यूपी : मोदी मिशन 2019 को लगा बड़ा झटका 

प्रभुनाथ शुक्ल

राजनीतिक रुप से अहम उत्तर प्रदेश के उपचुनाव ने एक नया संदेश दिया है। यह संदेश जहाँ विपक्ष के लिए संजीवनी है वहीँ भाजपा के लिए मंथन का विषय। यह विशेष रुप से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए शुभ नहीँ है। प्रदेश की सत्ता के दो खास चेहरे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ख़ुद अपनी सीट बचाने में नाकाम रहें हैं । जबकि योगी गोरखपुर से कई बार विजय दर्ज़ कर चुके हैं। लेकिन दलित और पिछडों के गठबंधन ने भाजपा की सारी थ्योरी जमींदोज कर दिया। राज्य विधानसभाओं में भाजपा का विजय अभियान भले जारी हो। सेकुलरवाद और वामपंथ का किला ढह गया। धर्मनिरपेक्षता ने  पंथवाद के आंचल में अपना सिर छुपा लिया हो । पूरब में पश्चिम बंगाल  से वामपंथ के पतन का सिलसिला आगे बढ़ता हुआ त्रिपुरा तक पहुँच गया। लेकिन भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और संघी विचारधारा जहाँ अछूत थी वहीँ उसका फैलाव 21 राज्यों तक पहुँच गया। देश कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ़ बढ़ चला है। दक्षिणपन्थ के बढ़ते प्रभाव की वजह से पंथ निरपेक्षवादी सदमें में हैं। अब 2019 को लेकर मंथन चल रहा है , लेकिन बिखरे विपक्ष को यूपी उपचुनाव में सपा – बसपा गठबंधन की की जीत नयी उम्मीद और प्रयोग लेकर आयी है । बिहार की अररिया सीट पर भी आरजेडी आगे है। वोट की बढ़त को देखते हुए जहाँ फूलपुर और गोरखपुर योगी और भाजपा के हाथ से निकलता दिख रहा। वहीँ बिहार में भी मोदी – नीतीश की दोस्ती फेल होती दिख रही है।

लेकिन भाजपा का  मिशन 2019 फिलहाल सफल होता नहीँ दिखता है। अभी तो यह एक प्रयोग था इसकी सफलता पर आगे की बुनियाद टिकी थी। उत्तर प्रदेश में अगर सपा और बसपा एक साथ आई और उसके साथ काँग्रेस भी होगी तो आने वाले दिन भाजपा के लिए चुनौती वाले होंगे।
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती का यह सियासी प्रयोग बेहद सफल साबित हुआ है। वैसे भी राजस्थान , मध्यप्रदेश और दूसरे उपचुनाव में काँग्रेस ने विजय हासिल किया है। लेकिन भाजपा के हाथ से अगर यूपी फिसलती है तो 2019 में दिल्ली दूर होगी। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 85 में 70 सीटों पर विजय मिली थी। 2019 में बुआ और भतीजे की दोस्ती जारी रही तो भाजपा के सारे सियासी समीकरण ध्वस्त हो सकते हैं। भाजपा के नेताओं की यह दलील बेइमानी होगी कि उपचुनाव कोई मायने नहीँ रखते।  देश के राजनीति क्षितिज पर यूपी नया संदेश देने में कामयाब हुआ है । उपचुनाव के इस परिणाम से राज्यसभा में भाजपा और कमजोर होगी उसकी मुश्किल और बढ़ेगी और कई अहम बिल पास कराने में उसे पसीने आएंगे।

भाजपा ने जिस हिंदुत्व छवि के भरोसे यूपी को जीता था उसी को योगी आदित्यनाथ भी नहीँ बचा पाए यह बेहद चिंता और चिंतन का विषय है। यूपी में योगी अच्छा काम कर रहें हैं तो फ़िर हारे क्यों। साल भर में ही तस्वीर पलट गई है। गोरखपुर की हार कई मायने में अहम हैं। योगी और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ख़ुद अपनी सीट नहीँ बचा पाए और भाजपा के मत भी एसपी – बीएसपी गठबंधन को चले गए। हालांकि फूलपुर कभी भाजपा का गढ़ नहीँ रहा। भाजपा तो यहाँ पहली बार जीत दर्ज़ की थी। यह सीट तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की थी जहाँ से वह तीन बार चुने गए थे। 2014 के लोकसभा 2017 में  हुए राज्य राज्य विधानसभा चुनाव में जातिवादी तिलस्म टूट गया था, लेकिन एसपी – बीएसपी गठबंधन की जीत से विकास हासिए पर चला गया और राज्य की राजनीति एकबार फ़िर जाति के महाजाल में फंसती हुईं दिखती है।

2017 के यूपी के आम चुनाव में सपा – बसपा की करारी हार और भाजपा की तूफ़ानी जीत ने जातिवादी तिलस्म को मटियामेट कर दिया था।  दलित राजनीति की मसीहा मायावती की बसपा लोकसभा में एक सीट भई नहीँ जीत पायी थी। लेकिन इस नयी दोस्ती में से यह सम्भावना जताई जा रही थी कि फूलपुर और गोरखपुर चुनाव को लेकर सियासी प्रयोग सफल रहा तो यह उपचुनाव 2019 की राजनीतिक  प्रयोगशाला बनेगा और वहीँ हुआ भी।  हालांकि यह किसी ने कल्पना तक नहीँ कि थी कि गोरखपुर से भाजपा की हार होगी। हालांकि कम वोटिंग की वजह से भी यह अंदाज़ लगाया जा रहा था कि परिणाम सत्ता पक्ष के झोली में जा सकते हैं , लेकिन सारे कयास गलत साबित हुए।
2014 के लोस चुनाव में मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने 70 सीटों पर जीत हासिल की थी । यह सफर 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा। लेकिन मोदी मैजिक को तोड़ने के लिए बसपा सुप्रीमो और
पूर्व सीएम मायावती और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 23 साल बाद पिता मुलायम सिंह की दुश्मनी को भूल जो सियासी दाँव चला की योगी का विकासवाद और हिंदुत्व धराशायी हो गया।

यूपी में राममंदिर आंदोलन के बाद जातीय समीकरण पर आधारित नयी राजनीतिक का उदय हुआ था।लेकिन मोदी की सुनामी ने यूपी समेत पूरे भारत में विचारधाराओं के सारे किले ध्वस्त कर दिए।
पूर्वोतर की ऐतिहासिक जीत के बाद देश में बढ़ती भाजपा और मोदी की लोकप्रियता ने विपक्ष के कान खड़े कर दिए। पूर्वोतर फतह के बाद भाजपा यानी मोदी और अमितशाह की निगाह दक्षिण भारत के वामगढ़ केरल और काँग्रेस शासित कर्नाटक पर जा टिकी है। लेकिन उत्तर प्रदेश की इस पराजय ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। राजनीतिक रुप से बेहद अहम देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के उपचुनाव पर सब की नज़रें टिकी थी। कहते हैं कि दिल्ली की राजनीति उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों से होकर गुजरती है ।  फूलपूर और गोरखपुर को प्रयोग की राजनीति से जोड़ा जा रहा था।  एक बार फ़िर वहीँ पचासी और पंद्रह के नारे गढ़े गए। अपने ख़ीसकते जनाधार और जातियों को लामबंद करने के लिए दोनों एक साथ आए और सफलता हासिल की। भाजपा का हिंदुत्व और तीन तलाक का अचूक अस्त्र भी इस पराजय को जीत में नहीँ बदल सका।

सपा और बसपा ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में दोनों को 177 सीटें मिली थी और सपा-बसपा ने
गठबंधन ने सरकार बनाई थी। अब इस जीत के बाद यह सवाल उभरता है कि 2019 में यह दोस्ती आगे बढ़ी तो मायावती और अखिलेश में से कौन किसे अपना लीडर मानेगा। क्या स्‍टेट गेस्‍ट हाउस कांड के बाद मायावती का अखिलेश के नेतृत्‍व को स्‍वीकार करेंगी ? लेकिन राजनीतिक दोस्ती और दुश्मनी में कोई अंतर नहीँ होता है।
उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 28 प्रतिशत और बहुजन समाजवादी पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे। दोनों को जोड़ दिया जाय तो यह 50 प्रतिशत वोट हो जाता है।  ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए उपचुनाव में सपा के प्रत्याशियों को हराना एक बेहद चुनौती थी। फूलपुर की विधानसभा सीट पर सपा का कब्जा है। हालांकि यह सीट देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की विरासत रही है, लेकिन काँग्रेस उस ज़मीन को सुरक्षित रखने में नाकामयाब रही। फूलपुर लोकसभा सीट पर 2014 के चुनाव में बीजेपी को 5 लाख 3 हजार और 564 वोट मिले थे। जबकि सपा को 1 लाख 95 हजार 256 और बसपा को 1 लाख 63 हजार 710 वोट मिले थे। सपा-बसपा के वोट मिलने के बाद भी बीजेपी के केशव मौर्य और यूपी के उपमुख्यमंत्री को 1 लाख 44 हजार 598 वोट ज्‍यादा मिले थे। लेकिन भाजपा ख़ुद के वोट बचाने में नाकाम रही, जिसकी वजह से उसकी हार हुईं। गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के त्यागपत्र की वजह से रिक्त हुईं थी ।

2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर से बीजेपी को पांच लाख 39 हजार 137 वोट मिले थे। वहीं सपा को दो लाख 26 हजार और 344 वोट और बसपा को एक लाख 76 हजार 412 वोट मिले थे। गोरखपुर के बीजेपी उम्‍मीदवार योगी आदित्‍यनाथ को बसपा और सपा के वोट मिलने के बाद भी एक लाख 36 हजार 371 वोट ज्‍यादा मिले थे। इसके बावजूद भाजपा यहाँ से पराजित हो गई। जबकि योगी यहाँ से लगातर कई बार से सांसद चुने जाते रहे हैं । इस चुनाव के पीछे छुपी राज्यसभा की नई राजनीति पर भी है।
दूसरी ओर यूपी की राजनीति में बड़ा सवाल यह है कि क्या मयावती-अखिलेश 2019 में बीजेपी के खिलाफ साथ आएंगे ? गोरखपुर के उपचुनाव में दिखी साझेदारी ने इस कयास को मजबूत कर दिया है । इस दोस्ती ने भाजपा की परेशानिया बढ़ा दी हैं । यूपी की इस सियासी प्रयोगशाला में परीक्षण के सफल होने के बाढ़ गैर भाजपाई एकता के लिए नयी संजीवनी मिल गई है। मोदी और शाह कम्पनी के खिलाफ काँग्रेस , वामपंथ और दूसरी विचारधारा के दल इसके बाद

एक साथ आ सकते हैं । यानी देश की सियासत दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ में विभाजित हो जाएगी। फ़िर भाजपा  हिंदुत्व और राममंदिर का ट्रम्पकार्ड खोलेगी। बस समय का इंतजार करिए। कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत रही फूलपुर की सीट आज़ राजनीति की नई प्रयोगशाला बनी गई और उपचुनाव के बाद 2019 के महासंग्राम के लिए नया संदेश दिया है। लेकिन गोरखपुर जिला प्रशासन की भूमिका स्वामी भक्ति की रही है । यह योगी और चुनाव आयोग पर सवाल खड़े करने वाली है। हालांकि आयोग ने ज़िला प्रशासन को नोटिस भी भेजा है। यह बेहद गम्भीर स्थिति है आयोग को यूपी उपचुनाव से सबक लेना चाहिए। भाजपा के हाथ पीटते विपक्ष में जहाँ एक उम्मीद दिखाख़ी है वहीँ मोदी और शाह के लिए मंथन का विषय है।

2 COMMENTS

  1. जी ! प्रणाम ! ! हम आपकी बात से सहमत हैं! यह प्रयोग का दौर है ! यूज एंड थ्रो – – – वहीँ हाल राजनीति का है । । कोई इंतजार नहीँ करना चहता। चीन से सबक लेनी चाहिए । । वहाँ की संसद उन्हें उम्र भर का इनाम दिया लेकिन हमारी संसद एक बिल नहीँ पास होने देती। अररिया की जीत पर भारत तेरे टुकड़े होंगे नारे लगते हैं । यह देश की राजनीति है । । टिप्पणी के लिए आपका आभार ! !

  2. मेरा अनुमान: (१) मतदाता विकास के लाभ के लिए अधीर है. वह आज के आज विकास चाहता है. (२) दूर की सोच नहीं कर सकता. (३) जातीय समीकरण, और अनपढ मतदाता की अल्पसंख्या भी इधर से उधर जाती है, तो तराजु डाँवाँडोल हो जाता है.
    (४)शायद योगी जी और मौर्य जी आश्वस्त भी होकर निश्चिन्त रहे होंगे.
    (५) पर क्या मतदाता इतना बुद्धु है; या मूर्ख है?
    क्या शासन के पास जादुकी छडी है?
    क्या सोचकर बसपा+ सपा को जिता दिया?

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