ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते

ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते,

झाँक आवागमन बीच लेते;

तलों के नीचे पर न तक पाते,

रहा क्या छत के परे ना लखते !

छूट भी बहुत कुछ है जग जाता,

मिलना नज़दीक से न हो पाता;

भीड़ से वास्ता न बहु होता,

रहा टक्कर का डर भी ना होता !

देख पाते हैं यान जो उड़ते,

टोलियाँ बादलों की नित तकते;

नचते तूफ़ान नज़र आ जाते,

आते जो मिलने पहले लख जाते !

नहीं आते हैं यहाँ हर कोई,

यात्री विरले ही लेते मग यह भी;

सुहानी ठंड सी प्राय रहती,

लगती रमणीक यहाँ से धरती !

होते स्तर भी मनों के ऐसे,

आत्म आलोक भी रहे वैसे;

पाते कुछ खोते ‘मधु’ भव रहते,

भाव आयाम विश्व तक चलते !

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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