झगड़ा क्या है उर्दू और हिंदी का

दोनों इसी जमीन की खुशबू से बनी भाषाएं हैं

– संजय द्विवेदी

ज्ञान की नगरी बनारस से एक अच्छी खबर आयी है। भाषाओं की जंग में फंसे देश में ऐसी खबरें राहत भी देती हैं और समाधान भी सुझाती हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के छात्र-छात्राएं अब गालिब की शायरी, मीर तकी मीर जैसे उर्दू के लेखकों को भी पढ़ेंगे। जाहिर तौर इससे हिंदी की ताकत तो बढ़ेगी ही, विद्यार्थी नए अनुभवों से युक्त होंगे और उर्दू के विशाल काव्य संसार से रूबरू होने का उन्हें मौका भी मिलेगा। यह एक अवसर और संदेश दोनों है कि भारतीय भाषाएं अपनी ताकत को पहचानें और साथ मिलकर अंग्रेजी के आतंक के सामने अपनी सार्थकता साबित करें।

सच तो यह है कि देश के बंटवारे ने सिर्फ हिंदुस्तान का भूगोल भर नहीं बदला, उसने इस विशाल भू-भाग पर पलने और धड़कने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति को भी चोट पहुंचाई। हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, बोलियों और भाषाओं को भी तंगनज़री का शिकार बना दिया । उर्दू 1947 में घटे इस अप्राकृतिक विभाजन का दंश आज तक झेल रही है। जब वह एक सभ्यता को स्वर देने वाली भाषा नहीं रही । बल्कि एक ‘कौम’ की भाषा बनकर रह गई। तब से आज तक वह सियासतदानों के लिए ‘फुटबाल’ बनकर रह गई है।

भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मी-पली और बढ़ी यह भाषा जो यहां की तहजीब और सभ्यता को स्वर देती रही, विवादों का केंद्र बन गई। गैर भाषाई और गैर सांस्कृतिक सवालों की बिना पर उर्दू को अनेक स्तरों पर विवाद झेलने पड़े और इसमें जहां एक ओर उग्र उर्दू भाषियों की हठधर्मिता रही तो दूसरी ओर उर्दू विरोधियों के संकुचित दृष्टिकोण ने भी उर्दू की उपेक्षा के वातावरण की सृजन किया। हमारे समाज के बदलते रंग-रूप उसकी सभ्यता की विकासयात्रा में उर्दू साहित्य ने कई आयाम जोड़े हैं। अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, गालिब की परंपरा से होती हुई जो उर्दू फैज अहमद ‘फैज’, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी या बशीर बद्र तक पहुची है, वह एक दिन की यात्रा नहीं है। एक लंबे कालखंड में एक देश और उसके समाज से सतत संवाद के सिलसिले ने उर्दू को इस मकाम पर पहुंचाया है। इस योगदान के ऊपर अकेले 1947 के विभाजन ने पानी फेर दिया। सामाजिक जनजीवन में भी यही घटना घट रही थी। मुस्लिम मुहल्ले-हिंदू मुहल्ले अलग-अलग सांस ले रहे थे, पूरे अविश्वास के साथ । दोनों वर्गों को जोड़ने वाले चीजें नदारद थीं। भाषा (उर्दू) तो पहले ही ‘शहीद’ हो चुकी थी। ऐसे में जब संवेदनाओं का श्रोत सूख रहा हो। हमने अपने-अपने ‘कठघरे’ बना रखे हों-जहां हम व्यक्तिगत सुख-दुख तक की बातें एक-दूसरे से नहीं बांट पा रहे हों-तो भाषा व लिपि को लेकर समझदारी कहां से आती ?

उर्दू को लेकर काम कर रहे लोग भी बंटे दिखे। तंगनजरी का आलम यह कि हिंदू उर्दू, मुस्लिम उर्दू तक के विभाजन साफ नजर आने लगे। दिल्ली व पंजाब के जिन उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे, जैसे हिंद समाचार, प्रताप, मिलाप आदि उन्हें देख कर ही पता चल जाता था कि यह हिंदू अखबार है। जबकि मुस्लिम मालिक-संपादक के अखबार बता देते हैं कि वह मुस्लिम अखबार है। यह कट्टरपन अब साहित्यिक क्षेत्रों (शायरी व कहानी) में भी देखने लगा है।

जाहिर है ये बातें ‘उर्दू समाज’ बनाने में बाधक हैं। उर्दू के सुनहरे अतीत पर गौर करें तो रघुपति सहाय फिराक, कृश्नचंदर, सआदत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, कुरतुल एन हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम का सभी ने जो साहित्य रचा है-वह भारतीय समाज के गांवों एवं शहरों की धड़कनों का गवाह है। वहीं उर्दूं शायरी ने अपने महान शायरों की जुबान से जिंदगी के हर शै का बयान किया है। यह परंपरा एक ठहराव का शिकार हो गई है। नए जमाने के साथ तालमेंल मिलाने में उर्दू के साहित्यकार एवं लेखक शायद खुद को असफल पा रहे हैं। उर्दू एक मंझी हुई संस्कृति का नाम है। हालत बताते हैं कि उसे आज सहारा न दिया गया तो वह अतीत की चीज बनकर रह जाएगी। आज अहम सवाल यह है कि किसी मुसलमान या हिंदू को उर्दू सीखकर क्या मिलेगा ? हर चीज रोजगार एवं लाभ के नजरिए से देखी जाने लगी है। ऐसे में उर्दू आंदोलन को सही रास्तों की तलाश करनी होगी। सिर्फ मदरसों एवं कौमी साहित्य की पढ़ाई के बजाए उर्दू को नए जमाने की तकनीक एवं साईंस की भी भाषा बनना होगा। साहित्य में वह अपनी सिद्धता जाहिर कर चुकी है-उसे आगे अभी हिंदुस्तान की कौम का इतिहास लिखना है। ये बातें अब दफन कर दी जानी चाहिए की उर्दू का किसी खास मजहब से कोई रिश्ता है। यदि ऐसा होता तो बंगलादेश- ‘बंगला’ भाषा की बात पर अलग न होता और पाकिस्तान के ही कई इलाकों में उर्दू का विरोध न होता । इसके नाते उर्दू को किसी धर्म के साथ नत्थी करना बेमानी है। उर्दू सही अर्थों में ‘हिन्दुस्तानी कौम’ की जबान है और हिंदुस्तान की सरजमी पर पैदा हुई भाषा है। आज तमाम तरफ से उर्दू को देवरागरी में लिखने की बातें हो रही हैं-और इस पर लंबी बहसें भी चली हैं। लोग मानते हैं कि इससे उर्दू का व्यापक प्रसार होगा और सीखने में लिपि के नाते आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी । लेकिन कुछ विद्वान मानते कि रस्मुलखत (लिपि) को बदलना मुमकिन नहीं है । क्योंकि लिपि ही भाषा की रूह होती है। वे मानते हैं कि देवनागरी में उर्दू को लिखना खासा मुश्किल होगा, क्योंकि आप जे, जल, जाय, ज्वाद के लिए भी हिंदी में ‘ज’लिखेंगे । जबकि सीन, से, स्वाद के लिए ‘स’ लिखेंगे। ऐसे में उनका सही उच्चारण (तफज्जुल) मुमकिन न होगा और उर्दू की आत्मा नष्ट हो जाएगी । ऐसे विवादों-बहसों के बीच भी उर्दू की हिंदुस्तानी सरजमीं पर एक खास जगह है । भारत की ढेर-सी भाषाओं एवं उसके विशाल भाषा परिवार की वह बेहद लाडली भाषा है । गीत-संगीत, सिनेमा-साहित्य हर जगह उर्दू का बढ़ता इस्तेमाल बताता है कि उर्दू की जगह और इज्जत अभी और बढ़ेगी है। बनारस ने उर्दू को सलाम भेजा है और वहां के हिंदी विभाग ने उसे जगह दी है। इस तरह के फैसले निश्चय ही हिंदी परिवार की ताकत को बढ़ाने वाले साबित होंगें। आज जब हिंदी की बोलियां भी उसके खिलाफ खड़ी की जा रही हैं तो हिंदी का उर्दू के लिए प्यार और स्वीकार एक नई नजीर बन सकता है।

7 COMMENTS

  1. उर्दू प्रचुर(बहुल) हिंदी भी केवल उत्तर भारत में शायद चल भी जाएँ, पर दक्षिण, पूर्व और नीचले भारत में चल नहीं सकती।
    उर्दू (लिपि सहित),पहले, अलग स्वतंत्र भाषा के रूपमें मान्यता पायी। और व्याकरण तो हिंदीका ही प्रयोजती है।<====
    तो जाओ अरेबिक या फारसी का व्याकरण लाओ , तो पता चलें।
    रामायण की, संस्कृत निष्ठ हिंदी बंगलूर में यातायात रुकवा देती थी। और खिडकी खिडकियों में रखॆ गए दूरदर्शन भीड इकठ्ठी करते थे। वह हिंदी सभी को समझमें आती थी।
    यदि, बुद्धिमान प्रधान मंत्रीने यदि संस्कृत बहुल हिंदी अपनायी होती, तो उसका बहुत कम विरोध होता।
    नीति:
    राष्ट्रीय वृत्ति बिना भाषा आयोग में स्थान न दिया जाए।
    जब गोवर्धन पर्बत उठाने में योग दान देना है, तब यह साम्प्रदायिक निष्ठाएं उसपर बैठकर बोझ बढा देती है, तो समस्या का हल कैसे हो?
    उर्दू को व्याकरण तो है ही नहीं।
    पारिभाषिक शब्दावली भी नहीं।
    पर वोट बॅन्क है।

  2. हमारे बुद्धिजीवी अभी तक इस गंगा जामुनी तहजीब के भुलावे से बाहर नहीं आए है गंगा व जमुना दोन्म हिन्दू पूज्य नदिया है मुसलमानों का इसमें कोई लेना देना नहीं है उर्दू एक एसी भाषा है जिसने देश को तोड़ा है व उस भाषा को उसके भाषा प्रेमियो पर छोड़ दो एक हिन्दू विश्व विध्यालय मे उसे पढ़ना व पढ़ाना मूर्खता है

  3. अंग्रेजी ज़माने की बात है एक बार अंग्रेजी और उर्दू में झगडा हो गया – अंग्रेजी ने कहा मैं बड़ी और उर्दू कहे की मैं बड़ी | झगडा बढ़ता ही गया लेकिन दोनों अपनी बात गिराना नहीं चाहते थे | तंग होकर दोनों ने सोचा की चलो हिंदी की सलाह लेते हैं | दोनों हिंदी के पास गए और अपनी समस्या बताई | हिंदी ने कहा मैं तुम दोनों को एक टेस्ट देती हुं – उस में जो पास हो गया वही बड़ा माना जायेगा | हिंदी ने उर्दू से कहा लिखो “प्रणाम” – अंग्रेजी ने लिखा – paranaam – उर्दू ने लिखा پرنام |

    हिंदी ने कहा – प्रणाम लिखो – दोनों ने कहा ‘हमारे पास ण नहीं है| हिंदी ने कहा कोई बात नहीं – अब अंग्रेजी से कहा लिखो ‘हरिद्वार’ – अंग्रेजी ने लिखा Haridwar – हिंदी ने गिनती की और देखा की तुम्हे तो आठ अक्षर लिखने पड़े हैं | हिंदी में मात्र चार अक्षर से काम चल गया | चलो कोई बात नहीं – अब उर्दू से कहा लिखो चरित्र उर्द ने लिखा लेकिन यह पढ़ा गया – چارتر |

    हिंदी ने फिर उर्दू से कहा लिखो – नहाना – उर्दू ने लिखा – ناهنا | इस में नून की बिंदी से काम चल गया | किसी ने शरारत के तौर पर उस पर एक और बिंदी लगा दी अब वह बन गया – تهاانا |

    इसी तरह यह खेल चलता रहा | अंत में हिंदी ने कहा की तुम दोनों ही फैसला कर लो कौन तुम में बड़ा है | दोनों ने कहा आज की इस बातचीत से लगता है की तुम्ही यानि हिंदी ही बड़ी हुई – हम बेकार में लड़ रहे थे | हिंदी ने कहा की सब अपनी अपनी जगह ठीक हैं | हम दोनों तो इसी क्षेत्र की हैं इस लिए झगडा किस बात का | अंग्रेज़ी की सीमा है वह उस सीमा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकती | इस लिए मिल जुल कर अपना अपना काम करो | पाठक अपने अपने तरीके से काम करते रहो – घनिष्ठ सखियों की तरह

    • इस तरह की कमियां हर भाषा में होती हैं हिंदी में पंजाबी का ਢ , नहीं है इस लिए हिंदी के जानकर किसी तरह ਢੋਲ( ढोल) का उचारण नहीं कर सकते इससे हिंदी की गरिमा घटती नहीं है

  4. बहुत अच्छा राष्ट्रवादी चिंतन संजय जी. ….काश इस गंगा-जमुनी तहजीब को ऐसे ही कायम रहने दी जाय. उर्दू जैसे विशुद्ध हिन्दुस्तानी जुबान को अधर्म-सापेक्षता के उचक्कों द्वारा अकारण मज़हब विशेष का बना दिया गया है. हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा भेजे गए इस सलाम को उर्दू द्वारा ‘तसलीम’ किया जाएगा. शायद कतिल शिफाई साहब ने कहा है:-
    लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है !
    मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है !!

  5. मै एक गुजराती भाषी हूं। और, निम्न बिंदू, शायद, उत्तर भारतीय हिंदी भाषियोंके दृष्टिमें सहजतासे आना कठिन लगता है। इसलिए इसे कुछ विस्तारसे इस टिप्पणीमें लिखता हूं।
    मुझे हिंदीमें उर्दू शब्दोंका प्रवेश, विशेषतः (पंजाब,सिंध, कश्मीर छोडकर) अन्य प्रांतोंके -“हिंदीको राष्ट्र भाषा स्वीकृत करानेमें”-विरोधका एक, कारण(?) प्रतीत होता है।मैं, धारावाहिक रामायणको “संस्कृत प्रचुर हिंदी”के कारण, कर्नाटकमेंभी लोकप्रियता पाते देखकर आए हुए मित्रोंको जानता हूं।
    (भगवत्‌ गौ मंडळके, “गुजराती एन्सायक्लोपिडीया” से नीचेके विचार अनुवादित , और उद्‌धृतहै) ======
    “सारे देश की भाषा, सारे राष्‍ट्र में चले ऐसी भाषा, अपनी राष्‍ट्र भाषा हिंदी के दो विभाग हैं–पश्‍चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी। पश्‍चिमी हिंदी शौरसेनी और पूर्वी हिंदी अर्धमागधी की वंशज है। परिणामतः मूल दृ‌ष्‍टि से हिंदी का एक भाग भारतीय पश्‍चिमी बोलियाँ राजस्‍थानी, गुजराती, पंजाबी इत्‍यादि के अधिक निकट हैं और दूसरा भाग, पूर्वी हिंदीकी बोलियाँ–बिहारी, बँगला, उड़िया के निकट हैं। हिंदी क्षेत्र भी अन्‍य भाषाओं के क्षेत्र से अधिक विस्‍तृत है। उसकी पश्‍चिमी सीमा पंजाब है और दक्षिणी सीमा मध्‍य प्रदेश की दक्षिणी सीमा है। इस प्रकार हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जो आर्य भाषाओं में सभी के बीच की भाषा है। बँगला, पंजाबी, गुजराती, मराठी आदि बोलियाँ अर्थात् दूर की भाषाएँ हैं,और सभी का मूल एक होने के उपरांतभी एक-दूसरे से नितांत दूर और अलग हैं।
    देश की भाषाओं में उर्दू एक ऐसी भाषा रही है, जो हिंदी की प्रतिस्‍पर्धा करने के लिए तैयार थी। उर्दू वास्‍तव में कोई अलग भाषा नहीं, खड़ीबोली जो पश्‍चिमी हिंदी की उपभाषा थी, वह मुसलमानों के संसर्ग से अरबी और फारसी के शब्‍द भंडार और व्‍याकराणादि से प्रभावित हो गई। देश के एक वर्ग के लोग ऐसी खड़ी बोली का प्रयोग करने लगे, जिसमें अरबी और फारसी शब्‍द तथा रीतियों का आधिक्‍य था, खड़ी बोली की इस शैली विशेष का नाम उर्दू हो गया। प्रारंभ में हिंदी और उर्दू का कोई (आपस में) विरोध नहीं था। हिंदी की साहित्‍यिक भाषा में उर्दू के शब्‍द अनिवार्य रूप से घुसकर स्‍वीकृत हो चुके थे।
    उर्दू के शब्‍दोंको प्रवेश कराने का ऐसा श्रेय दूसरी आर्य भाषाओं को प्राप्‍त हुआ नहीं है। बँगला, मराठी, गुजराती, जो देश की श्रेष्‍ठ साहित्‍यिक भाषाएँ हैं, वे अपने में उर्दू शब्‍दों को बिलकुल स्‍थान देती नहीं हैं।(उनमें उर्दू शब्द हिंदीमें होकर आते हैं)
    केवल पंजाबी, सिंधी, कश्‍मीरी में ही उर्दू ने घर बनाया है। इस कारण उर्दू भाषा ऐसी भाषा है, जो गुजरात, महाराष्‍ट्र, बंगाल, उड़ीसा, आसाम, बिहार,मध्‍य प्रदेश,कर्नाटक, केरल,आंध्र एवं तमिलनाडु प्रांतों में बिलकुल व्‍यवहार में नहीं आ सकती। इन प्रांतों के मुसलमान भी व्‍यवहार में प्रादेशिक बोलियों का उपयोग करते हैं, जिसमें उर्दू की गति (चलन) नहीं।
    इस प्रकार हिंदी ही एक ऐसी मध्‍यस्‍था भाषा है, जो एक और सभी आर्य भाषाओं की बीच की भाषा है।”======
    डॉ. मधुसूदन उवाच का निष्कर्ष :
    1. हिंदी को ‘अपनी राष्‍ट्र भाषा’ कहकर उल्‍लेख किया है।
    2. हिंदी को आर्य भाषाओं में बीच की भाषा माना है।
    3. संस्‍कृत प्रचुर हिंदी को ही सारे भारत में स्‍वीकृत कराने में न्‍यूनतम कठिनाइयाँ अपेक्षित हैं।
    ४. ऐसे कई शब्द हैं, जो गुजराती, मराठी, बंगला, तेलगु और अन्य प्रांतीय भाषाओमें प्रयुक्त होते हैं, पर हिंदीमें नहीं है।उनके उपयोगसे हिंदी समृद्ध और सर्वप्रिय हो सकती है। लेखकके पास ऐसे कई उदाहरण है, संक्षेपमे और क्या लिखें?
    (प्रचुर का अर्थ विपुलता है।)

  6. SANJAY JI ! urdu aur hindi wa kya baat hai, aisi mano sangam ho raha ho prayag me, lekin thairiye jaanab hindi aur urdu ki ladai me english fayada utha raha hai. JAI HIND !

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