रावधान करने वाले अध्यादेश  को मंजूरी दे दी है। पाॅक्सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेनफ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस ऐक्ट में संसोधन कर नई त्वरित न्यायालय बनाई जाएंगी और सभी थानों तथा अस्पतालों  को  विशेष विंद की स्वीकृति से यह आध्यादेश जारी होने के बाद आईपीसी, साक्ष्य कानून, सीआरपीसी और पाॅक्सो एक्ट में परिवर्तन हो जाएगा। अगले लोकसभा सत्र में सरकार इस बाबत संसद में विधेयक पारित कराने के बाद संशोधित प्रावधान स्थाई कानून का रूप ले लेंगे।
2012 में दिल्ली में हुए निर्भया सामूहिक दुष्कर्म कांड के बाद भी बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में दोषियों  के विरुद्ध सजा के कठोर प्रावधान किए गए थे, लेकिन उसके बाद भी देश में जिस तरह से दुष्कर्म की घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे यह जरूरी हो गया था कि सजा को और कठोर बनाया जाए। वैसे भी मासूम बच्चियों के साथ जिस तरह से दुष्कर्म की घिनौनी घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे साफ है कि ऐसे बलात्कारियों और हत्यारों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। इस समय पूरे देश  कहीं न कहीं से दुष्कर्म की रोंगटे खड़े कर देने वाली खबरें आ रही हैं। कठुआ में आठ साल की मासूम बच्ची के साथ कई दिनों तक सामूहिक दुष्कर्म होता है और फिर उसकी हत्या कर दी जाती है। राजस्थान में एक नाबालिग के साथ तीन लड़के एक बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म करने के साथ वीडियो बनाते है और उसे सोशल मीडिया पर भी डाल देने की बेशर्मी  दिखाते है। इस बच्ची के शरीर ओडिशा  में भी एक 4 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म किया गया। उन्नाव में पेश आई जिस दुष्कर्म की घटना में विधायक को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, उसमें तो विधायक के इशारे  दुष्कर्म से पीड़ित बच्ची के पिता पर झूठा मुकदमा  लगाकर उसे गिरफ्तार कर इतनी पिटाई लगाई गई की उसकी मौत हो गई। इसी तरह कठुआ मामले में पुलिस को शामिल पाया गया है। देश  में ऐसा पहली बार हुआ है कि बलात्कार के आरोपियों के बचाव में कुछ मंत्री और वकील भी उतर आए। सबकुल मिलाकर बलात्कारी तत्व इतने बेलगाम हो गए है कि उन्हें दुष्कर्म  जैसे जघन्य अपराध को अंजाम देने का तो कोई भय रह ही नहीं गया है, इसके उलट वे दुष्कर्म के साक्ष्य के रूप में बनाए विडियो को भी स्वयं सोशल साइट पर डालने की हिमाकत दिखाने लगे हैं। इन हरकतों से देश  और समाज की छवि भले ही खराब हो रही हो, लेकिन शायद दुष्कर्म  को नहीं लगता कि वे कोई विकृत गैरकानूनी काम को अंजाम दे रहे है। इसलिए सजा के कठोर प्रावधान कानून में किए जाने के बाद सरकार को यह भी विचार करने की जरूरत है कि आखिर लोगों की मानसिकता विकृत हो क्यों रही है ?
आध्यादेश  जरिए लाए गए नए कानून में महिलाओं से दुष्कर्म  के मामले में न्यूनतम सजा 7 साल से बढ़ाकर 10 साल होगी, जरूरी हुआ तो इसे उम्र कैद में भी बदला जा सकेगा। 16 साल से कम उम्र की लड़कियों से दुष्कर्म पर न्यूनतम सजा 10 साल से बढ़ाकर 20 साल की गई है। इसे मृत्युपर्यंत कैद तक बढ़ाया जा सकेगा। 16 साल से कम उम्र की बलिकाओं से सामूहिक दुष्कर्म पर आजीवन कारावास होगा। 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म पर न्यूनतम सजा 20 साल की कैद को बढ़ाकर अजीवन कारावास या मृत्युदंड तक दी जा सकेगी। हालांकि मध्यप्रदेश  की शिवराज सिंह चैहान सरकार ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी की सजा देने का प्रावधान पहले ही कर दिया था। सरकार ने दिसंबर 2017 में विधानसभा में दंड विधि विधेयक 2017 में संषोधन किया है। मध्यप्रदेश  की इस पहल का अनुकरण बाद में राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेष की राज्य सरकारों ने भी किया। दरअसल मध्यप्रदेश सा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा दुष्कर्म के मामले सामने आते हैं।
दरअसल निर्भया कांड के बाद यह उम्मीद की गई थी कि फास्ट ट्रेक अदालतों के सामने आने के बाद  दुष्कर्म  के मामलों का निपटार तेज गति से होगा। लेकिन त्वरित अदालतों की स्थिति संतोशजनक नहीं है। इनमें भी मामलों को अंजाम तक पहुंचाने में सात साल तक का लंबा समय लग रहा है। इन अदालतों में भी कानूनी जाटिलताओं के कारण मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। हालांकि खासतौर से दुष्कर्म और खुलेआम हत्या जैसे अपराधों के बाबत ही 2010 में दण्ड प्रक्रिया संहिता में बेहद जरूरी फेरबदल किए गए थे। इनमें बलात्कार पीड़ित स्त्री के बयान एकांत में लेने, फरियादी, आरोपी तथा गवाहों के बयानो की आॅंडियो-विडियो रिकाॅर्डिंग कराने,तत्काल पीड़िता की चिकित्सीय जांच कराने और 24 घंटे के अंदर प्राथमिकी दर्ज कराने के नए प्रवाधान जोड़े गए थे। ऐसे ही मामलों का निराकरण तीन महीने के भीतर फास्ट ट्रेक  अदालतों में होने के प्रावधान तय किये गए थे, लेकिन इन बाघ्यकारी शर्तों  का पालन न अदालतें कर रही हैं और न पुलिस। यही वजह है कि मामलों का अंबार लगता जा रहा है। कठुआ और उन्नाव में तो आरापियों को बचाने के लिए खुद पुलिस ही अपराधी बन गई। ऐसे पुलिस वालों को निलंबित कर उनके विरुद्ध विभागीय जांच बिठा देने से कोई कारगर नतीजे निकलने वाले नहीं हैं। इनकी तत्काल प्रभाव से सेवाएं समाप्त कर आपराधिक मामले चलाए जाने की जरूरत है।
आज भी हमारी कानूनी प्रक्रिया जटिल और लंबी है। हमारे ज्यादातर न्यायाधीष धार्मिक जड़ता और पुरुशवादी पुरातन मान्यताओं से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। इस सिलसिले में बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड से जुड़े अदालत के फैसले का अवलोकन करने से पता चलता है कि न्यायविदों की निगाह में स्त्री आज भी दोयम दर्जे की है। राजस्थान की भंवरी देवी देश  की ऐसी दुस्साहसी महिलाओं में से एक है, जिसने निरक्षर होते हुए भी बाल विवाह का विरोध किया था। जिसके दुष्परिणाम  उसे तमाम सामाजिक आपदाओं का दंश  झेलना पड़ा। उसे सबक सिखाने के नजरिये से उच्च जाति के पांच लोगों ने उसके साथ सामूहिक कुकृत्य किया। और जब 24 जनवरी 1994 को अदालत का फैसला आया, तो उसमें दोषियों  को दोश-मुक्त तो किया ही गया, फैसले में यह दलील भी अंकित की गई कि ‘एक उंची जाति का व्यक्ति, एक निम्न जाति की महिला के साथ बलात्कार करके खुद की सामाजिक प्रतिष्ठा  दांव पर लगाने की भूल नहीं कर सकता। क्योंकि यह हमारी धार्मिक परंपराओं के खिलाफ है।’ यह सोचनीय पहलू है कि स्त्री कोई जाति नहीं होती, वह सिर्फ मादा होती है। वंही  पुरुष  स्त्री से जाति पूछकर बलात्कार नहीं करते ? इसलिए अदालती फैसलों में ऐसी दलीलें, स्त्री-अस्मिता को दोयम दर्जे की मानने जैसी हैं।
वैसे तो बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान पहले से ही हैं। अब इसे 16 और 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म  होने पर आजीवन कारावास अथवा मृत्युदंड में बदल दिया गया है, लेकिन यह आशंका  अभी भी बनी हुई है कि जो ऊंची हैसियत के लोग हैं, उनके मामले अभी भी लटके रहेंगे। इन पेचेदगियों के चलते दण्ड प्रक्रिया संहिता में ‘बलात्कार की सजा मौत’ की इबारत लिख देने से भी कोई खौफ पैदा होगा, ऐसा तत्काल कहा नहीं जा सकता है। यह तब और संभव नहीं है, जब मंत्री और वकील आरोपियों को बचाने के लिए आगे आने लग जाएंगे। जबकि राजनैतिक नेतृत्व का दायित्व समाज को सुरुचिपूर्ण और उदार बनाने का है। किंतु अब समाज बनाने की भावना राजनीतिक दलों के अजेंडे से बाहर हो गई है। देश  को आधुनिक बनाए जाने की दृश्टि से युवाओं के हाथ में मोबाइल जैसे, जो उपकरण दिए जा रहे हैं, वे यौन-कुंठाओं को उकसाने का काम भी कर रहे हैं। इसलिए सरकार का दायित्व है कि समाज में दुष्कर्म  की घटनाओं पर वह वाकई अंकुष लगाना चाहती है तो पोर्न साइटों को पूरी तरह प्रतिबंधित करे। अन्यथा कानून भले ही कठोर बना दिए जाएं, बलात्कार पर अंकुश लगना मुश्किल  है।

 

 

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