उर की उड़ान औ उफान!

उर की उड़ान औ उफान, फुर लिया करो;

आयाम सृष्टि झाँके सुर को, सुध लिया करो!

हर कोश कोशिका के कोष, किलकिला रहे;

नव चक्र चिन्मयी को तके, झिलमिला रहे!

तर पंचभूत जीव कोटि, ज्वार ले रहे;

बुद्धि के बोध स्वयंभू के, चरण छू रहे!

स्थूल भाव अनमने से, अचेतन रहे;

त्वर त्राण प्राण उनमें समा, क्यों न जी रहे!

साधे हरेक देह धरा, भूमा नच रही;

‘मधु’ अँगना पीने सोम सुधा, आया तुम करो!

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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