‘जो कुछ भी आज अतीत है वो भविष्य की बात होगी!’ : उत्तरप्रदेश चुनाव

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कीर्ति दीक्षित

कैम्ब्रिज के इतिहासकार  एफ. डब्ल्यू. मीटलैंड ने कहा था – ‘जो कुछ भी आज अतीत है वो भविष्य की बात होगी’  ये तथ्य अब भी उतना ही ताजा है । वर्तमान और भूतकाल के परिदृश्य का मूल्याङ्कन करके आप निश्चय कीजिये कि हमारी राजनीति कितनी बदली है।

उत्तरप्रदेश गुजरे साल से राजनैतिक अखाडा बना हुआ है, चुनावी डमरू अपने पूरे शबाब पर डमडमा रहा है लेकिन अब भी गाहे बगाहे कभी चाचा शिवराज नयी पार्टी बनाने का वक्तव्य कहते दिखाई पड़ते हैं तो कभी मुलायम सिंह यादव अखिलेश को कोसते तो कभी प्रेम वाणी बोलते दिखाई पड़ते हैं, कुल मिलाकर दल के वरिष्ठों को समझ ही नहीं आ रहा कि क्या कहना है या क्या नहीं बस समाजवादी पार्टी के भीतर की कलह बार बार सड़कों पर नाच रही है।

पिछले दिनों  सपा प्रमुख ने निष्कासन करने और वापस लेने के खेल में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक को पार्टी से निष्काषित कर दिया था। तमाम मनाने रूठने का खेल चला, मामला चुनाव आयोग तक पहुँच गया। सपा का चुनाव चिन्ह भी अखिलेश ने अंततः अपने शक्ति प्रदर्शन से छीन लिया, मुलायम सिंह मात्र मार्गदर्शक के रूप में खुद गूंगे पुतले का रोले अदा करने के लिए बैठा दिए गये जबकि  समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को ये सोचकर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था कि प्रदेश के युवाओं के सामने एक युवा नेता भी रहेगा और विरासत भी आगे बढ़ेगी साथ ही अखिलेश एक रबर स्टाम्प की तरह काम करते रहेंगे, हालाँकि शुरूआती सालों में हुआ भी यही लेकिन अखिलेश अतीत की इंदिरा की तरह सामने आये। अपनी ही पार्टी से ऐलान ए जंग कर दिया और एक शक्तिशाली नेता की छवि जनता के बीच स्थापित करने में सफल रहे। जो भूमिका १९६९ में सीपीआई ने निभाई थी अब वही भूमिका कांग्रेस उत्तरप्रदेश में  निभा रही है, एक बड़ी ऐतिहासिक विरासत वाली देश की सर्वप्रमुख पार्टी कुछ दशकों पुराने दल के पीछे खड़ी है, शायद इसी को इतिहास दोहराना कहते हैं।

चलिए बात अब उस अतीत की जो आज उत्तरप्रदेश की धरती पर साँसे ले रहा है, परिदृश्य उन दिनों का है जब लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस के सामने एक बार फिर प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुनने का सवाल खड़ा था। मोरार जी देसाई और के. कामराज दोनों मजबूत दावेदार थे लेकिन तब नेहरु की छवि को भुनाने के लिए इंदिरा गाँधी के नाम पर ये सोचकर मोहर लगा दी गयी कि इंदिरा एक रबर स्टाम्प प्रतिनिधि की तरह रहेंगी क्योंकि अनुभव भी कम है और उनके सामने दिग्गज कांग्रेसी नेता हैं। कुछ दिनों तक हुआ भी यही लेकिन इंदिरा अब बदलने लगी थीं। सत्ता की शक्ति के प्रयोग में भी चतुर हो चली थीं, अपने आपको इस सामूहिक सत्ता से आजाद करने के लिए उन्होंने अपनी चाल चल ही दी। बात १९६९ की है, राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस और इंदिरा गाँधी के मतभेद खुलकर सामने आ गये थे। कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार एन. संजीवरेड्डी के सामने इंदिरा ने वी.वी. गिरी का समर्थन किया साथ ही सभी सांसदों और विधायकों को ये कहकर अपने ही संगठन को खुली चुनौती दे दी कि अपनी अंतरात्मा के अनुसार राष्ट्रपति को मत दें। परिणाम जैसा इंदिरा गाँधी चाहती थीं वही रहा वी. वी. गिरी राष्ट्रपति चुनाव में विजयी हुए….इसके बाद से इंदिरा लगातार संगठन के निर्णयों के विरुद्ध जाती रहीं। अन्ततः १२ नवम्बर को उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया। इस दौरान आजीवन कांग्रेसी रहे निजलिंगप्पा जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए बहुत कम उम्र में कांग्रेस में शामिल हो गये थे और तबसे लगातार इन आन्दोलन के लिए अपना सर्वस्व देने के लिए तत्पर रहे थे। उन्होंने इंदिरा गाँधी पर व्यक्तिवादी होने का आरोप लगाते हुए कहा था – “बीसवीं सदी का इतिहास ऐसी त्रासदियों से भरा पड़ा है जब कोई नेता लोकप्रिय जनमत या लोकतान्त्रिक संस्थाओं की बदौलत सत्ता में आकर लोकतंत्र पर हावी हो जाता है, और निहित स्वार्थी चमचों से घिरकर आत्ममोह का शिकार हो जाता है, ऐसी हालत में ये स्वार्थी तत्व, भ्रष्टाचार और आतंक सहारा लेकर जनता और विपक्ष की आवाज को खामोश करने का प्रयास करते हैं, और तानाशाही थोपने की कोशिश करते हैं, लोकतंत्र और समाजवाद के प्रति समर्पित कांग्रेस पार्टी को इन प्रवृतियों से लड़ाई लड़नी है..” (जैदी की किताब द ग्रेट अपहेवल, २३१)

कांग्रेस दो भागों में बंट गयी मूलकांग्रेस, कांग्रेस (ओ) कहलाई और इंदिरा गुट कांग्रेस (आर) कहलाया, ये एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी। इंदिरा अब उस कांग्रेस का हिस्सा नहीं थीं जिसने आजादी की लड़ाई लड़ी जो उन्हें विरासत में मिली थी। इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं, सत्तामोह ने इंदिरा के साथ एक बड़े गुट को जोड़ दिया था। दोनों कांग्रेस के बीच शक्ति प्रदर्शन हुआ बेशक इंदिरा को विजयी होना ही था और हुआ भी वही, अब बारी लोकसभा की थी। मात्र पैंतालीस सांसदों की कमी थी इंदिरा के पास बहुमत साबित करने के लिए, जिसके लिए सीपीआई बड़ी आसानी से समर्थन देने को राजी हो गयी, क्योंकि इस मेल में सीपीआई खुद को एक बड़े राजनैतिक फायदे में खड़ा पा रही थी, इस पूरे मामले के दौरान कांग्रेस के पार्टी कार्यालय के बाहर लोगों की भीड़ थी तो उससे कई गुना ज्यादा जनसमर्थन प्रधानमंत्री आवास के सामने दिखाई पड़ रहा था चित्र साफ़ था देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली कांग्रेस अकेली रह गई थी अब धमक इंदिरा के कांग्रेस की थी…….

………और आज समाजवादी पार्टी में धमक अखिलेश यादव की है ! शक्ति सारे मानदंडों को मुंह चिढाकर कुर्सी पर सवार होती है, जब तक सत्ता पारिवारिक विरासतों में साझा होगी, राजनीति ऐसे ही खेल खेलेगी, बस चेहरे बदल जायेंगे । ये तो इतिहास का एक चेहरा है ऐसे ना जाने कितने इतिहास आज का मुखौटा ओढ़ कर आयेंगे,  इंतज़ार कीजिये।

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