उत्तराखण्ड में बहाल हुआ लोकतंत्र

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प्रमोद भार्गव
देवभूमि उत्तराखंड में निर्णय प्रक्रिया के च्रकव्यूह में उलझा राजनीति संकट शक्ति परीक्षण के बाद समाप्त हो गया है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर उत्तराखंड विधानसभा में हरीश रावत ने अपना बहुमत सिद्ध कर दिया। रावत को 28 कांग्रेस, 6 प्रगतिशील लोग तांत्रिक मोर्चा और 1 नामित विधायक का वोट मिलाकर कुल 33 मत मिले हैं। बसपा, उत्तराखंड क्रांति दल और निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस के पक्ष में रहे है। इस जीत से भाजपा को सबक लेने की जरूरत है। उसने जल्दबाजी में राष्ट्रपति शासन लगाने की जो पहल की उसके चलते उसकी गति ‘आधी छोड़, साजी को धावे,साजी मिलै, न आधी पावै‘ की हुई है। न्यायालय की नाराजी भी भाजपा को झेलनी पड़ी है। यहां तक कि नैनीताल उच्च न्यायालय को कहना पड़ा था कि ‘राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है,लिहाजा उनके फैसले की भी समीक्षा हो सकती है।‘ कांग्रेस के बागी 9 विधायकों को भी बगावत की सजा विधानसभा की सदस्यता गंवाने के रूप में झेलनी पड़ी है। विधानसभा अध्यक्ष के इस फैसले को उच्च व सर्वोच्च न्यायालय ने भी संवैधानिक मानते हुए कोई दखल नहीं दिया। हाईकोर्ट ने तो यहां तक जलील किया कि ‘इन बागियों को संवैधानिक पाप की सजा भुगतनी होगी।‘ यही वे बागी विधायक थे,जिनके दम पर भाजपा और केंद्र सरकार ने दावा किया था कि रावत सरकार अल्पमत में है।
बड़े राज्यों को विभाजित कर छोटे राज्य इस पवित्र उद्देश्य से अस्तित्व में लाए गए थे,जिससे एक तो चौमुखी विकास की उम्मीद की जा सके,दूसरे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की आवाज को भी मुकम्मल तरजीह दी जा सके ? किंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि करीब 15 साल पहले वजूद में आए उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में से छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो अन्य दोनों राज्य उद्देश्य की परिकल्पना पर खरे नहीं उतरे हैं। देवभूमि उत्तराखंड जिस राजनीतिक संकट का सामना करते हुए शर्मसार हुई थी,वहां 15 साल में सात सरकारें रहीं। नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कोई दूसरा मुख्यमंत्री तीन साल से ज्यादा सरकार नहीं चला पाया। साफ है,राज्य में आंतरिक कलह और आषंकाएं इतनी ज्यादा रही हैं कि मुख्यमंत्रियों का ध्यान विकासोन्मुखी कार्यों में खपाने से कहीं ज्यादा सरकार बचाए रखने की चिंता में लगा रहता है।
खुद हरीश रावत कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को धकिया कर उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज हुए थे। दरअसल उत्तराखंड में जिन दुविधा के हालातों का निर्माण हुआ,उनका जनक कांगेस का केंद्रीय नेतृत्व रहा है। यदि सोनिया और राहुल गांधी ने दूरदर्षिता से काम लिया होता तो शायद वर्तमान हालातों का सामना रावत को नहीं करना पड़ता। कांग्रेस ने हरीश रावत की अगुवाई में विधानसभा का चुनाव लड़ा और बहुमत भी मिला, किंतु रीता बहुगुणा के व्यावहारिक दबाव में मुख्यमंत्री रीता के भाई विजय बहुगुणा को बना दिया गया। जबकि बहुगुणा लोकसभा के सांसद थे,उन्हें इस्तीफा दिलाकर मुख्यमंत्री बना देने का कोई औचित्य नहीं था। बहुगुणा केदरनाथ में जो प्राकृतिक आपदा आई थी,उसको संभालने में शासन-प्रशासन के स्तर पर असरकारी कुशलता दिखाने में असफल रहे थे। इस असफलता को आधार बनाकर हरीश रावत ने उत्तराखंड का दायित्व संभाला था। इसी कसक से आहत विजय बहुगुणा ने उत्तराखण्ड को मौजूदा संकट में ला खड़ा करने की पृष्ठभूमि रच दी है। उनका साथ सत्यपाल महाराज ने भी दिया। नतीजतन कांग्रेस के सात विधायक और बगावती खेमे में शामिल हो गए।
उत्तराखंड विधानसभा में अनिष्चय व अस्थिरता की स्थिति विनियोग विधेयक पेष करने के संदर्भ में बनी थी। इस विधेयक को लेकर कांगेस विधायकों ने ही हरीश रावत के विरुद्ध बगावत का झंडा बुलंद किया था। बजट सत्र के दौरान ही ये षंकाए उत्पन्न हो गईं थीं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के 11 विधायक विनियोग विधेयक के विरुद्ध मतदान करके सदन में ही रावत सरकार को गिराने पर आमादा हैं। बजट पारित कराते समय यदि एक विधायक भी मत-विभाजन की मांग करता है तो विधानसभा अध्यक्ष के लिए मतदान की मांग मानना संविधान सम्मत बाध्यता है। इस अवसर पर स्थिति तो यह हो गई थी कि 11 नहीं,बल्कि सदन की कार्यवाही षुरू होने से पहले ही 35 विधायकों ने लिखित में अध्यक्ष और राज्यपाल से मत-विभाजन की मांग कर दी थी। इस मांग-पत्र पर कांग्रेस के बागी विधायकों का नेतृत्व कर रहे हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा के अलावा भाजपा विधायकों के भी हस्ताक्षर थे। लेकिन इस दस्तावेजी साक्ष्य और विधायकों की विधानसभा में मतदान की प्रत्यक्ष मांग को नजरअंदाज करते हुए विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने ध्वनिमत से बजट पारित होने की घोषणा कर दी थी। चूंकि मांग संबंधी पूरी कार्यवाही वीडियो फुटेज में दर्ज है और दस्तावेजी अभिलेख भी मौजूद हैं,इसलिए इसे झुठलाया नहीं जा सकता है ? यही नहीं खुद कुंजवाल ने लिखित में यह भी माना है कि सदन में मत-विभाजन की मांग हुई थी,लेकिन उन्होंने विधेयक को पारित मान लिया। सदन के अध्यक्ष का यही विशंगतिपूर्ण आचरण उत्तराखंड में तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू करने का मुख्य आधार बना था।
उपरोक्त गतिविधियों से साफ है, रावत सरकार मत-विभाजन की मांग के दौरान अल्पमत में आ गई थी। लिहाजा बागी विधायक और भाजपा की मांग पर राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को 28 मार्च को नए सिरे से अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया था। सदन में हरीश रावत बहुमत साबित कर दें,इस मकसद से विधानसभा अध्यक्ष ने सभी 9 बागियों को सदन की सदस्यता से आयोग्य घोषित कर दिया था। ऐसा इसलिए किया गया,जिससे बहुमत साबित करने के मौके पर ये विधायक सदन में भागीदारी न कर सकें। कुंजवाल की इस पहल से विधानसभा का समीकरण बदल गया। 70 सदस्यीय विधानसभा में सदस्यों की संख्या घटकर 61 रह गई थी। इनमें भाजपा के 28,कांग्रेस के 27,बसपा के 2,यूकेडी का 1 और 3 निर्दलीय विधायक रह गए। यदि हरीश रावत को 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का अवसर मिल जाता तो कांग्रेस के 27, बसपा के 2, यूकेडी के 3 और तीनों निर्दलीय विधायक कांग्रेस के समर्थन में थे। मसलन 33 विधायक हरीश रावत के पक्ष में थे। यानी हरीश रावत सदन में शक्ति परीक्षण में 28 मार्च को ही सफल हो जाते ?
यदि ऐसा सदन में हो जाता तो फिर हरीश को चुनाव तक सत्ता से बेदखल करना मुष्किल था ? इसीलिए जल्दबाजी में नाटकीय ढंग से राष्ट्रपति शासन लगाने की केंद्र की मंशा को अंजाम दिया गया। राष्ट्रपति शासन औपचारिक तौर पर भले राष्ट्रपति की मंजूरी से लगाया जाता है,पर इसका निर्णय केंद्र सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति करते हैं और इसकी जबावदेही भी केंद्र पर होती है। इसीलिए उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद हाईकोर्ट को कहना पड़ा था कि ‘राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है,लिहाजा उनके फैसले की भी समीक्षा हो सकती है।‘
यहां यह भी गौरतलब है कि केंद्र सरकार बार-बार यह दलील दोहराती आ रही है कि राष्ट्रपति शासन इसलिए लगाया गया,क्योंकि हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गई थी। दरअसल 18 मार्च को विनियोग विधेयक पारित करते वक्त भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों की मत-विभाजन की मांग विधानसभा अध्यक्ष कुंजवाल ने नहीं मानी थी। किंतु इस मामले की सुनवाई कर रही दो सदस्यीय पीठ ने कहा था कि ‘राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में इस बात की कोई जानकारी नहीं दी है कि कांग्रेस के बागियों समेत 35 विधायकों ने मत-विभाजन की मांग की थी।‘ जब राज्यपाल की रिपोर्ट में यह मांग दर्ज नहीं थी तो फिर राष्ट्रपति शासन क्यों लागू किया गया ? वह भी बहुमत सिद्ध करने की राज्यपाल द्वारा तय की गई तारीख के ठीक एक दिन पहले ? साफ है,राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने से पहले सदन में बहुमत साबित करने का अवसर देने की जरूरत थी ? दरअसल राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए जो निर्णय प्रक्रिया अपनाई गई वह न्यायसंगत नहीं थी,इसीलिए शीर्श न्यायालय ने हरीश रावत को सदन में बहुमत सिद्ध करने का अवसर दिया। जिसमें रावत सफल हुए हैं। भाजपा को इस फैसले से सबक लेते हुए धारा-356 के दुरुपयोग और दुराग्रह से बचने की जरूरत है।

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