उत्तर प्रदेश चुनावों को भावनाओं की भेंट चढ़ाने की तैयारी

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तनवीर जाफ़री

एक दशक पूर्व तक भारतीय लोकतंत्र में होने वाले चुनावों में राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव पूर्व जारी किए जाने वाले चुनाव घोषणा पत्र पर मतदाताओं की नज़रें लगी रहती थीं। इन घोषणा पत्रों से मतदाताओं को यह पता चल जाता था कि उसने जनता से किन वादों, आश्वासनों और एजेंडे के नाम पर वोट मांगा है तथा कौन सी पार्टी चुनाव जीतने के बाद चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किए गए अपने किन-किन वादों पर अमल करेगी। अब ऐसा लगने लगा है कि आम जनता किसी पार्टी द्वारा चुनाव पूर्व जारी किए जाने वाले चुनावी घोषणा पत्र पर कान ही नहीं धरना चाहती।

दरअसल, इसकी सबसे खास वजह यही है कि राजनीतिक दल और नेता दोनों बखूबी समझ चुके हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के कामों से इतनी फुर्सत ही नहीं मिल पाती कि वे अपने वादों को पूरी तरह अथवा थोड़ा-बहुत निभा सकें। यही हाल मतदाताओं का भी है। आम मतदाता जनता है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र के नाम पर महज़ झूठे वादे-आश्वासन देते हैं।

इनका एजेंडा विकास, बेरोज़गारी दूर करना, शिक्षा या स्वास्थय की फ़िक्र करना अथवा सडक़-बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के साधन मुहैया कराना नहीं, बल्कि इनका इकलौता एजेंडा यही रहता है कि किसी तरह सत्ता पर कब्ज़ा जमाया जाए और भविष्य के लिए भी सत्ता पर अपने शिकंजे को ढीला न होने दिया जाए। सत्ता की आड़ में अपने परिजनों-रिश्तेदारों को सत्ता सुख का अधिक से अधिक लाभ पहुंचाया जाए। यह सब करते-करते जब फिर से चुनाव का समय आए तो उस समय फिर किसी विकासात्मक मुद्दों की बात करने के बजाए केवल जनभावनाओं के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की जाए।

जनभावनाओं से खिलवाड़ कर और उन्हें उकसाकर वोट ठगने का चलन वैसे तो पूरे देश में ही प्रचलित है। भारत जैसे विशाल देश में अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों के अलग-अलग तरह के मुद्दे हैं तथा नेताओं के पास उनकी भावनाओं को भडक़ाने के अलग-अलग फार्मूले भी हैं। राजनीतिक दलों को इस संबंध में सब कुछ पता है कि देश के किस राज्य, क्षेत्र, धर्म व समुदाय के लोगों से चुनावों के दौरान किस प्रकार की बातें करनी हैं ताकि मतदाता भावनात्मक रूप से उनके साथ जुड़ सकें।

उत्तर प्रदेश इस मामले में प्रमुख ऐसा राज्य है जहां लगभग हर चुनाव भावनाओं की बिसात पर संपन्न होते हैं। आमतौर पर धर्म, संप्रदाय, जाति, सवर्ण, दलित तथा अल्पसंख्यक को आधार बनाकर यहाँ चुनाव होते आ रहे हैं। कोई भी दल इन चुनावी फार्मूलों का अपनाने से परहेज़ नहीं करता। प्रदेश की वर्तमान सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक केवल समुदाय विशेष के लोगों की भावनाओं को भडक़ाने का ही काम किया और इस फार्मूले पर चलते हुए उसे ‘राजनीतिक सफलता मिल ही गई। वह आज भी ज़रूरत पडऩे पर बार-बार अपने इसी जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले हथकंडों का प्रयोग करने से नहीं चूकती।

उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकारी खर्च से सार्वजनिक स्थलों पर लगाई गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होने तक ढके जाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के इस फैसले में भी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने अपना हित तलाशने की कोशिश की और आयोग के इस फैसले को सीधे तौर पर दलितों के स्वाभिमान पर हमला बताने की कोशिश की। सोचने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश में अरबों रुपये खर्च कर इस प्रकार के स्मारक बनाने से आखिर दलित समुदाय के विकास या उनके स्वाभिमान का क्या लेना-देना हो सकता है?

मतदाताओं विशेषकर दलितों का इन बुतों से कोई वास्ता हो या न हो, मगर मूर्तियां ढके जाने के इस प्रकरण को लेकर मुट्ठीभर बसपा नेताओं को तो वास्ता ज़रूर नज़र आता है। यह वास्ता है दलित भावनाओं से खिलवाड़ करने, उन्हें उकसाने व भडक़ाने का। जिसकी वजह से भावनावश यह समाज एक बार फिर मायावती सरकार को सत्ता में वापस लाने का मौका दे सके।

इसी प्रकार पिछले दिनों बसपा नेता सतीश मिश्र ने एक चुनावी सभा के दौरान राहुल गांधी के उस प्रश्न पर आक्रमण किया है, जिसमें राहुल अक्सर उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार से यह पूछते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने अमुक योजनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को इतने पैसे भेजे वह पैसे कहां गए, क्या हुए? राहुल के इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने के बजाए मायावती के मुख्य सलाहकार सतीश मिश्र ने राहुल पर जवाबी हमला करते हुए उनसे पूछा कि वे यह बताएं कि वह पैसा क्या ‘इटली’ या जापान से आता है, आखिरकार वह पैसा भी तो हमारा ही पैसा है।

मिश्र के ‘इटली’ शब्द के प्रयोग का आशय आखिर क्या था? भारतीय राजस्व तथा वित्तीय व्यवस्था में धन का आबंटन भारतीय संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं के अनुरूप ही किया गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक राज्य, केंद्र सरकार को अपने-अपने हिस्से का धन देते हैं तथा आवश्यकता पडऩे पर वही धन जनता को राज्य के माध्यम से विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के लिए वापस किया जाता है। ऐसे में इटली या जापान से पैसे आने की बात कहना समझ में नहीं आता।

सतीश मिश्र से भी यह पूछा जा सकता है कि क्या केंद्र सरकार को या उनके किसी प्रतिनिधि अथवा सांसद को राज्य सरकार से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है कि अमुक योजना के लिए भेजा गया धन उस योजना विशेष में लगने के बजाए कहां ‘समा’ गया? क्या हाथी और मायावती की मूर्तियां स्थापित करने अथवा दलित स्मारकों के निर्माण के लिए ही प्रदेश या देश की जनता अपने खून-पसीने की कमाई टैक्स के रूप में देती है?

जनभावनाएं भडक़ाने का काम केवल बसपा ही नहीं कर रही, बल्कि सभी राजनीतिक दल इसी माध्यम को मतदाताओं से वोट ठगने का सबसे सुगम रास्ता समझने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसने कि रामजन्म भूमि मुद्दे के नाम पर दो दशकों तक पूरे देश में नफरत और वैमनस्य का वातावरण बनाया तथा अपने आपको इसी मंदिर मुद्दे के द्वारा देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित किया, यहां तक कि केंद्र में राम मंदिर के नाम पर ही 6 वर्षों तक सत्ता का सुख भी भोगा, वही अब राममंदिर निर्माण को अपने एजेंडे में शामिल नहीं कर रही है।

भाजपा यह समझ चुकी है कि ‘रामजी’ ने उन्हें जिस उत्कर्ष तक पहुंचाना था पहुंचा दिया। अब राम मंदिर मुद्दा रूपी काठ की हांडी बार-बार नहीं चढऩे वाली। लिहाज़ा अब पार्टी अपनी छवि बदलने की कोशिश कर रही है। उत्तर प्रदेश चुनावों में पार्टी ने प्रवक्ता के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को इस गरज़ से आगे कर दिया है शायद उनके ‘नूरानी’ चेहरे का कुछ चमत्कार हो और प्रदेश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसा असंभव सा लगने वाला काम संभव बनाया जा सके। इसके बावजूद पार्टी अपने मुख्य ‘केंचुल’ से बाहर भी निकलना नहीं चाह रही है। क्योंकि उसे आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद् जैसे अपने सहयोगी संरक्षक संगठनों के समर्थन की भी फ़िक्र है।

यही वजह है कि राज्य में हो रहे चुनावों के दौरान जहां प्रदेश में दम तोड़ती भाजपा ने पूरे राज्य में रैली, जनसभाएं आदि आयोजित करने का कार्यक्रम बनाया है, वहीं आम लागों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए पूरे राज्य में एक ही दिन व समय पर महाआरती जैसा गैर राजनीतिक आयोजन भी किए जाने का ऐलान किया गया है। मज़े की बात तो यह है कि चुनावी बेला में महाआरती की यह घोषणा भी और किसी ने नहीं, बल्कि नकवी साहब ने की है।

प्रदेश में सक्रिय अन्य राजनीतिक दल भी राज्य के विकास या जन समस्याओं पर बहस करने के बजाए मतदाताओं की भावनाओं को भडक़ाने व उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चित रूप से अबकी विधानसभा चुनाव मतदाताओं की बुद्धिमत्ता का पूरा परिचय ज़रूर देंगे, क्योंकि इस बार अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव जैसे समाजसेवी भी जनता को जागरुक करने व भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए जनजागरण करने की योजना बना रहे हैं।

देखना होगा कि इस बार जनता विभिन्न राजनीतिक दलों के विभिन्न नेताओं द्वारा हर बार दिए जाने वाले झांसे का शिकार होती है या भावनाओं के प्रवाह में बहकर मतदान करती है या भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बनते हुए स्वयं अच्छे या बुरे राजनीतिक दल की पहचान करने की कोशिश करती है अथवा अपने विवेक पर आधारित कोई और फैसला लेती है।

 

 

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