लावारिश पशुओं से ज्यादा घातक हैं स्वच्छन्द विचरते आवारा आदमी

डॉ. दीपक आचार्य

आजकल हर कहीं आवारा या लावारिश मवेशियों की चर्चा होती है और इन पर प्रतिबंध की बातें अक्सर छायी रहने लगी हैं। एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस देश में कोई लावारिश नहीं है। जिस ईश्वर ने उसे धरा पर भेजा है वह उन सबका वारिस है। वही परमपिता सभी का है फिर चाहे वह आदमी हो या मवेशी या और कोई।

पाश्चात्य अप-संस्कृति में रमे रहने वाले लोगों को देश की संस्कृति और परम्पराओं से कुछ लेना-देना नहीं रह गया, और इसी वजह से ये लोग ऎसी उलूलजुलूल बातें करने लगे हैं। इन बेतुकी बातों के लिए इन्हें दोष देना व्यर्थ है क्योंकि असली दोष तो उन लोगों का है जो इन नासमझों में संस्कार नहीं भर पाए या उन्हें केवल मनोरंजन के लिए पैदा किया है।

आज आवारा मवेशियों से कई गुना ज्यादा ऎसे लोगों की होती जा रही है जो आवाराओं की तरह हरकतें करते रहने लगे हैं। इनके बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं करता क्योंकि ये लोग मूक पशु की तरह अभिव्यक्तिहीन नहीं हैं बल्कि घोर व त्वरित प्रतिक्रियावादी हैं और इस कारण से इनका व्यवहार ही ऎसा है कि ये सच का सामना नहीं कर पाते और उग्र तथा हिंसक हो उठते हैं। इसी वजह से लोग इन्हें आवारा मानते-समझते हुए भी कुछ कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

घोर संस्कारहीनता और लूट-खसोट की मनोवृत्ति इस कदर जड़ें जमा रही है कि अनुशासन, संस्कार, शालीनता, धैर्य और सहिष्णुता के सारे बीज समाप्त होते जा रहे हैं और जिसे जहाँ मौका मिलता है घुस आता है और बटोर कर ले जाता है जैसे कि यह सब उसका अपना माल हो। पुरुषार्थहीनता का ऎसा दौर हमारे देश में इससे पहले कभी नहीं देखा गया। इन लोेगों ने तो वृहन्नाओं तक को पीछे छोड़ दिया है।

अपने इलाकों में थोड़ा बारीकी से देखें तो अपने आप ऎसे-ऎसे चेहरे सामने आने लगते हैं जिनकी दिनचर्या और हरकतों को देख कर इन्हें आवारा कह देने से कोई गुरेज नहीं करना चाहेगा। आज चारों तरफ आवारा आदमियों की भरमार है। कोई छोटा आवारा है तो कोई बड़ा। कोई कच्चा तो कोई पक्का।

आवारा इस अर्थ में कि उनके जीवन में कहीं कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है और न कोई निश्चित समय है। इनका पूरा जीवन स्वच्छन्द और औरों के दिमाग पर चलता है। खुद के किसी कर्म के लिए कोई निश्चित समय नहीं होता।

इन्हें यह भी पता नहीं होता कि क्या करना है और किस तरह करना है। कभी ये भेड़ की तरह चुपचाप चलने लगेंगे, कभी मवेशियों की तरह कहीं भी कुण्डली जमा कर बैठ जाएंगे, कहीं भीड़ में शामिल होकर घण्टों जमे रहेंगे और कहीं बेवजह अपने भाषण झाड़ते रहेंगे।

जिनकी कोई दिनचर्या नहीं। सवेरे उठते ही नहाये-न नहाये निकल पड़ेंगे इधर-उधर और दिन भर मटरगश्ती करते हुए कभी किसी की दुकान पर, कभी किसी के घर के बाहर की पेढ़ी पर, कभी पान-गुटखों की दुकान पर और कभी और कहीं, बिना काम के बैठते रहकर समय गुजारते रहते हैं।

जो रास्ते में मिल गया, उसी से बतियाने लगे। खुद को पता ही नहीं है दिन में क्या करना है। जो साथ ले चले उसके साथ हो लिए और बेवजह, निरूद्देश्य भटकते रहें। कभी किसी दफ्तर में जाकर जम गए तो कभी किसी और प्रतिष्ठान में। बातें सुनने और करने की लत पाले हुए ये कहीं फोकट की चाय, पान, नाश्ता और गुटखा कबाड़ते रहते हैं।

इस भटकन को आवारगी नहीं तो और क्या कहा जाना चाहिए? ऎसे आवारा आदमियों के घर वाले सबसे ज्यादा दुःखी होते हैं। इन्हें इस बात का दुःख नहीं होता कि बाहर ये दिन भर कैसे-कैसे टाईमपास खोटे-सच्चे करम कर रहे हैं, बल्कि दुःख और गहन पीड़ा इस बात की होती है कि इन लोगों ने उनके ही घर में जनम क्यों लिया होगा?

जहाँ कहीं किसी भी व्यक्ति को बेवजह बैठा देखें, यह मानकर चलें कि उसके लिए समय का कोई मोल नहीं है और जो लोग समय को नहीं पहचानते उन्हें आवारा नहीं तो और क्या कहा जाए?

आवाराओं के लिए हर क्षेत्र उनके अपने होते हैं। वे कहीं भी विचरण कर सकते हैं। एक बार जब मनुष्य के जीवन में भटकाव शुरू हो जाता है फिर वह आदत का रूप ले लेता है और इसी से उसके भीतर आवारगी के बीजों का पल्लवन शुरू होने लगता है जो बाद में इन्हें आवारा आदमियों की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है।

अपने आस-पास भी आवारा आदमियों की कोई कमी नहीं है जिनके लिए दिन और रात पराये लोगों की इच्छा पर निर्भर हुआ करते हैं। आवारा आदमी हर क्षेत्र में और हर तरह के परिवारों में पैदा हो सकते हैं। हमारे यहाँ रोजाना दिखाई देने वाले चेहरों में सभी तरह के आवारा आदमी हैं जिनके लिए जाति-पांति, गरीबी-अमीरी और ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं है। फिर ऎसे आवारा लोगों का समूह भी जहाँ-तहाँ बन जाया करता है। आवाराओं में ड्रैस कोड़ वाले भी हैं और बिना ड्रैस कोड़ वाले भी।

समाज को सुधारना चाहें तो सबसे पहले इन आवारा आदमियों को सुधारना होगा तभी समाज और परिवेश के गलियारों से यह घातक बदबूदार प्रदूषण समाप्त होगा। आवारा मवेशी उतने खतरनाक नहीं हुआ करते जितने ये आवारा आदमी हुआ करते हैं।

ये लोग जब जुगाली करते रहते हैं तब इतना जहर उगलते हैं कि सामाजिक संस्कारों के आकाश की ओजोन परत अपने आप ध्वस्त होने लगती है। जहाँ कहीं बेवजह, निरूद्देश्य और पराये लाभों की ओर टकटकी लगाये किसी को देखें तो अपने आप समझ लें कि ये उन प्रजातियों में से हैं जिन्हें आवारा कहा जाना चाहिए। आवारा और कोई नहीं हुआ करता, वे ही लोग होते हैं जो सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करने की चर्चाओं में दिन-रात लगे रहते हैं।

1 COMMENT

  1. अच्छा लगा इसे पढ़कर आज आदमी ने जानवर का रूप ले लिया है भेधियों की तरह हर जगह घूम रहा है
    हमारे राजनेताओं को सायद इनकी जरूरत है लेकिन उनको इस बात का अंदाजा नहीं है की ये सबसे खतरनाक जानवर हैं
    आप इन्हें मरना चाहेंगे तो भी कुछ नहीं होगा ये आपके सर पर विराजमान होंगे
    ये कीड़ों की ररह चलते हैं शायद इन्हें अपने सिवा और कुछ नहीं दिखता
    इनको रोकना होगा वर्ना एक दिन ये हमारे लिए मुशिवत बन सकते हें इनका कोई धरम नहीं होता कोई जाती नहीं होती ये आपस मैं सशक्त होते है यह मैं भी हो सकता हु सिर्फ अपनी आदत मैं थोरा सुधर लाना होगा

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