वैश्विक उन्नति का आधार भारतीय संस्कृति

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– विनोदबंसल


दुनिया में भौतिक उन्नति के नित नए कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं. व्यक्ति जहां चन्द्रमा से बहुत ऊपर तक पहुँच गया है वहीँ समुद्र तल की गहराइयों की सीमाओं को भी लांघ चुका है. तकनीक के माध्यम से घर बैठे सफलतापूर्वक ड्रोन हमले संभव हुए हैं तो वहीँ व्यक्ति विकास के नित नए साधनों का आविष्कार किया जा रहा है. किन्तु देखने में आ रहा है कि दुनिया भर में स्वार्थ सिद्धि और भौतिक उन्नति करते करते व्यक्ति अपने प्राकृतिक सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक उत्तरदायित्व को भूलता जा रहा है. वह यह भी भूल जाता है कि भगवान द्वारा निर्मित इस प्रकृति के संसाधनों पर श्रष्टि के अन्य प्राणियों का भी उतना ही अधिकार है जितना तुम्हारा. एक सुसंस्कृत समाज में रहने वाले संस्कार युक्त व्यक्ति के प्रत्येक क्रिया कलाप में विश्व कल्याण की भावना सदैव सन्निहित रहती है.

संस्कृति किसी भी समाज या राष्ट्र का आइना होती है. हालांकि संस्कृति की अवधारणा इतनी विस्तृत है कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना सम्भव नहीं है। तथापि, यह कहा जा सकता है कि मानव जीवन के दिन-प्रतिदिन के आचार-विचार, जीवन शैली, कार्य-व्यवहार, धार्मिक, दार्शनिक, कलात्मक, नीतिगत कार्य-कलापों, परम्परागत प्रथाओं, खान-पान, संस्कार इत्यादि के समन्वय को संस्कृति कहा जाता है। अनेक विद्वानों ने संस्कार के परिवर्तित रूप को ही संस्कृति के रूप में स्वीकार किया है।

भारतीय संस्कृति के प्रेरणादाई बिन्दुओं पर विचार करें तो पाएंगे कि यह उदार, गुणग्राही व समन्वयशील रही है। संवेदना, कल्पना, आचरण, भाव, संयम, नैतिकता, उदारता व आत्मीयता के तत्व अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। नीति और सदाचार की रक्षार्थ कर्मफल का सिद्धान्त व पुनर्जन्म के प्रति आस्था एक ऐसी उत्तम दार्शनिक ढाल है जो व्यक्ति को अनैतिकता की ओर जाने ही नहीं देती। ईमानदारी, अतिथि सत्कार, दाम्पत्य मर्यादाओं की कठोरता, पुण्य, परोपकार, पाप के प्रति घृणा, जीव दया जैसे तत्व घोर दरिद्रता और सामाजिक अव्यवस्था के रहते हुए भी चिर स्थाई रहते हैं।

 

वास्तव में संस्कृति ऐसी आदर्श शृंखला है जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता यहाँ तक कि व्यवहार में उन सिद्धान्तों के प्रतिकूल चलने वाला भी खुले रूप में उसका विरोध नहीं कर सकता। गंभीरता से विचार करें तो हम पाएंगे कि चोर अपने यहाँ दूसरे चोर को नौकर नहीं रखना चाहता। व्यभिचारी अपनी कन्या का विवाह व्यभिचारी के साथ नहीं करता और न अपनी पत्नी को किसी ऐसे व्यक्ति के साथ घनिष्ठता बढ़ाने देता है। ग्राहकों के साथ धोखेबाजी करने वाला दुकानदार भी वहाँ से माल नहीं खरीदता जहाँ धोखेबाजी की आशंका रहती है। झूठ बोलने का अभ्यासी भी सम्बन्धित लोगों से यही अपेक्षा करता है कि वे उसे सच बात बताया करें। अनैतिक आचरण करने वालों से पूछा जाय कि आप न्याय अन्याय में से- उचित अनुचित में से- सदाचार दुराचार में से किसे पसन्द करते हैं तो वह नीति पक्ष का ही समर्थन करेंगे। अपने सम्बन्ध में परिचय देते समय हर व्यक्ति अपने को नीतिवान के रूप में ही प्रकट करता है। इन तथ्यों पर विचार करने से प्रकट होता है कि भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा एक ऐसी दिव्य परम्परा के साथ गुँथी हुई है जिसे झुठलाना किसी के लिए भी- यहाँ तक कि पूर्ण कुसंस्कारी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। वह अपने दुराचरण के बारे में अनेक विवशताएँ बताकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न तो कर सकता है, पर अनीति को नीति कहने का साहस नहीं कर सकता। यही कारण है जिसके आधार पर भारतीय संस्कृति को विश्व की कालजयी संस्कृति कहा गया है।

कोई अन्य हमारा भाग्य विधाता नहीं है बल्कि व्यक्ति अपना विकास अपने परिश्रम से स्वयं ही कर सकता है। वह अपने सुख-दुःख दोनों का कर्ता स्वयं ही तो है। यम, नियम, योग, ध्यान, प्राणायाम, आसन इत्यादि से जहां व्यक्ति स्वयं को मजबूत करता है वहीँ ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया’ या ‘इदम राष्ट्राय, इदम न मम्’ या ‘ परम वैभवन्ने, त्वमेव तत स्वराष्ट्रं’ की प्रार्थना के द्वारा सृष्टि के सभी प्राणियों के कल्याण की कामना करता है।

मातृवत परदारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ठवत… यानि मातृ शक्ति को देवी रूप में मानना तथा दूसरे के धन को मिट्टी के समान मानना हमारी संस्कृति की विशेषताएं हैं. वर्ण व्यवस्था जन्म-जाति के साथ जुड़कर भले ही आज विकृत हो कर बदनाम हो, पर उसके पीछे अपने व्यवसाय तथा अन्य विशेषताओं को परम्परा गत रूप से बनाये रहने की भारी सुविधा है। आज छोटे-छोटे कामों के लिए नये सिरे से ट्रेनिंग देनी पड़ती है जबकि प्राचीन काल में वह प्रशिक्षण वंश परम्परा के आधार पर बचपन में आरम्भ हो जाता था और अपने विषय की प्रवीणता सिद्ध करता था। आश्रम व्यवस्थान्तार्गत ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में बीतने वाली व्यक्ति की आधी आयु भौतिक प्रगति के लिए और आधी आयु आत्मिक ज्ञान के संवर्धन के लिए है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम आत्मिक श्रेष्ठता के संवर्धन तथा लोकमंगल कारी कार्यों में योगदान देने के लिए निश्चित है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों की श्रेष्ठता समुन्नत रहती है।

प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ तीर्थाटन द्वारा स्वास्थ्य संवर्धन, अनुभव वृद्धि, स्वस्थ मनोरंजन, व्यवसाय वृद्धि, अर्थ वितरण जैसे अनेक लाभ बताए हैं. देवदर्शन के बहाने तीर्थयात्री गाँव-गाँव, गली मुहल्लों में जाकर जहां धार्मिक जीवन की प्रेरणादेते हैं, वहीँ साधु-संतों, ब्राह्मणों इत्यादि के आथित्य सत्कार एवं दान दक्षिणा के पीछे भी यही भावना भरी हुई है कि लोक सेवा के लिए स्वयं समर्पित कार्यकर्ताओं को किसी प्रकार की आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े।

पर्वों, त्योहारों और जयन्तियों की अधिकता भारतीय संस्कृति की ऐसी विशेषता है जिसके सहारे सत्परम्पराओं को अपनाये रहने और प्रेरणाओं को हृदयंगम किये रहने के लिए पूरे समाज को निरंतर प्रकाश मिलता है। व्रत-उपवासों से जहाँ उदर रोगों की कारगर चिकित्सा की पृष्ठभूमि बनती है वहीँ मनः शुद्धि का भाव भी जुडा है। प्रत्येक शुभ कर्म के साथ अग्निहोत्र(हवन) जुड़ा रहने के पीछे भी लोगों को यज्ञीय जीवन जीने की प्रेरणा सन्निहित है।

आज के भौतिक चिन्तन ने ब्रह्माण्ड की परिकल्पना एक विराट मशीन के रूप में की है। विकास के नाम पर 24 घंटे बिजली और चमचमाती सड़कों का जाल बिछाने के अलावा विश्व के अधिकाँश देश मशीनों के द्वारा अधिकाधिक उत्पादन व उत्पादित सामान की खपत के लिए मंडियों की तलाश के साथ अधिकाधिक पूँजी जुटाने की दौड़ में लगे हैं। इसके लिए प्रकृति का निर्मम दोहन किया जा रहा है। कारखानों का जहरीला धुँआ हवा को तथा केमीकल रूपी जहर नदियों के पानी को जहरीला बना रहा है। रासायनिक खाद ने तो हमारी जमीन को ही जहरीला बना दिया है। परिणामत: व्यक्ति को न तो श्वसन हेतु साफ हवा, न पीने को साफ पानी और न ही पेट भरने को पौष्टिक रोटी व सब्जी ही उपलब्ध है। बाजारवाद और तथाकथित विकास ने हाथ मिलाकर हवा, पानी, जमीन को जहरीला बना दिया है।

इस सब के उलट भारतीय सांस्कृतिक दर्शन सदैव प्रकृति का पुजारी रहा है. इसमें कहा गया है कि  प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग तो करें किन्तु उसके दोहन की स्पष्ट मनाही है. शायद इसी कारण हमारे यहाँ पेड़-पौधों, नदियों-तालाबों, खेत-खलिहानों, पशु-पक्षियों, कूप-बावडियों इत्यादि को समय समय पर पूजे जाने का विधान है. जिससे उनमें हमारी आस्था गहरी बनी रहे और उनके अनावश्यक दोहन से बचें.

मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि हज़ारों वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण जैसी प्रजातियों के लोग भी घुलमिल कर अपनी पहचान खो बैठे। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित होती हुई नजर आई, तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान की। प्राचीनकाल में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर, मध्यकाल में जगद्गुरू शंकराचार्य, कबीर, गुरु नानक और चैतन्य महाप्रभु तथा आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा ज्योतिबा फुले इत्यादि द्वारा किये गए प्रयास इस संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गए।

सम्पूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार, रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज-त्यौहारों में भी समानता है। 1400 बोलियों तथा औपचारिक रूप से मान्‍यता प्राप्‍त 18भाषाओं की विविधता के बावजूद, संगीत, कला साहित्य नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए न सिर्फ विस्मयकारी वल्कि अनुपालन के योग्य बन गया है। आज दुनिया के अनेक देशों ने अपनी सुख सम्पदा और तरक्की के असीमित साधन जुटा लिए हों किन्तु सच्चा सुख, शान्ति, मानवता, आध्यात्मिकता और प्रकृति प्रेम जो भारत में दिखाई देता है वह अन्यंत्र कहीं नहीं. क्योंकि भारतीय संस्कृति जिन मूल गुणों व मूल्यों से भारी हुई है वही इसे महान बनाते है. आज जहां विश्व की हर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान हमारे सांस्कृति मूल्यों में निहित है वहीँ वैश्विक उन्नति का आधार भी भारतीय संस्कृति ही है.

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