यूपीः 2019 की प्रयोगशाला बनेगा कैराना  ? 

प्रभुनाथ शुक्ल

उत्तर प्रदेश राजनीतिक लिहाज से देश का सबसे अहम राज्य है। दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी से हो कर गुजरता है। यह राज्य राजनीति और उसके नव प्रयोगवाद का केंद्र भी है। देश के सामने चुनावों और सत्ता से इधर  और भी समस्याएं हैं, लेकिन वह बहस का मसला नहीं हैं। सिर्फ बस सिर्फ 2019 की सत्ता मुख्य बिंदु में हैं। सत्ता की इस जंग में पूरा देश विचारधाराओं के दो फाट में बंट गया है। एक तरफ दक्षिण विचाराधारा की पोषक भारतीय जनता पार्टी और दूसरी तरफ वामपंथ और नरम हिंदुत्व है। कल तक आपस में बिखरी विचारधाराएं आज दक्षिण से लेकर उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक एक खड़ी हैं। इस रणनीति के पीछे मुख्य भूमिका  कांग्रेस की है। भारतीय रानीति में 2014 का लोकसभा चुनाव एक अहम पड़ाव साबित  हुआ। जिसमें मोदी का नेतृत्व एक मैजिक के रुप में उभरा। मोदी के मैजिकल पालटिक्स का हाल यह है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और उसकी कथित धर्मनिरपेक्षता हासिये पर है। वापपंथ का साम्राज्य ढ़ह गया है। जातिवाद के अस्तित्व पर टिकी सपा और बसपा बिखर चुकी है। राजनीति के इस महाभारत में मोदी अभिमन्यु की भूमिका में हैं जबकि सारा विपक्ष एक साथ उन्हें घेरने में लगा है। विपक्ष की एका समय और उसके बिखरते अस्तित्व की मांग है।
दक्षिणी राज्य कर्नाटक का प्रयोगवाद विपक्ष कैराना में आजमाना चाहता है। अगर कैराना में कर्नाटक फार्मूला कामयाब रहा तो यह 2019 की राजनीति का रोल माडल होगा। लेकिन विपक्ष की एकता में बेपनाह रोडे़ हैं जिसका लाभ भाजपा उठा रही है। देश की तमाम समस्याओं पर प्रतिपक्ष एक होने के बजाय मोदी को घेरने में लगा है। आतंकवाद, नक्सलवाद, बेगारी, दलित उत्पीड़, मासूमों के साथ बढ़ती बलात्कार की घटनाएं जैसे अनगिनत समस्याएं हैं। लेकिन सत्ता और खुद के बिखराव को संजोने के लिए बेमेल एकता की बात की जा रही हैं। देश की बदली हुई राजनीति अब विकास और नीतिगत फैसलों के बजाय सत्ता के इर्द गिर्द घूमती दिखती है। भाजपा जहां कांग्रेस मुक्त भारत बनाने में जुटी है। वहीं विपक्ष अस्तित्व की जंग लड़ रहा है। जिसकी वजह से कैराना का उपचुनाव मुख्य बहस में हैं। कैराना जय-परायज से कहीं अधिक डूबती और उभरती दक्षिण और वामपंथ की विचारधाओं से जुड़ गया है।
सत्ता की जंग में कौन सर्वोपरि होगा यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इसकी प्रयोगशाला कैराना बनने जा रहा है। यह वहीं कैराना है जो कभी हिंदुओं के पलायान और बिकाउ मकानों के इस्तहारों के लिए चर्चा में था। इस सीट पर 28 मई को उपचुनाव है। भाजपा ने यहां से हूकूम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को जहां उम्मीदवार बनाया है। वहीं विपक्ष की साझा उम्मीदवार आरएलडी से तबस्सुम हसन हैं। वह पूर्व बसपा सांसद पत्नी हैं। भारतीय राजनीति में कैराना अहम विंदु बन गया है। मीडिया की बहस में कैराना छाया है। कैराना से अगर विपक्ष की जीत हुई तो यह भाजपा और मोदी के लिए अशुभ संकेत होगा। क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में भाजपा की बुरी पजराजय हुई है। जिसकी वजह सपा और बसपा जैसे प्रमुख दलों की एकता रही, जिसमें कर्नाटक  की जीत ने गैर भाजपाई दलों को एक नयी उर्जा दी है। भाजपा के राष्टीय अध्यक्ष अमितशाह 400 सीट जीतने का दावा कर रहे हैं। लेकिन कर्नाटक की रणनीति में भाजपा फेल हुई है। विपक्ष और सोनिया गांधी की यह नीति विपक्ष को एक मंच पर लाने में कामयाब हुई है यह दीगर बात है की इसका जीवनकाल क्या होगा। जबकि भाजपा के लिए यह सबसे बड़ी मुश्किल है। क्योकि

अभी तक भाजपा का लोकसभा में तकरीबन 40 फीसदी वोट शेयर है और देश की 70 फीसदी आबादी पर उसका कब्जा हो गया है। बदले राजनीतिक हालात में जीत के लिए कम से कम 50 फीसदी वोटों की जरुरत होगी। जबकि अभी कर्नाटक के पूर्व बिहार में वह विपक्ष की एकता के आगे पराजित हुई। इसलिए सफलता के उन्माद में उसे जमींनी सच्चाई पर भी गौर करना होगा। राष्टीय स्तर पर मीडिया की तरफ से आए कई सर्वेक्षणों में मोदी और उनकी लोकप्रियता अभी भी सबसे टाप पर है, लेकिन लोकप्रियता में गिरावट हुई है।
कैराना में कुल 17 लाख वोटर हैं जिसमें सबसे अधिक अल्पसंख्यक पांच लाख की तादात में हैं जबकि दो लाख जाट और उतने ही दलित हैं और पिछड़ा वर्ग के लोग शामिल हैं। भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने संसद में हिंदुओं के पलायन का मसला उठा कर 2017 के यूपी आम चुनाव में हिंदुत्व ध्रवीकरण के शीर्ष पर पहुंचा दिया था। जिसकी वजह से यहां की पांच  विधान सभा  सीटों में भाजपा को चार पर सफलता मिली थी जबकि एक सीट सपा के पाले में गयी थी। क्या इस बार भी मोदी मैजिक का जलवा कायम रहेगा। क्या विपक्ष की एकजुटता के बाद भी भाजपा यह सीट ध्रवीकरण के जरिये बचाने में कामयाब होगी। जबकि इस बार पीएम चुनाव प्रचार से अलग रहे हैं। हलांकि मायावती, और अखिलेश यादव के साथ राहुल गांधी भी प्रचार से दूरी बनाये रखे हैं। चैधरी अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत के लिए यह साख का मसला बन गयी है।
राज्य विधानसभा के 2017 के चुनाव में मृगांका सिंह को कैराना से भाजपा का उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन मोदी लहर के बाद भी उनकी पराजय हुई थी। भाजपा ने एक बार फिर उन्हें लोस उपचुनाव में उतारा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में हुकुम सिंह को 5 लाख 65 हजार और सपा को 3 लाख 29 हजार जबकि बसपा को 1 लाख 60 हजार वोट मिले थे। अगर सपा बसपा के दोनों वोटो को एक साथ कर दिया जाय तो तभी वह भाजपा की बाराबरी करती नहीं दिखती। लेकिन तब और अब की स्थितियां अगल हैं। इस बार पूरा विपक्ष एक साथ हैं। इस लोकसभा में विधानसभा की पांच सीटों शामली, नकुर, गंगोह, थाना भवन और कैराना शामिल हैं। 2017 में सपा, बसपा और कांग्रेस यहां मिल कर पांचों विधानसभाओं में कुल  4 लाख 98 हजार मत हासिल किया था।वहीं भाजपा को 4 लाख 32 हजार मिले थे। यहां 1998 और 2014 में भाजपा की जीत हुई थी। 1996 में यहां से सपा ने जीत दर्ज की थी। 1999 और 2004 में अजीत सिंह की राष्टीय लोकदल की जीत हुई थी। 2009 में मायावती की बसपा के कब्जे में यह सीट गयी थी।
प्रधानमंत्री यहां उप चुनाव से भले दूरी बनायी हो। लेकिन कैराना उपचुनाव के एक दिन पूर्व बागपत में 135 किमी लंबे एक्सप्रेस-वे की सौगात देकर दिल्ली एनसीआर के लोगें को एक तोहफा दिया है। पीएम ने यहां एक तीर से दो निशाना साधा है। उनका आधा भाषण जहां विकास पर आधारित रहा वहीं अंतिम भाग कांग्रेस और राहुल गांधी पर टिका था। कांग्रेस को जहां उन्होंने गरीबों के खिलाफ बताया। वहीं ओबीसी के लिए सब कैटगरी के गठन की बात कही। कांग्रेस पर तीखा हमला करते हुए यहां तक कह डाला की कांग्रेस हमारा विरोध करते-करते देश का विरोध करने लगी। युवाओं को भी उन्होंने खूब लुभाया। जिसके केंद्र में कैराना का उपचुनाव रहा। कैराना चुनाव के एक दिन पूर्व मोदी वोटरों को लुभाने में कामयाब हुए हैं। यह यूपी के मुख्यमंत्री सीएम योगी आदित्यनाथ की अहम रणनीति का हिस्सा भी कहा जा सकता है। जहां उन्होंने एक्सप्रेस-वे की आड़ में पीएम को आमंत्रित कर कैराना का मूड़ भांपने की कोशिश की। हलांकि यह इलाका मुस्लिम बाहुल्य है। यहां कइ्र्र बार दंबे हुए हैं जिसकी वजह से मुस्लिमों के ध्रवीकरण से भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह भी देखना होगा की तीन तलाक का मसला अभी मुस्लिम औरतों में जिंदा हैं की उतर गया है। अजीत सिंह की आरएलडी ने एक नया नारा गढ़ा है जिसमें जिन्ना नहीं गन्ना चलेगा की बात कही गयी है। फिलहाल सियासत के इस सहमात के खेल में सिकंदर कौन बनेगा यह तो वक्त बताएगा। लेकिन भाजपा और विपक्ष के भाग्य का फैसला सीधे हिंदु और गैर हिंदूमतों के ध्रुवीकरण पर टिका है। अब भाजपा गोरखपुर और फूलपुर से सबक लेती दिखती है या फिर विपक्ष के सामने नतमस्तक होती दिखती है। बस परिणाम का इंतजार कीजिए।

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