उर के उफानों में,
सुर के सोपानों में;
तुम ही रहे संग,
आत्मा की लहरों में !
क़हरों के पहरों में,
तानों वितानों में;
तृण तुल्य तरजों में,
तारों की सरगम में !
हर दम तुम्हीं भाव,
सुर-सरि लिये हो;
संताप हर फुर,
संस्थापित करते हो !
संस्कार नित भोग,
प्रारब्ध दे वेग;
धरती की कृति धार,
धृति से भरे हो !
साहित्य संस्कृति में,
विज्ञान चेष्टा में;
ज्ञानों की गरिमा में,
‘मधु’ विचरत भूमा में !
मुक्त हो जीवन तरी से !
मुक्त हो जीवन तरी से,
देह निज विस्तार पाती;
मन की सीमा नहीं रहती,
आत्म प्रस्फुर विचर पाती !
सकल सिकुड़न गात अकड़न,
छोड़ सब संकोच जाती;
मानसिक परिधि परे जा,
वृत्तियाँ मृदु मधुर होती !
अहं मिल कर महत घुल कर,
सगुण बह कर निर्गुणी गति;
भाव सत्ता सहज होती,
सौम्य हो भव झाँक लेती !
प्रयोजन से परे प्रण लख,
प्रीति की गंगा परश कर;
प्राण का कल्याण करती,
सफल आयोजन कराती !
बने द्रष्टा इष्ट चक्रा,
विचर आती लहर देती;
‘मधु’ की धुन महक देती,
मोह को भक्ति डुबाती !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’