महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग

8
1983

शंकर शरण

नोट : संपादकीय भूलवश लेखक का पुराना लेख प्रकाशित हो गया था। अब इसका अद्यतन पाठ यहां प्रस्‍तुत है। (सं. 19.10.2011)

जोसेफ लेलीवेल्ड की नई पुस्तक ‘ग्रेट सोलः महात्मा गाँधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ पर गुजरात में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। महाराष्ट्र में भी वही तैयारी शुरू हुई थी। पुस्तक में विवादास्पद प्रसंग सन् 1904-13 का है, जब गाँधीजी की दोस्ती हरमन कलेनबाख (1871-1945) से हुई। गाँधी और कलेनबाख एक-दूसरे को ‘अपर हाऊस’ और ‘लोअर हाऊस’ कहते थे। इसका कोई अर्थ स्पष्ट नहीं है। गाँधी ने अपने कमरे में मैंटलपीस पर केवल कलेनबाख की तस्वीर लगा रखी थी। उन्हें अत्यंत प्रेम-पूर्ण पत्र लिखते थे। ऐसे विविध तथ्यों के आधार पर लेलीवेल्ड ने विशिष्ट संबंध का अनुमान लगाया। यद्यपि कोई निश्चित बात नहीं कही। किन्तु यूरोपीय अखबारों में छपी चटखारे वाली समीक्षाओं के आधार पर ही पुस्तक प्रतिबंधित हो गई।

हालाँकि पुस्तक गाँधीजी के निजी जीवन पर केंद्रित नहीं। 425 पृष्ठ की पुस्तक में कलेनबाख-गाँधी संबंध पर बमुश्किल बारह पृष्ठ हैं। पुस्तक का कैनवास बहुत बड़ा है। फिर, वयोवृद्ध लेलीवेल्ड एक गंभीर लेखक, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार, न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक, तथा भारत और दक्षिण अफ्रीका पर चार दशक से भी अधिक समय से लिखते-पढ़ते रहे हैं। इसीलिए ब्रिटिश विद्वान मेघनाद देसाई ने कहा कि इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध दिखाता है कि “भारत अभी राजनीतिक रूप से भीरू है जो कठिन प्रश्नों एवं आलोचनाओं का सामना करते की ताब नहीं रखता”।

यह टिप्पणी लेलीवेल्ड की बजाए भारतीयों को ही कठघरे में ला देती है। हमें देसाई की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए, और गाँधी-नेहरू की महानता के खुले मूल्यांकन के लिए तैयार होना चाहिए। उस से यदि कोई गढ़ी गई मूर्ति टूटती है, तो टूटे। पर कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति किसी क्षेत्र में महान हो सकता है, तो निजी जीवन में मोहग्रस्त और किसी क्षेत्र में गलत भी हो सकता है। गाँधीजी के बारे में असुविधाजनक सच कहना उनका निरादर नहीं है।

ऐसे सच की संख्या छोटी नहीं। यह केवल निजी दुर्बलताओं तक सीमित नहीं। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष रखने से लेकर राजनीतिक निर्णयों का ऐसे राग-द्वेष से प्रभावित होने; सत्य-अहिंसा पर दोहरे-तिहरे तथा अंतर्विरोधी मानदंड अपनाने; जब चाहे हजारों-लाखों दूसरे लोगों को मर जाने की सलाह दे डालने (जरा इस पर सोचिए!!); अनेक महापुरुषों के प्रति कटु भाषा का प्रयोग करने; अपने आश्रितों, अनुयायियों पर रोजमर्रा बातों में भी तरह-तरह की जबर्दस्ती करने; अपनी भूल स्वीकारने में भी कई बार अहंकार की गंध होने; भिन्न मत रखने वाले शक्तिशाली व्यक्तियों के प्रति नकली सम्मान दिखाने, जो शिष्टाचार से भिन्न चीज है; आदि कई विषय में सच गाँधी की छवि पर धब्बा लगाता है। ऐसी कई बातें गाँधी के सहयोगियों और दूसरे समकालीन महापुरुषों ने कही हैं। यह सब छिपाकर ही गाँधी की महात्मा छवि बनाई गई, जो सही नहीं। वह एक महान मानवतावादी थे, पर महात्मा नहीं।

काम-भावना की दुर्दम्य शक्ति ही लें। सत्तर वर्ष का कोई महापुरुष किसी कमसिन लड़की के साथ एकांत में ब्रह्मचर्य प्रयोग की इच्छा रखे, और ताउम्र रखे रहे, यह कैसी बात है? ऐसा प्रस्ताव पाकर कौन लड़की नहीं सहमेगी? (उन सभी तस्वीरों को ध्यान से देखें जिनमें गाँधी दो युवतियों के कंधों पर एक-एक हाथ रखे हुए चले आ रहे हैं। मुख-मुद्राएं हमेशा कुछ कहती हैं।) फिर, कौन अपनी लड़की के साथ ऐसे प्रयोग करने की अनुमति स्वेच्छा से देगा? क्या गाँधी के बेटों ने भी दिया था? ऐसे प्रश्नों का उत्तर अप्राप्य नहीं है। वास्तव में इन उत्तरों को दबा दिया गया है। कई तथ्य स्वयं गाँधी के लेखन में हैं, किन्तु उन्हें विचार के लिए रखने मात्र से आपत्ति की जाती है।

गाँधीजी ने किसी भारतीय गुरू से कोई धर्म-चिंतन, योग या दर्शन की शिक्षा नहीं ली। (गोखले को उन्होंने अपना गुरू कहा, मगर किस बात में, यह स्पष्ट नहीं। क्योंकि गोखले ने ही हिन्द स्वराज को हल्की, फूहड़ रचना कहा था। यदि गोखले वास्तव में गुरू होते, तो फिर उस पुस्तिका को फेंक देना या आमूल सुधारना जरूरी था। वह गाँधी ने नहीं किया।) गीता या रामायण की शिक्षाओं पर भी गाँधी ने अपने ही मत को सर्वोपरि माना। कुल मिला कर गाँधी के जाने-माने गुरू रस्किन या टॉल्सटॉय ही रहे हैं। किन्तु क्या गाँधी टॉल्सटॉय की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं? न केवल अहिंसा, बल्कि काम-भावना पर भी।

टॉल्सटॉय के दो उपन्यास ‘अन्ना कारेनिना तथा ‘पुनरुत्थान स्त्री-पुरुष संबंधों में असंयम, भटकाव तथा संबंधित सामाजिक समस्या से सीधे जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त तीन महत्वपूर्ण लघु-उपन्यास – ‘क्रूजर सोनाटा’ (1889), ‘द डेविल’ (1889), और ‘फादर सेर्जियस’ (1898)। तीनों ही स्त्री-पुरुष संबंधों में काम-ग्रस्तता और कामदेव की दुर्दम्य शक्ति पर लिखी गई है। टॉल्सटॉय की महानतम रचना ‘युद्ध और शांतिमें भी उसका प्रमुख नायक पियरे काम-भाव की शक्ति से डरता है। टॉल्सटॉय ने इस समस्या की जटिल, किन्तु यथार्थपरक प्रस्तुति की है। किन्तु ‘ब्रह्मचर्य’ पर गाँधी जितनी चिंता दिखाते रहे हैं, उसमें टॉल्सटॉय की झलक नगण्य है।

ब्रह्मचर्य का गाँधी ने जो अर्थ किया, वह भारतीय ज्ञान-परंपरा से भी पूर्णतः भिन्न है। किसी का आजीवन ब्रह्मचारी रहना, अथवा किसी गृहस्थ का ब्रह्मचारी होना, जैसी बातें भारतीय परंपरा में नहीं हैं। फिर, गाँधी प्रत्येक व्यक्ति को गुण-भाव-प्रवृत्ति में समान मान कर चलते हैं। मानो सबको एक जैसा अस्त्र-शस्त्र वितृष्ण या ब्रह्मचारी बनाया जा सकता हो। यह समझ हिन्दू ज्ञान से एकदम दूर है। भारतीय योग-चिंतन किसी में उस के गुणों, प्रवृत्तियों को देख-पहचान कर ही उस के लिए उपयुक्त शिक्षा की अनुशंसा करता है। ब्रह्मचर्य के लिए भी योग-चिंतन भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न प्रावधान करता है। कुछ व्यक्तियों में काम-भावना निष्क्रिय होती है, दूसरों में सक्रिय। सच्चे योगी पहले प्रकार के व्यक्ति को सीधे ब्रह्मचर्य में दीक्षित कर उचित चर्या में लेंगे, जबकि दूसरे को विवाह कर उस की सक्रिय काम-प्रवृत्ति को पहले सामान्य, संतुष्ट अवस्था तक पहुँचने की सलाह देंगे। सक्रिय काम-प्रवृत्ति वाले को उसी अवस्था में ब्रह्मचर्य में दीक्षित करने से वह दमित काम-भाव से ग्रस्त एक प्रकार के रोगी में बदलेगा। गाँधी के ब्रह्मचर्य संबंधी कथनों (उसे चिंतन कहना बेकार है) में इसे नजरअंदाज किया गया है। सेमेटिक अंदाज में वह सभी मनुष्यों को एक सा मानकर एक सी दवा करते हैं। उनका ब्रह्मचर्य संबंधी विविध लेखन पढ़कर तो संदेह होता है कि सन् 1906 में गाँधी द्वारा ‘ब्रह्मचर्य व्रत’ लिया जाना स्वयं उन की ही प्रवृत्ति के लिए अनुपयुक्त था। ब्रह्मचर्य लेने के बाद भी वर्षों, दशकों, बल्कि जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्य की ‘जाँच’ करते रहने के प्रयोग की कैफियत क्या है?

यदि निरादर के नाम पर तथ्यों, विश्लेषणों को प्रतिबंधित करना पड़े तब गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी द्वारा लिखित मोहनदास  (2007) पर भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए। इसमें सरलादेवी चौधरानी और गाँधीजी के प्रेम-संबंध बनने से लेकर टूटने तक वर्षों की कहानी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी विवाहिता थीं, जब गाँधीजी उन पर लट्टू हो गए। यह 1919-20 की बात है, जब गाँधी लाहौर में सरलादेवी के घर पर टिके। उस समय उनके पति कांग्रेस नेता रामभज दत्त जेल में थे। गाँधी और सरलादेवी अनेक जगह साथ-साथ गए। बाद में गाँधी ने उन्हें रस में पगे पत्र लिखे। राजमोहन के अनुसार गाँधी के उस प्रेम में ‘हल्का कामुक’ भाव भी था। राजमोहन ने यह भी लिखा है कि वह काल गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा के लिए अत्यंत यंत्रणा भरा था। जब गाँधी-सरलादेवी सम्बन्ध पर चारो तरफ से ऊँगलियाँ उठीं, तो गाँधीजी ने इसे सरलादेवी के साथ अपना ‘आध्यात्मिक विवाह’ बताया जिसमें “दो स्त्री पुरूष के बीच ऐसी सहभागिता है जहाँ शरीरी तत्व का कोई स्थान न था”। हालाँकि ‘विवाह’ शब्द ही चुगली कर देता है कि गाँधीजी स्त्री-पुरुष के विशिष्ट संबंध में ही आसक्त हुए थे। स्वयं राजमोहन गाँधी ने भी ‘आध्यात्मिक विवाह’ जैसे मुहावरे का अर्थ देने से छुट्टी ले ली है, यह कह कर कि “इस का जो भी अर्थ हो”।

अंततः, गाँधीजी पर दबाव डालकर सरलादेवी से संबंध तोड़ने में उनके बेटे देवदास, कस्तूरबा, सचिव महादेव भाई तथा सी. राजगोपालाचारी जैसे कई निकट सहयोगियों, आदि द्वारा किए गए समवेत प्रयास का योगदान था। वस्तुतः गाँधीजी के पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो सन् 1906 से लेकर जीवन के लगभग अंत तक, ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत धारण किए रखने और साथ ही साथ स्त्रियों, लड़कियों के साथ विविध प्रयोग करते रहने के प्रति उन की आसक्ति की कोई आसान व्याख्या नहीं हो सकती। यह गाँधीजी की भावनात्मक दुर्बलता का ही संकेत अधिक करती है। अप्रैल-जून 1938 के बीच प्यारेलाल, सुशीला नायर, मीरा बेन, और अनेक लोगों को लिखे अपने दर्जनों पत्रों और नोट में गाँधी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। बल्कि कई बार ऐसे शब्दों में स्वीकार किया है कि भक्त गाँधीवादियों को धक्का लग सकता है।

राजमोहन गाँधी की पुस्तक उन्हीं कारणों से चर्चित हुई थी। उस में गाँधी एक क्रूर, तानाशाह पति, लापरवाह पिता, मनमानी करने वाले आश्रम-प्रमुख, और विवाहेतर प्रेम-संबंधों में पड़ने वाले व्यक्ति के रूप में भी दिखाए गए हैं। गाँधी कभी भरपूर कामुकता से पत्नी के साथ व्यवहार करते थे, तो कभी एकतरफा रूप से शारीरिक-संबंध विहीन दांपत्य रखते थे। कभी दूसरी स्त्रियों के प्रति गहन राग प्रदर्शित करते थे। अथवा कुँवारी लड़कियों के साथ अपने कथित ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करने लगते थे। यह सब जीवन-पर्यंत चला। गाँधीजी के निकट सहयोगी और विद्वान राजगोपालाचारी ने कहा भी था कि, “अब कहा जाता है कि गाँधी ऐसे जन्मजात पवित्र थे कि उनमें ब्रह्मचर्य के प्रति सहज झुकाव था। पर वास्तव में वह काम-भाव से बहुत उलझे हुए थे।”

इसीलिए, राजमोहन ने भी यही कहा था कि वह गाँधीजी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किसी महात्मा जैसा नहीं। अर्थात्, ‘मोहनदास’ में भी मानवोचित कमजोरियाँ थीं। वस्तुतः मीरा बेन ने तो इतने कठोर शब्दों में गाँधीजी की लड़कियों को निकट रखने, उनसे शरीर की मालिश करवाने जैसी विविध अंतरंग सेवाए लेने, और अन्य आसक्ति की भर्त्सना की, बार-बार की, उन्हें बरजा, कि गाँधीजी को तरह-तरह से सफाई देनी पड़ी। मगर गाँधी ने मीरा बेन, आश्रमवासियों और अन्य की सलाह नहीं मानी। यह कहकर कि जो काम वे पिछले चालीस वर्ष से कर रहे हैं, वह करते रहेंगे, क्योंकि ‘जरूर यही ईश्वर की इच्छा होगी, तभी तो वह इतने सालों से यह कर रहे’ हैं! इससे अधिक विचित्र तर्क, या कुतर्क नहीं हो सकता। यद्यपि यह कथन भी पूर्ण सत्य नहीं है। गाँधी की आत्मकथा 1926 में लिखी गई थी। उस में ऐसी आदतों की कोई चर्चा नहीं है, जिसे 1938 में गाँधी ‘चालीस साल पुरानी’ बताकर अपना बचाव करते हैं।

निस्संदेह, सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए यह रोचक विषय है। गाँधी जी की काम-भावना संबंधी दिलचस्पी पर अनेक विद्वानों ने लिखा है। जैसे, निर्मल कुमार बोस (माइ डेज विद गाँधी, 1953, अब ओरिएंट लॉगमैन द्वारा प्रकाशित), एरिक एरिकसन (गाँधीज ट्रुथ, डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन, 1969), लैपियर और कॉलिन्स (फ्रीडम एट मिडनाइट, साइमन एंड शूस्टर, 1975), वेद मेहता (महात्मा गाँधी एंड हिज एपोस्टल्स, वाइकिंग, 1976), सुधीर कक्कड़  (मीरा एंड द महात्मा, पेंग्विन, 2004), जैड एडम्स (गाँधीः नेकेड एम्बीशन, क्वेरकस, 2010) आदि। इन लेखकों में एरिकसन, लैपियर-कॉलिन्स, बोस, मेहता तथा कक्कड़ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान रहे हैं। इन में से किसी को दूर से भी सनसनी-खेज, बाजारू या क्षुद्र लेखक नहीं कहा जा सकता।

गाँधीजी के उन प्रयोगों के सिलसिले में सरलादेवी ही नहीं, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर, सुचेता कृपलानी, प्रभावती, अमतुस सलाम, लीलावती, मनु, आभा, आदि कई नाम आते हैं। लड़कियों और स्त्रियों के समक्ष गाँधी आकर्षक रूप में आते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार करते थे। जैसे, बिना एक-दूसरे को छुए निर्वस्त्र होकर साथ सोना या नहाना। घोषित रूप से कभी इस का उद्देश्य होता था ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ तो कभी ‘ब्रह्मचर्य-शक्ति बढ़ाने’ का प्रयास। सुशीला नायर के अनुसार पहले तो ऐसे सभी कार्यों को प्राकृतिक चिकित्सा ही कहा जाता था। जब आश्रम में आवाजें उठने लगीं तो ब्रह्मचर्य प्रयोग कहकर आलोचनाओं को शांत किया गया। हालाँकि, नायर ने उन प्रयोगों में कुछ गलत नहीं कहा है। इन्ही रूपों में 77 वर्ष के गाँधीजी अपनी दूर के रिश्ते की 17 वर्षीया पौत्री को नग्न होकर अपने साथ सोने के लिए तैयार करते थे। इन बातों पर उनकी दलीलें प्रायः विचित्र और अंतर्विरोधी भी होती थीं। ऐसे प्रसंगों में गाँधी को एक ही समय अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग दलीलें देते पाया जा सकता है। इसीलिए इन सब बातों का संपूर्ण विवरण रखकर उनकी कोई ऐसी व्याख्या देना संभव नहीं, जिससे महात्मा की छवि यथावत् रह सके।

अपनी आत्मकथा (1925) में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर दो अध्याय लिखे हैं। अन्य अध्यायो में भी इस विषय को जहाँ-तहाँ स्थान दिया। इसी में यह सूचना है कि 1906 ई. में ही गाँधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था, और बहुत विचार-विमर्श के बाद लिया गया था। विचित्र यह कि इस विमर्श में पत्नी को शामिल नहीं किया गया! फिर, वहीं यह भी लिखा है कि ‘जननेन्द्रिय’ पर संपूर्ण नियंत्रण करने में ‘आज भी’ कठिनाई होती है। यह ब्रह्मचर्य व्रत लेने के बीस वर्ष बाद, और 56 वर्ष की आयु में लिखा गया था।

फिर जून 1938 में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर एक लेख लिखा था। इसे उनके अनुयायियों ने दबाव डाल कर छपने नहीं दिया। उसमें 7 अप्रैल को देखा गया ‘खराब स्वप्न’ तथा ‘14 अप्रैल की घटना’, जब गाँधी का अनचाहे वीर्य-स्खलन हो गया था, इन घटनाओं पर गाँधी बहुत हाय-तौबा मचाते हैं। दो महीने से अधिक समय तक अनेक लोगों को लिखे पत्रों में उस की चर्चा करते हैं। विशेषकर महिला मित्रों और सहयोगियों को, जैसे राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नायर, मीरा बेन, आदि। उनसे अपने तौर-तरीके में ‘परिवर्तन’ पर विचार करते हैं, सुझाव माँगते हैं। यह शंका भी व्यक्त करते हैं कि स्त्रियों के संसर्ग में रहने से ही तो वह घटनाएं नहीं हुईं? यहाँ तक कि कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार को न रोक पाने में भी अपनी यह ब्रह्मचर्य वाली कमी जोड़ते हैं, आदि आदि। रोचक बात यह है कि इतनी हाय-तौबा के बावजूद गाँधी अपने तौर-तरीकों में लेश-मात्र परिवर्तन नहीं करते। उन का स्त्रियों से अंतरंग सेवा लेने संबंधी व्यवहार या ब्रह्मचर्य-प्रयोग यथावत् रहा।

ऐसा चिंतन और व्यवहार निस्संदेह विचित्र था। गाँधी के सहयोगियों ने उस लेख को छपने से रोका, तो कहना चाहिए कि उनका विवेक गाँधी से अधिक जाग्रत था। जैड एडम्स के अनुसार गाँधी के देहांत के बाद उनके द्वारा लिखे ऐसे कई पत्रों को नष्ट कर दिया गया, जिस में ब्रह्यचर्य संबंधी उनके अपने तथा संबंधित व्यक्तियों के कार्यों, निर्देशों की चर्चा थी। स्वयं गाँधी ने इन प्रसंगों से संबंधित कई पत्र उसी समय नष्ट किए, करवाए थे। प्रख्यात विद्वान धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक ‘गाँधी को समझें में लिखा है कि वह 1938 वाला लेख अब नष्ट हो चुका है। धर्मपाल ने वर्धा आश्रम में किसी आश्रमवासी की पुस्तिका से उस की नकल उतार ली थी, जिस का लंबा उद्धरण अपनी पुस्तक में दिया है। दिलचस्प यह कि ब्रह्मचर्य पर गाँधी का बचाव करते हुए, उसकी ‘सही और विस्तृत व्याख्या’ की जरूरत बताकर भी, स्वयं धर्मपाल ने उस की कोई व्याख्या नहीं दी।

गाँधीजी के अनेकानेक प्रसंगों से स्पष्ट है कि काम-भाव संबंधी विचारों से वे आजीवन ग्रस्त और त्रस्त रहे। इस का सबसे दारुण प्रमाण यह है कि सन् 1938 में अपनी दुर्बलता पर क्षोभ, टिप्पणी या शंका करने के बाद भी वह वही ‘प्रयोग’ करते रहे। यानी ब्रह्मचर्य लेने के चालीस वर्ष बाद भी काम-भाव संबंधी विषय उनके मानस से ही नहीं, बल्कि सक्रिय गतिविधियों से बाहर नहीं हो सके थे। अजीब यह भी है कि ब्रह्मचर्य जैसे प्रयोग गाँधीजी ने सबसे प्रियतम व्रत अहिंसा के संबंध में कभी नहीं किए! हिंसक व्यक्तियों, विचारधाराओं, संगठनों पर अहिंसा की शक्ति आजमाने की कोई व्यवस्थित जाँच गाँधी ने कभी की हो, ऐसा कुछ नहीं मिलता। अहिंसा पर गाँधी प्रायः घोषणाएं करते, फतवे देते ही पाए जाते हैं। जैसा लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य का करते थे, किसी हिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का नाजुक प्रयोग करते गाँधी का उदाहरण नहीं मिलता। इन सभी विन्दुओं को रफा-दफा करना, या कोई मासूम-सी व्याख्या देकर असुविधाजनक सवालों को किनारे कर देना उचित नहीं है।

वैसे भी, क्या महापुरुषों द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों, विचारों आदि की केवल एक ही व्याख्या होनी चाहिए? गाँधीजी द्वारा किन्हीं अल्पवयस्क लड़कियों को अपने ब्रह्मचर्य प्रयोगों का साधन बनाना कहाँ तक उचित था? क्या उसके लिए वह लड़कियाँ और उनके परिवार के लोग सहज तैयार होते थे? क्या ऐसी बातों पर टिप्पणियों, प्रश्नों और तथ्यों तक को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए? यदि वही करना हो, तब स्वयं गाँधीजी के लेखन के कई अंश हटाने-छिपाने होंगे। जैसा किसी ने कहा, “यदि ‘गाँधी और सेक्स’ जैसे विषय पर लिखी बातों को प्रतिबंधित करना हो तब तो बड़ी मात्रा में गाँधी के अपने लेखन को, जो भारत सरकार द्वारा ही छापी गई है, भी जाना होगा।”

उस अंदाज में तो पामेला एंडरसन की पुस्तक ‘इंडिया रिमेम्बर्डः ए पर्सनल एकाऊंट ऑफ द माऊंटबेटंस डयूरिंग द ट्रांसफर ऑफ पावर’ (2007) पर भी प्रतिबन्ध लगना था। जिस में लेखिका ने अपनी माता एडविना माऊंटबेटन के जवाहरलाल नेहरू के साथ प्रेम संबंधों के संदर्भ में लिखा है कि उस प्रभाव में नेहरू द्वारा कई राजनीतिक निर्णय लिए गए। इस कार्य में लॉर्ड माऊंटबेटन द्वारा जान-बूझ कर एडविना का उपयोग किए जाने की भी चर्चा है। पामेला के शब्दों में, “If things were particularly tricky my father would say to my mother, ‘Do try to get Jawaharlal to see that this is terribly important…'”। कुछ यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी लिखी थी कि नेहरू द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने में एडविना का प्रभाव उत्तरदायी था।

पामेला लिखती हैं कि नेहरू और एडविना एक-दूसरे पर बेतरह अनुरक्त थे। यहाँ तक कि दोनों के बीच एकांत में वे पामेला की उपस्थिति को भी पसंद नहीं करते थे। यद्यपि पामेला ने दोनों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बताया, किन्तु रेखांकित किया है कि इससे उन दोनों के बीच संबंधों की शक्ति को कम करके नहीं देखना चाहिए। यह जीवन पर्यंत चला। नेहरू 1957 में एडविना को एक पत्र में लिखते हैं, “मैंने यकायक महसूस किया और संभवतः तुमने भी किया हो कि हम दोनों के बीच कोई अदम्य शक्ति है, जिससे मैं पहले कम ही अवगत था, जिसने हमें एक-दूसरे के करीब लाया।” एडविना के देहांत (1960) के बाद उन के सिरहाने नेहरू के पत्रों का बंडल मिला था। उन की अंत्येष्टि में नेहरूजी ने सम्मान स्वरूप भारतीय नौसेना का एक फ्रिगेट जहाज भेजा था।

वस्तुतः स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में एकदम आरंभ से ही एक देवतुल्य छवि देने की गलत परंपरा बनाई गई है। गाँधीजी की हत्या के कारण देश को लगे धक्के से ऐसा करना बड़ा आसान हो गया। उस से पहले तक गाँधीजी, और उनके विविध राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, निजी कार्यों के प्रति आलोचना के तीखे स्वर प्रायः खुलकर सुने जाते थे। यह स्वर उनके निकट सहयोगियों से लेकर बड़े-बड़े मनीषियों के थे। गाँधीजी की हत्या से उपजी सहानुभूति में इन स्वरों का अनायास लोप हो गया। उस वातावरण का लाभ उठाकर व्यवस्थित प्रचार और बौद्धिक कारसाजी ने आने वाली पीढियों के लिए गाँधी-नेहरू की एक रेडीमेड छवि बनाई। कुछ-कुछ सोवियत दौर के पूर्वार्द्ध वाले ‘लेनिन-स्तालिन’ जैसी। सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व ने इस का अपने हित में कई तरह से राजनीतिक उपयोग भी किया।

यह प्रमुख कारण है कि कि स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में तथ्यों, विवरणों, प्रसंगों की अघोषित सेंसरशिप चलती रही है। जो भी बात उन की छवि पर बट्टा लगा सकती हो, उसे प्रतिबंधित या वैसा लिखने-बोलने वाले को लांछित किया जाता है। इस के पीछे सीधे-सीधे राजनीतिक उद्देश्य रहे हैं, जो देश की नई पीढियों के शैक्षिक, बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुआ है।

(यह निबंध लेखक की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘गाँधी और ब्रह्मचर्य’ का एक अंश है)

8 COMMENTS

  1. काफ्का ने कहा है कि मेरी आत्मकथा पढने के बाद आप सोचेंगे कि काफ्का संसार का सबसे बुरा आदमी था पर विश्वास कीजिये मुझ से भी बहुत बुरे लोग इस दुनिया में हैं पर उनमें अपने बारे में सच कहने का साहस नहीं है। गान्धी के महात्मा होने के लिए इतना भर काफी है कि वे सच बोलते थे और सच में ही जीते थे।
    कुछ लोगों को उनके दुश्मनों से भी पहचानना चाहिए, गान्धी के महान होने के लिए यही सबूत काफी है कि उनकी हत्या करने वाली शक्तियां कौन थीं और भी उन हत्यारों का गुजरात आदि में क्या चरित्र देखने को मिलता है।

    • वीरेन्द्र जैन की टिप्पणी का दूसरा पैराग्राफ अनर्गल है, जिसका लेख के कथ्य से कोई संबंध नहीं। दूसरे, ‘गाँधी के दुश्मन’, ‘गाँधी के हत्यारे’ जैसी पदावलियों से किसी लेखक को धमकाना कौन सी भलमानसाहत है! गाँधी के दोषपूर्ण विचारों और अनुचित कामों पर २९ जनवरी १९४८ तक जितनी कठोर टीका-टिप्पणी की गई, उनमें असंख्य बड़े-बड़े मनीषियों और स्वयं गाँधी के निकट जनों, परिवारजनों की गुरू-गंभीर टिप्पणियाँ भी हैं। बल्कि वही सबसे कठोर हैं। तब क्या शरतचंद्र, देवदास गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजगोपालाचारी, मीरा बेन, बिनोबा भावे, जैसे आलोचकों को गाँधी का दुश्मन और हत्यारों से जोड़ देने से आपका काम चल जाएगा, श्री वीरेन्द्र जैन?
      फिर, ‘गुजरात आदि’ में किन्हीं ‘शक्तियों’ का चरित्र ढूँढने के प्रति आपकी दृष्टि भैंगी लगती है। अन्यथा आपको कश्मीर आदि, पंजाब आदि, बंगाल आदि, बामियान आदि, मराड आदि, गोधरा आदि, अक्षरधाम-रघुनाथमंदिर-संकटमोचन-अयोध्या-मुंबई-संसद-दिल्लीहाईकोर्ट आदि असंख्य जगहों पर किए गए लोमहर्षक कांड रचने वाले, रचते रहने वाली ‘शक्तियों’ के चरित्र पर भी कभी विचार करना चाहिए था। कभी किसी लेख से उनकी भी याद करनी चाहिए थी। ऐसी शक्तियों के कारनामों की संख्या, मात्रा, आवधिकता, अनुक्रम, प्रमाण, क्षेत्र आदि आदि का कोई अनुपात बोध आपको होना चाहिए। अब आप हाई स्कूल से निकले सहजविश्वासी भोले किशोर नहीं जो कॉलेज पहुँचते ही किसी राजनीतिक प्रचारक की एकतरफा, भावुक पर अतिरंजित या झूठी बातों को पी लें और फिर उसी का एकनिष्ठ वमन करने लगें।

  2. गाँधी हमेशा कांग्रेस के दबाव में रहे ,इस ‘ब्रह्मचर्य’ की कहानी से स्पष्ट होता है की ,नेहरु और गाँधी ने मिलकर बुडापे की जवानी के मजे साथ साथ लुटे ….और न चाहते हुए भी कांग्रेस की अंग्रेजी नीतियों का समर्थन करना पडा ….नतीजा देश के टुकड़े हुए….अंग्रेजो ने भी उनकी जवान लडकियों को गांधी के ‘ब्रह्मचर्य’ के प्रयोगों के लिए उपलब्ध कराया होगा …..नतीजा कांग्रेस भ्रष्ट हो गई….और देश पर अंग्रेजी भाषा,सामान,संस्कृति को देश पर थोप दिया गया….नतीजा आने वाली पीडी को कांग्रेस ने विदेशी पाश्चात्य नंगी संस्कृति का गुलाम बना दिया ….१९४७ से पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार करने आई थी…आज ६५ वर्षो में कांग्रेस ने हजारो ईस्ट इंडिया कंपनीयो को व्यापार के लिए बुला लिया है …. जो गाँधी के ‘ब्रह्मचर्य’ के प्रयोगों की कीमत है …जिसका भुगतान देश की गरीब जनता आज तक कर रही है….मेकाले का दिया मंत्र सफल सिद्ध हुआ है…..****************************************************आपको सारा षड़यंत्र समझ मे आएगा भारत की दुर्दशा का की कांग्रेस के नाजायज़ बाप अंग्रेज मैकॉले ने क्या कहा था, यह भी समझ मे आएगा की लोग विदेशी कंपनियों के तलवे क्यों चाटते है क्यों उनके सामान,भाषा,संस्कृति को दुनिया मे सबसे बेहतर मानते है यह एक मानसिकता है … देखिये 2 फरवरी 1835 को मैकॉले ने ब्रिटिश संसद को क्या संबोधित किया था? ये वो बयान है जो ब्रिटिश संसदके रेकॉर्ड्स में आज भी उपलब्ध है….
    “मैंने पूरे भारत की यात्रा की मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो भिखारी, चोर या बेईमान हो इस देश मे इतनी समृद्धि इतने ऊंचे जीवन मूल्य, इतने गुणवान लोग मैंने देखे की मैं नहीं सोचता की जब तक हम इस देश की रीढ़ इस देश की आध्यात्मिकता, इसकी संस्कृति को तोड़ नहीं देते कभी इस देश को जीत न पाएंगे इसलिए मैं प्रस्ताव देता हूँ की हम इसकी प्राचीन शिक्षा पद्धति और संस्कृति को विस्थापित करें ताकि जब भारतीय यह सोचने लगे की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह उनसे श्रेष्ट है, तभी वे अपना आत्मसम्मान, स्वाभिमान और संस्कृति खो देंगे, और हम जैसा चाहते है वैसे ही हो जाएँगे पूरी तरह से भारत हमारा गुलाम हो जाएगा ! ”
    सरकारी व्यापार भ्रष्टाचार

  3. गांधीजी अंग्रेजों केदुसमन थे या दोस्त ?उन्होंने कभीभी भारतकी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं की ! इसीलिए वह महात्मा हो गए /इतिहास साक्षी है जब भारत के टुकड़े किये बहुतसे गंदे खून नालियौं में बहा ये गये करोड़ों घरबार बिहीन हुए नारियौं की अश्मिता खुलकर लूटी गई,अनगिनत निर्बोध बच्चे भी शहीद हुए फिरभी हम गर्बसे कह तेहैकहीं कुछ हुवाहिनहि

  4. शंकर शरण जी आपने महात्मा गांधी का विभिन्न उद्धरणों द्वारा सही ढंग से मूल्यांकन का प्रयत्न किया है और सच्च पूछिए तो आपका विश्लेषण हमारी संकुचित मानसिकता पर प्रहार करता है.हमारी पाखंड को ढोने वाली मानसिकता किसी भी सत्य को आसानी से बाहर आने नहीं देना चाहती पता नहीं मनुष्य को भगवान् बना देने में हमें क्या मिलता हैकि हम अक्सर वैसा कर बैठते हैं और कोई भी उस मानसिकता से अलग हट कर अगर सत्य को सामने लाना चाहता है तो पहले तो उसके विरुद्ध शाम,दाम,दंड भेद सबका प्रयोग करके उसकी आवाज को दबा देतें हैं,जैसा की किसी भी पुस्तक पर बैन लगा कर किया जाता या फिर उसके विरुद्ध एक माहौल बनाने का प्रयत्न किया जाता है.फतवे भी जारी किये जाते हैं.ऐसे भी सत्य को बर्दाश्त करना आसान नहीं होता.वह तब और कठिन हो जाता है जब उससे हमारा मोहभंग होता है मात्मा गांधी की महानता से तो बहुतों का स्वार्थ भी जुड़ा हुआ है,अतः उनकी महानता के प्रति जो प्रचलित धारणा है उसके विरुद्ध कुछ भी कहना या लिखना आसान नहीं है.फिर भी अब धीरे धीरे ही सही इन महापुरुषों का सही मूल्यांकन होने लगा है.

  5. बात तो काफी सटीक एव तथ्यपूर्ण हैं। पर इससे अब हासिल क्या होगा श्रीमान, यह तो सच है कि गांघी नेहरु की छवि गढ़ी गई हैं और आज भी सारा का सारा मीडिया उन्हीं की चमचागीरी ही करता है न कि निष्पक्ष विश्लेषण, वही आज राहुल और सोनिया जी के लिए हो रहा है , बढ़ेरा जी के कारनामों की कोई चर्चा नहीं है,इस सब में क्योंकि कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिला है इसलिए यह शुरु हुआ और आजजारी है और रहेगा भी, क्योकि इसी से सभी के स्वार्थ सधते है।
    आप जैसे सुधी विद्वानों के लेखों में ही कहीं कहीं कोई लीक से हटकर विचार आता है वर्ना तो सब स्तुतियां ही करते नजर आते हैं । पिछले दिनों हमारे संस्थान मे विद्यार्थियों ने एक वाद विवाद प्रतियोगिता रखी कि क्या भारतीय स्वतंत्रता में गांधी से ज्यादा हिटलर का अधिक प्रभाव था- ऐसे ऐसे अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए कि मुझे अपने सारे मोह और ज्ञान के बावजूद भी यह मानना पड़ा कि हां हिटलर का प्रभाव ज्यादा प्रभावी था- असल में हम मोहग्रस्त देश हैं – अपना गंदगी, विचार मूढ़ता, गरीबी, पाप पुण्य दंभ नौंटकी घर्म अधर्म सबसे हमें एक अजीब तरह का मोह है- और उस नींद से हम बाहर आने में ही कतराते हैं – मूढ़ता को ही महिमामंडित करते रहते है- इस लिए चिंतन परंपरा खत्म सी होती जा रही है- और कायर क्या साहित्य या समाज बना सकते हैं यह हमारे सामने है । सादर

  6. भारत एक धार्मिक -आध्यात्मिक देश रहा है, जहाँ किसी चमत्कारी या अवतारी शक्तिमें जनमानस को संगठित करने की स्वाभाविक शक्ति निहित रही है. भारतीय जनमानस की इस दुर्बल मानसिकता का लाभ भारतीय अवसरवादियों ने सदा उठाया है. स्वतंत्रता आन्दोलन के समय भी दुर्बल होती कांग्रेस के भविष्य के प्रति स्वयं गांधी भी चिंतित थे ..अंततः उन्हें यह घोषणा करनी पडी की आज़ादी के बाद कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए. किन्तु स्वतंतत्र भारत के अवसरवादी नेताओं को ऐसा करना अपने भविष्य पर खतरे को आमंत्रित करना लगा जो उन्हें किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं था. अपनी साख खोती कांग्रेस को किसी चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में गांधी और उसके बाद नेहरू (और अब सोनिया ) की सख्त आवश्यकता थी. समय की मांग के अनुरूप अवसरवादी लोगों ने चमत्कारी व्यक्तित्व गढ़े…..यह परम्परा आज भी कायम है. गांधी की ह्त्या ने उन्हें तत्कालीन विवादों से ऊपर उठाकर अनायास ही महान या अवतारी व्यक्ति की श्रेणी में लाकर खडा कर दिया. गांधी यदि स्वाभाविक मौत मरते तो शायद कांग्रेस उनकी ऐसी छवि इतनी आसानी से नहीं बना पाती. कांग्रेस को नाथूराम का कृतज्ञ होना चाहिए जिसने उनका अवसरवादी लक्ष्य आसान कर दिया.
    गांधी के काम संबंधी प्रयोग अनोखे रहे हैं. चूंकि वे महान थे इसलिए उनका सब कुछ महान था…१७ वर्ष की कुमारी कन्या, जिसे हम भारतीय ‘शक्ति’ का अवतार मानकर पूजते रहने के अभ्यस्त हैं, को निर्वस्त्र हो कर अपने साथ सोने के लिए तैयार कर लेना भी महान था , नित्य शौच जाना भी महान था, बकरी को अंगूर खिलाना भी महान था….उनके महान कार्यों की सूची अनंत है. दुःख यही है कि उनके पुत्र उनकी इस महानता को समझ नहीं पाए……और उनकी पारिवारिक तानाशाही में छिपे अहिंसा के तत्व को अपने जीवन में शामिल नहीं कर पाए.
    जब हम ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोगों की बात करते हैं तो एक आकर्षक लोक में अनायास ही पहुँच जाते हैं. प्रयोग का उद्देश्य, सिद्धांत, उपकरण, विधि, विश्लेषण और फिर उसका परिणाम सब कुछ किसी भी अनुसंधानकर्ता के लिए परीलोक की सैर जैसा लगने लगता है. तब प्रयोगकर्ता के लिए कितना आकर्षक रहा होगा यह सब ….सहज अनुमान लगाया जा सकता है.
    हमारे देश में ब्रह्मचर्य के लिए साधना की गयी है पर कभी इस तरह के प्रयोग नहीं किये गए जिसमें उपकरणों के रूप में जीवित मनुष्य का उपयोग किया जाय. उपकरण को प्रयोगकर्त्ता की आवश्यकता के अनुरूप स्तेमाल होना होता है, उसका अपना चैतन्य अस्तित्व नहीं रह जाता…..साधन के रूप में उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती ….वह मात्र साधन भर होता है.
    यह कहा जा सकता है कि इस प्रयोग में साधन भी चूंकि जीवित प्राणी है अतः यह प्रयोग दोनों पक्षों से दोनों पक्षों के लिए है.गांधी प्रयोगकर्त्ता होकर साधन के रूप में कुमारी लड़कियों का और साथ ही कुमारी लड़कियाँ प्रयोगकर्त्ता होकर साधन के रूप में गांधी का स्तेमाल करती थीं. दोनों और से एक दूसरे पर प्रयोग चलते रहे. पर एक मौलिक बात यह है कि हर प्रयोग सफल हो यह आवश्यक नहीं….हर प्रयोगकर्ता अपने लक्ष्य तक पहुंचे यह भी आवश्यक नहीं. गांधी वय और वैचारिक रूप से लड़कियों की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ एवं अनुभवी थे…..हो सकता है कि गांधी अपने प्रयोगों में सफल रहे हों पर उन लड़कियों का क्या जो इतनी अनुभवी नहीं थीं ? क्या लड़कियाँ भी ब्रह्मचर्य के इस प्रयोग में सफल रही होंगी ? यह प्रश्न इसलिए उठना स्वाभाविक है क्योंकि यह अनोखा प्रयोग केवल दैहिक स्तर पर ही नहीं अपितु मानसिक स्तर पर भी अपने अनिवार्य परिणाम देने वाला था. यदि गांधी को एक अवतारी पुरुष मान लिया जाय तो उनके लिए यह सब “लीला” होने के कारण साधारण सी बात है ….वे अपने प्रयोग में शत-प्रतिशत सफल भी हुए होंगे पर लड़कियाँ तो निश्चित ही अवतारी नहीं थीं …इन प्रयोगों में लड़कियों के मनो-दैहिक परिणामों का आकलन किसने किया ? यदि नहीं किया तो क्यों नहीं किया ? इस स्तर पर यह एक अत्यंत क्रूर प्रयोग कहा जा सकता है और किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार के प्रयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. कोई भी प्रयोग तब किया जाता है जब परिणाम सुनिश्चित न हो…..अवधारणा के प्रति शंका हो. निश्चित ही गांधी को अपने ब्रह्मचर्य के प्रति शंका थी जिसकी पुष्टि के लिए ऐसे अमानवीय प्रयोग मासूम लड़कियों पर किये गए. गांधी के व्यक्तिगत जीवन के बहुत से कार्य और निर्णय उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं.

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