वाम-दक्षिण मार्ग विशुद्ध राष्ट्रधारा के तटबन्ध!

जेएनयू

विचार मंथन: देवेश शास्त्री
kanhaiya
बीती शाम एक विवाह समारोह में गया था, तमाम रचनाकारों, इतिहास, विज्ञान, गणित, भाषादि विषयों के मर्मज्ञ चर्चा कर रहे थे- विषय था मात्र ‘कन्हैया’। लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के प्रेमास्पद यदुवंशी कवि महोदय अपने इष्टवत् जेएनयू के कन्हैया का यशोदान करते नहीं अघा रहे थे। वहीं दक्षिणपंथी चिन्तन के धनी ओमास्पद भृगुवंशी गीतकार महोदय सियासी अंदाज में राष्ट्रवाद की दुहाई दे रहे थे। परस्पर ‘वाद’ में विकृतिभाव का प्रतीक ‘वि’ उपसर्ग जुड़ा तो ‘विवाद’ उत्पन्न होने लगा। वहां मौजूद दर्पण रूप बुद्धिजीवियों के समूह से दोनों के भाव टकराकर ‘रिफ्लेक्शन’ स्वरूप ‘प्रति’ उपसर्ग ‘वाद’ में जुड़ गया और सामने आ गया ‘प्रतिवाद’। धीरे-धीरे कन्हैया के ‘मंडन-खंडन’ प्रतिवाद में लोग भोजन कर जाते और नये आते गये किन्तु प्रतिवाद चलता रहा, जल रहा है, चलता रहेगा।
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वामपंथ-दक्षिणपंथ के जन्मजात विरोधाभास को सृष्टि के आदि से झेला जाता रहा है, 21 वीं सदी के आईटी क्रान्ति दौर में भारतीय उपमहाद्वीप को ‘कन्हैया’ के माध्यम से वामपंथ-दक्षिणपंथ के एकात्म चित्त पर एक ‘रेखा’ वृत्तिवत् उभरने लगी। ‘‘मैं तो छात्र हूं, वह भी जनवादी सोच का।’’ कहने वाला कन्हैया वाममार्ग की माओवादी पगदंडी पर चल रहा है, क्या यही ‘‘छात्र-धर्म’’ है? ‘‘चीन की माओवादी ‘वेब’ के नेपाल में दक्षिणपंथ को छिन्न-भिन्न करने के बाद भारत की प्रभुसत्ता को दक्षिणपंथ से छीनने का विस्तारवादी सोच प्रतीत होता है, क्योंकि चीन के गलवहियां मित्र ‘पाक’ के भारत- विरोधी अलगाववादी हवा ने दहका दिया।’’ इस ‘‘माओवाद और अलगाववाद’’ के संयुक्त अभियान का संकेत जेएनयू में 9 तारीख को अफजल गुरु के महिमामंडन में भारत-विरोधी नारेबाजी और फिर 11 तारीख को भुखमरी, गरीबी, सामंतवाद से आजादी की नारेबाजी के पारस्परिक ‘लिंक’ से मिलता है।
‘आजादी’ की परिभाषा को किसी भी तरह से करें, यही आजादी है। वेद-शास्त्र भी आजादी (मुक्ति) की बात कहते हैं। जीवन-मरण क्रम से छूटने की आजादी को मोक्ष, मुक्ति, परमपद, कैवल्य, सम्यक् कहा। लेकिन मौजूदा माओवाद और अलगाववाद द्वारा आजादी की कथित परिभाषाओं को भारत की प्रभुसत्ता के लिए इस वजह से घातक माना जा रहा है, क्योंकि ‘धारा’’ को छिन्न-भिन्न करने के लिए तटबन्धों के जर्जर होता कैसे देखा जाये।
भारतवर्ष एक अविरल धारा का नाम है, जिसके तटबन्ध है ‘‘वामपंथ-दक्षिणपंथ’’। जो कभी एक नहीं हो सकते, यदि दोनों किनारे एक हो गये तो प्रवाह रुक जायेगा। प्रवाह ही विशुद्धि का हेतु है और ठहराव जड़ता का।
वामपंथ-दक्षिणपंथ रूपी दोनों तटबन्ध देश-काल-परिस्थिति वश धारा के प्रवाह में ‘‘घातकतत्व’’ किनारा पकड़ते गये। ये तत्व माओवाद, नक्सलवाद, फासिस्टवाद, जातिवाद, धर्मवाद, परिवारवाद, अलगाववाद आदि वादों के रूप में ‘‘दलदली कीचड़’’ बनकर मजबूत ‘‘ वामपंथ-दक्षिणपंथ’’ तटबंधों को तोड़ने पर आमादा हैं, तटबंद्ध टूटने पर प्रलयंकारी त्रासदी का अनुभव वादनिरपेक्ष ग्रामदेवता (किसान) से पूछो, जिनकी कर्मभूमि खेती जलप्रवाह (नहर) के किनारे हो, और खंदी कट जाने पर उत्पन्न हालात क्या होते है? बस वही हालात वामपंथ-दक्षिणपंथ तटबंध टूटने पर भारत के होंगे।

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