अंधी सुरंग में मिश्र

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misrअरविंद जयतिलक

पिरामिडों का देश मिस्र एक बार फिर अराजकता की चपेट में है। काहिरा, इस्लामिया, दामेता और अलेक्जेंनिड्रया की सड़कें खून से लाल हैं। रबा-अल-अदाविया मस्जिद और नहदा चौक के प्रदर्शनकारियों को बुलडोजरों और बख्तरबंद वाहनों से कुचलने के बाद फौज ने देश में आपातकाल का लगा दिया है। बावजूद इसके अपदस्थ राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी के संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड का हौसला बुलंद है और वे उनकी बहाली की मांग पर अड़े हुए हैं। दूसरी ओर फौज मुर्सी समर्थकों की लाशे बिछाती जा रही है। बुद्धवार को हुए नरसंहार में 700 से अधिक लोग मारे गए हैं और तकरीबन 1000 लोग घायल हुए हैं। इसी तरह शुक्रवार को हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान भी 200 से अधिक लोगों के मरने की खबर है। मुस्लिम ब्रदरहुड की मानें तो इन दोनों नरसंहारों में अब तक 2500 से अधिक लोगों की जानें जा चुकी है। इस जंग में सीनियर मुस्लिम ब्रदरहुड लीडर मोहम्मद बडी के पुत्र को भी जान से हाथ धोना पड़ा है। मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए करारा झटका तब होगा जब सरकार उस पर प्रतिबंध लगाने के एलान को अमलीजामा पहनाएगी। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो मिश्र के हालात और बिगडेंगे। यहां मौंजू सवाल यह है कि इस खौफनाक हालात के लिए कौन जिम्मेदार है? फौज, मोहम्मद मुर्सी, उनका संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड, उदारवादी जमात या विदेशी शकितयां? इसका पड़ताल जरुरी है। सबसे पहले बात फौज की। फौज ने 3 जुलार्इ को राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी को अपदस्थ करने के बाद देश को यकीन दिलाया कि उसकी मंशा देश में हुकुमत करने की नहीं है। उसने लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था व्यक्त करते हुए तुरंत अंतरिम सरकार की गठन की। अलग बात है कि इस आड़ में उसका मूल मकसद अपने विशेषाधिकारों को सुरक्षित करना था। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर जिस अंतरिम सरकार का गठन की वह आज उसके हाथों की कठपुतली है। यह सही है कि उसने पिछले दिनों मुस्लिम ब्रदरहुड को कुछ मंत्री पद देने का पासा फेंका लेकिन उसका मकसद संगठन में दरार डालना था। बावजूद इसके मुस्लिम ब्रदरहुड के तेवर ढीले नहीं हैं और वह मुर्सी की बहाली की मांग पर अड़ा हुआ है। लेकिन सच्चार्इ यह है कि मिश्र के संगीन हालात के लिए जितना जिम्मेदार फौज है उतना ही अपदस्थ राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी और उनका संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड भी। 2011 में अरब बसंत की आंधी में होस्नी मुबारक की सत्ता उखड़ने के बाद मोहम्मद मुर्सी के हाथ मिश्र को संवारने और अमन-चैन लाने का बेहतरीन मौका था। लेकिन उन्होंने गंवा दिया। लोगों को उनका होस्नी स्टाइल रास नहीं आया। जनता ने उनपर आरोप लगाना शुरु कर दिया कि वे क्रांति के साथ विश्वासघात कर रहे हैं और कटटरपंथियों के आगे झुक रहे हैं। यह आरोप गलत भी नहीं था। जून, 2012 में संपन्न हुए चुनाव के दौरान उन्होंने मिश्र में लोकशाही की स्थापना, आतंकवाद का अंत और अर्थव्यवस्था में सुधार का वादे के साथ गरीबी, भूखमरी और महंगार्इ कम करने का भरोसा दिया था। लेकिन सत्ता संभालते ही उनकी प्राथमिकताएं बदल गयी। सत्रह गवर्नरों की नियुक्ति में आधा दर्जन से अधिक मुस्लिम ब्रदरहुड के कटटरपंथियों को जगह दी। इनमें से एक गवर्नर अब्देल अल खयात पर आतंकी गुट गामा इस्लामिया से संबंध का आरोप लगा। देश-दुनिया में संदेश गया कि मुर्सी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं हैं। मुर्सी पड़ोसी देशों से संबंध सुधारने में भी विफल रहे। उनका सीरिया से सभी तरह का राजनयिक संबंध तोड़ना साबित किया कि वे मुस्लिम ब्रदरहुड के हाथों में खेल रहे हैं। मुर्सी की नीति से नाराज होकर इथोपिया ने मिस्र-सूडान के साथ 1929 में हुए नील नदी पानी समझौते को रदद किया। होस्नी के हाथों तबाह हुर्इ अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना मुर्सी के समक्ष एक कड़ी चुनौती थी। लेकिन वे इससे निपटने में नाकाम रहे। उल्टे घातक शर्तों पर अंतर्राष्ट्रीय मदद के लिए हाथ फैलाए रहे। हद तो तब हो गयी जब उन्होंने आम जनता को दी जाने वाली सरकारी सहायता में भी कटौती शुरु कर दी। सेल्स टैक्स में इजाफा से जनता का आक्रोश बढ़ गया। लोगों का विष्वास होने लगा कि वे अमेरिका के इशारे पर नाच रहे हैं। अमेरिका को नापसंद करने वाले कटटरवादी संगठनों ने मुर्सी के खिलाफ माहौल बनाना शुरु कर दिया और मिश्र की जनता तहरीर चौक पर उतरने लगी। सेना प्रमुख अल फतह सीसी ने आग में घी का काम किया। देश-दुनिया के समक्ष कहते सुने गए कि र्इंधन और विधुत आपर्ति की कमी को लेकर वे कर्इ बार राष्ट्रपति मुर्सी से मिले, जनभावनाओं से अवगत कराया, लेकिन उन्हें सिर्फ फटकार मिली। जब उन्हें लगा कि लोग पूरी तरह मुर्सी के खिलाफ हैं तो फिर उन्हें सत्ता से चलता कर दिया। मुर्सी की अलोकप्रियता का एक कारण मुस्लिम ब्रदरहुड भी रहा। उदारवादी लोगों को कतर्इ पसंद नहीं था कि मुस्लिम ब्रदरहुड मुर्सी सरकार में हस्तक्षेप करे। लेकिन संगठन मुर्सी को अपने इशारे पर नचाने में कामयाब रहा। मुर्सी भी संगठन के आगे नतमस्तक होने में देर नहीं लगायी। नतीजतन जनता की नजर में वे खलनायक बन गए। लोगों की नजर में मुर्सी और होस्नी में कोर्इ फर्क नहीं रह गया। उदारवादी संगठनों को लगा कि मुर्सी को हटाकर लोकतंत्र की जडें मजबूत की जा सकती है। लेकिन यह प्रयोग नाकाम रहा। उदारवादियों की हड़बड़ाहट का नतीजा है कि आज मिश्र अराजकता की आग में झुलस रहा है। उचित होता कि उदारवादी जमात मुर्सी को कुछ दिन और सत्ता में बने रहने देते। शायद हालात संभल जाते। मिश्र के बदतर हालात के लिए वैश्विक शक्तियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वह मिश्र की आग को शांत करने के बजाए उसमें अपना हित तलाश रही हैं। समस्या का हल भी अपने हिसाब से चाह रहे हैं। चूंकि मिश्र अमेरिकी दबदबे वाला देश माना जाता है इसलिए अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण होनी चाहिए। लेकिन वह मिश्र के मौजूदा हालात पर अस्पष्ट रुख अपनाए हुए है। वह सेना की बर्बर कार्रवार्इ की निंदा तो कर रहा है लेकिन वह मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ नहीं है। समझना होगा कि मिश्र की अराजकता अमेरिका की दीर्घकालीन रणनीति का परिणाम है। यही वजह है कि मिश्र को लेकर उसकी रणनीति बराबर बदलती रहती है। याद रखना होगा कि जब होस्नी मुबारक के खिलाफ मिश्र की जनता सड़कों पर थी तब अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी किलंटन ने दावा किया था कि मुबारक सरकार स्थिर है। लेकिन जब होस्नी का सत्ता में टिके रहना मुषिकल हो गया तो अमेरिका को भी पलटते देर नहीं लगी। वह जनक्रांति के सुर में सुर मिलाने लगा और होस्नी मुबारक को जाना पड़ा। गौर करने वाली बात यह कि अमेरिका मुर्सी सरकार की नीति को लेकर भी खुश नहीं था। दरअसल वह नहीं चाहता है कि मिश्र में कोर्इ निर्वाचित और मजबूत सरकार उभरे। इससे उसकी रणनीति प्रभावति होती है। वह मिश्र में सेना समर्थित कठपुतली सरकार चाहता है जो उसके इशारे पर पूंछ हिलाती रहे। अब मिश्र में सेना की निरंकुशता तभी थमेगी जब अमेरिका की मर्जी होगी। अमेरिका की यह स्वार्थपूर्ण नीति कहीं मिश्र को पिरामिड युग में न ढकेल दे, यह चिंता नाहक नहीं है।

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