देवभूमि की विपदा

जय प्रकाश पाण्डेय

पिथौरागढ़ की सिमलगैर बाजार में राजू गोलगप्पा के बगल से जाने वाली गली में वीर दा की एक दूकान है चिली मोमोस | पहले यह दूकान लगभग 10 साल पहले कॉलेज लाइन में हुआ करती थी | अपने मोमोस और चाउमीन के लिए विख्यात यहाँ के मालिक वीर दा ने अपने निजी प्रयासों से कुमाओं की वादियों में और विशेषकर पिथोरागढ़,मुनस्यारी आदि जगह में कैम्पिंग,साईंकलिंग जैसी टूरिज्म की संभावनों को तरासने का सपना देखा | लेकिन ऐसे सपने हमारे यहाँ के राजनेतिक घरानों को शायद समझ नही आते और यही कारण है कि यहाँ के स्थायी निवासियों द्वारा जीवननिर्वाह मात्र तक के सपनों को देखने की कवायद शुरू होती है | उससे ज्यादा उड़ान लगाना शायद यहाँ के नीति नियंताओं को स्वीकार नहीं |कमोबेश यही स्थिति और न जाने ऐसे कितने लोगों की है और आज सरकार के समर्थन के अभाव में अपने मौलिक विचारों को ऐसे लोग प्रयोग में नही ला पा रहे हैं क्योंकि आर्थिक अभाव पहाड़ों के वाशिंदों का एक सच है | ऐसी ही एक संस्था है अनाम जो तीन दशकों से पहाड़ों पर अपने प्रयासों के जरिये बच्चन में सांस्कृतिक चेतना विकसित करने का काम कर रही है और आने वाली पीढ़ी की रचनाशीलता को नया आयाम दे रही है | गौरतलब है कि ये संस्थाएं बिना किसी सरकारी मदद के पहाड़ के बच्चों को सशक्त बना रही हैं | देवभूमि को जरुरत है ऐसे जनप्रतिनिधियों कि जो कि ऐसी संस्थाओं,ऐसे लोगों और ऐसे विचारों को समर्थन देते हों,और नयी रचनाशीलता की और उन्मुख हों |
भारत का कोई राज्य यदि अपनी असीमित संभावनाओं के बाद भी भारत के मानचित्र में प्रभुत्व वाली जगह नहीं बना पा रहा है उसमें उत्तराखंड का नाम सबसे ऊपर होगा | देवभूमि उत्तराखंड आज खंड-खंड हो चुकी है कभी कुमाऊं गढ़वाल के मसलों पर तो कभी ब्राह्मण और क्षत्रिय के मसलों पर और हालत यह है व्यक्तिगत क्षमताओं के साथ क्षेत्र विकास को प्राथमिकता देने वाले लोगों पर जनता को एतबार नहीं हो पा रहा है| उनकी पार्टी की राष्ट्रीय छवि या फिर राज्य नेतृत्व की छवि सकारात्मक नहीं है और इसका फर्क उनके चुनाव क्षेत्र में भी पड़ता है | ऐसे में एक सवाल यह खड़ा हो रहा है क्या उत्तराखंड का विकास महज पार्टी पॉलिटिक्स तक सीमित रहेगा या फिर अनेक अलग-अलग पार्टियों में काम करने वाले प्रभावशाली मेहनती जन प्रतिनिधि उत्तराखंड को भारत के मानचित्र में एक बेहतर स्थान दिला पाएंगे |

उत्तराखंड के राजनीतिक संकट पर शायद ही किसी बड़े न्यूज़ चैनल की कैमरे की लाइट पहुंची हो शायद ही किसी ईमानदार पत्रकार की कलम यहाँ के रेत खनन की झांकियों का बयान कर पाई हो | यहाँ ठण्ड में फूलते हाथों को दिखा पायी हो या फिर रास्ते में दम तोडती जिंदगियों के घर वालों को सांत्वना के दो शब्द दे पायी हो | हर दूसरे पत्रकार को भ्रष्ट, हर चौथे एमएलए को चोर और राज्य सरकार की नीतियों को एक लॉलीपॉप यहां की जनता मानती है |सबसे बड़े आश्चर्य की बात है यह सब होने के बाद यहां की भोले-भाले लोग शांत रहते हैं |

आखिर उत्तराखंड का विकास हो कैसे ? क्या महज पर्यटन से और वह भी धार्मिक पर्यटन मात्र या फिर कुछ और अवसर तलाशने की आज उत्तराखंड को आवश्यकता है | 2017 का चुनाव यदि मेरे पहाड़ी भाई और बहन इस आधार पर करें तो भारत के ही नहीं विश्व के मानचित्र में यह भूमि अपनी जगह बना सकती है | आज उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीतिक उठापटको में जिस तरह बाहरी लोग जो कि देव भूमि से सरोकार तक नही रखते उनका प्रभुत्व बड़ा है और वो ही नीति नियंता बन बैठे हैं ऐसे में इस राज्य में बहुत ही जल्द यहीं के लोग हासिये में चले जायेंगे यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा |आज मसूरी से लेकर दून और यहाँ तक कि ऋषिकेश जैसे समृद्ध स्थानों पर बाहरी लोगों का ही कब्ज़ा होता जा रहा है | ऋषिकेश में रिवर राफ्टिंग के मालिक कि बात हो या फिर मसूरी के शानदार होटलों के मालिक प्रायः बाहरी ही हैं | यहाँ का मूल बाशिंदा तो मेग्गी पॉइंट बनाकर या होटलों में बर्तन साफ़ कर अपना जीवन यापन कर रह है | यहाँ मेरा मकसद बाहरी या आंतरिक का मुद्दा उठाकर यहाँ के भोले लोगों को बरगलाना नही है मेरा मकसद है कि यहाँ के लोगों का भी हक है विकास की धारा में आगे बढने का | अपने घर परिवार के साथ समय बिताने का न कि अपने घरों अपनी जड़ो से दूर जाने का |

प्रायः आर्थिक सम्पन्नता न होने के कारण अनेकों लोगों द्वारा माइग्रेशन किया जा रहा है | 2011 के सेंसेक्स के अनुसार उत्तराखंड के 16793 गाँवों में से 1053 गांवों में कोई आबादी नही | 405 ऐसे गाँव हैं जिनमें संख्या 10 से कम है |.यदि क्रेडिट आदि की उच्चित व्यवस्था हो तो बहुत आश्चर्य नही कि किल्मोड़ा से लेकर काफल तक इस क्षेत्र के लोगों को अलग पहचान दिला सकता है | समुचित क्रेडिट व्यवस्था न होने से एवं उसकी सही जानकारी न होने से यहाँ के लोग अभिशप्त जीवन जी रहे हैं और आर्थिक सम्पन्नता वाले बाहरी लोग अपनी सल्तनत बनाते जा रहे हैं | आपको जानकार यह आश्चर्य होगा कि संभवतः हमारे प्रत्येक घर में हाथ से बुनी जाने वाली स्वेटरों को ही मार्केटिंग के जरिये महानगरों के वाशिंदों द्वारा अपना या जा रहा है |यह बात वो लोग अच्छे से जानते हैं जो कि उत्तराखंड से बहार अभी निवास कर रहे हैं | फैशन डिजायनरों द्वारा भी इस सम्भावना को एक मंच दिया गया है और यही कारण कि वर्तमान फिल्मों के भी अभिनेताओं द्वारा ऐसे हाथ से बुने परिधानों को पहनने का प्रचलन बड़ा है | हिमांचल की तरह उत्तराखंड में भी स्किल डेवलपमेंट के तहत इस तरह के कार्यक्रम किये जा सकते हैं| जिन इलाकों में गाँव के गाँव पलायन कर चुके हैं वहां विलेज टूरिज्म, कुक्कुट पालन एवं मधुमक्खी पालन जैसी संभावनाओं को तलाशा जा सकता है |
वर्तमान हालत पर जब हम प्रकाश डालते हैं तो पाते हैं की उत्तराखंड का विकास इस वजह से नहीं हो पा रहा कि पहाड़ के विकास की नीतियां शहरी मैदानों में बैठकर बनाई जा रही है| सन् 2000 के बाद से ही गैरसैण राजधानी का मुद्दा यूं ही हर चुनाव में ज्वलंत मुद्दे की तरह काम करता है | लेकिन बात यह है कि दून के शहरी वातावरण में बैठकर यदि पहाड़ों की समस्याओं पर परिचर्चा होगी तब हाल तो यही होना है ही | जब तक नौकरशाह से लेकर राजनीतिक नेतृत्व पहाड़ों में नहीं जायेंगे तब तक सभी नीतियां उधमसिंह नगर,दून,हरिद्वार,कोटद्वार,नैनीताल,हल्द्वानी तक ही सीमित रहेंगी | जिस पहाड़ी राज्य का रोना रोके उत्तर प्रदेश से हमको अलग किया गया या फिर विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त किया गया उस राज्य में अब पहाड़ का मुद्दा ही नही है |विकास का विकेंद्रीकरण होना आज के देवभूमि की आवश्यकता है |
वर्तमान उत्तराखंड में 2017 विधानसभा चुनाव अलग ही कहानी बयां कर रहे हैं | उत्तराखंड में होने वाले 2017 विधानसभा चुनाव शायद ही पहाड़ी क्षेत्र के विकास के मुद्दे पर लड़े जाएं | उत्तराखंड की लड़ाई आज माननीय प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस के बीच तक सीमित रह गयी है | आज पूरे देश में मोदी जी के नाम में चुनाव लड़ा जा रहा है लेकिन ऐसे में राज्य सूची के उन विषयों जैसे कृषि,संचार,सार्वजनिक स्वास्थ्य,बेरोजगारों के लिए सुविधाएँ आदि का क्या होगा जिसमे केंद्रीय सरकार दखल नही दे सकती और हमारा तो अतीत ही गवाह है कि राज्य सूची के विषयों में नीतियों की असफलता ही हमारी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है | ऐसे में यह देखना प्रासंगिक होगा कि उत्तराखंड की जनता क्या अपनी क्षेत्रीय क्षमताओं से या क्षेत्रीय समस्याओं को प्राथमिकता देगी या फिर दुबारा शोषण के एक नए चक्र का चुनाव करेगी |
वर्तमान में उत्तराखंड के हालत पर गौर करें तो हम यह कहते हैं अपने निजी स्वार्थों, अपने व्यक्तिगत हितों, अपनी राजनीति विरासतों को बनाए रखने के लिए देवभूमि को दाव पर लगा दिया गया है | आश्चर्य होता है यह जानकर की प्रदेश की सभी आर्थिक संपन्नता प्रदान करने योग योजनाएं देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार,तक सीमित हो जाती हैं| क्या कारण है स्मार्ट सिटी के नाम पर उन जिलों का ही चयन होता है जो पहले से विकसित हैं ?

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र की बात करें तो हम यह पाते हैं पूरा कुमाऊं क्षेत्र विकास को तरस रहा है| ध्यान योग्य बात है हर 5 वर्ष में कुछ जाने अनजाने चेहरे वही मुद्दों के साथ यहां की सीधी साधी जनता से रुबरु होते हैं| चुनावों से 4 महीने पहले से ही मंदिरों के नाम पर, मेलों के नाम पर, खेलकूद के नाम पर जनता का मैनेजमेंट होना शुरू हो जाता है और यह मैनेजमेंट चुनाव के आखिरी दिन तक रहता है ऐसा नहीं कि इसमें केवल एक मात्र कोई पार्टी शामिल है| यह खेल तो प्रायः सभी पार्टियों का है | अक्सर अपने मित्रों से बात करते हुए यह बात स्पष्ट होती है कि कांग्रेस तो ठाकुरों की पार्टी है और बीजेपी ब्राह्मणों की हालांकि सीधे साधे लोग यह नहीं समझ पाते कांग्रेस के मुखिया ब्राह्मण हैं और बीजेपी में ब्राह्मण नेताओं का आज अकाल पड़ा है |

अक्सर हम सुनते थे की परंपरा खून में बस जाती है और शायद यही कारण है ठाकुरों ब्राह्मणों की राजनीति में अपने आप शिकार बनती है उत्तराखंड की जनता | उत्तराखंड का विकास ना होने का एक कारण यह भी है कि उत्तराखंड की जनता राजनीतिक पार्टियों पर यकीन करती है ना की व्यक्तिगत क्षमता वाले नेतृत्व दे सकने वाले योग्य व्यक्तियों पर और संभवत यही कारण है कि दलगत राजनीति से यह क्षेत्र अभी भी ऊपर नहीं उठ पाया है | पिथोरागढ़ में वर्तमान विधायक द्वारा किये गए प्रयासों को इस सन्दर्भ में देख जा सकता है जिन्होंने दलगत राजनीति से अलग कुछ काम करने का प्रयास किया है | मोदी जी बनाम कांग्रेस होने से ऐसे काम करने वाले लोगों को नुकसान पहुचने की सम्भावना है,लेकिन इनका नुकसान जनता का ही नुकसान होगा |

भारत का इतिहास गवाह है जहाँ भी क्षेत्रीय संगठनों ने विकास का दामन थामा उस प्रदेश में आज काफी अच्छी स्थिति देखने को प्राप्त होती है | बंगाल हो चाहे हिमाचल या फिर केरला या फिर अम्मा का तमिलनाडु |
सन् 2000 के बाद से क्षेत्रीय संगठनों द्वारा उत्तराखंड की एक दलाली जैसे ही की गई, इसको दलाली ही तो कहा जाएगा कि आपकी अपनी आंतरिक पार्टियों में कलह होते हैं और आप बीजेपी या कांग्रेस में शामिल होते हैं और प्रदेश की वह भोली-भाली जनता आपको अविश्वास की नजरों से देखने लगती है और उसके बाद बीजेपी या कांग्रेस में अपने प्रदेश का भविष्य देखने लगती है |
मेरे उत्तराखंड के सभी भाइयों और बहनों से निवेदन है कि इस चुनाव में जरा राज्य सूची के विषयों पर कौन काम कर पायेगा इस आधार पर अपना अमूल्य मत दें | देव नगरी में देवत्व की स्थापना में आप सब के साथ की आवश्यकता है यह बिना सकारात्मक सोच के संभव नही और यही सकारात्मक सोच हम सबकों लानी है और बिना दारु,चिकन,लोलीपोप के, नया चुनाव करना है |

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