उत्ताल ताल आकाश में आच्छादित है !

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(मधुगीति १९०८१९ बग्रसा)

उत्ताल ताल आकाश में आच्छादित है,

मधुर वायु अधर का स्पर्श लिये आई है;

अग्नि त्रिकोणीय आभा ले दीप्तिमान हुई है,

जल हर जलज की प्राण-प्रतिष्ठा में लगा है !

धरा पर सब उनके साये में धाये हैं,

अपने तन मन को आत्मयोग में डुबाये हैं;

बुद्धि की हर तरंग पै तरजे लरजे़ हैं,

ध्यान की हर सुर लहरी पै गाये हैं !

क्या वे आज यहाँ स्वयं आए हैं,

तन्त्र की तन्मयता में मन्त्र दिए हैं;

अपनी हृदय वीणा पर कोई राग लिये हैं,

सार्वभौमिक योग किये क्या वे दुलारे हैं !

सब विडम्बनाएँ क्या बिखर जाएँगी,

प्राणियों की यातनाएँ क्या लुप्त हो जावेंगी;

ज्ञान की गोदावरी क्या भक्ति भर देगी,

सरस्वती क्या विहँस कर बहेगी !

श्रंखलाएँ क्या टूट कर झट-पट सिमटेंगीं, 

मानसिकताएँ क्या जीवों का पिण्ड छोड़ेंगी;

‘मधु’ के प्रभु क्या हर सुहृद अवतरित हैं,

क्या विश्व वेणु पर वे कोई और तान छेड़े हैं ! 

✍? गोपाल बघेल ‘मधु

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