वामकरण से मजहबीकरण की राह पर ‘वामांगी’

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                             मनोज ज्वाला
     भारतीय संस्कृति व भारतीय जीवन-पद्धति में स्त्री-पुरुष परस्पर इस
कदर एकात्म हैं कि स्त्री को पुरुष की ‘वामांगी’ कहा गया है और एक-दूसरे
के बिना दोनों अपूर्ण माने गए हैं । स्त्री को न केवल पुरुष के बराबर
सारे अधिकार प्राप्त हैं बल्कि स्त्री तो पुरुष के हाथों विविध रुपों में
 पूजित व सम्मानित भी है । ‘भारत स्त्री-प्रधान देश है’ यह कहना
अतिश्योक्ति नहीं होगी ; क्योंकि यहां स्त्री की प्रधानता व महत्ता इस
कदर है कि आसेतु-हिमाचल इस देश को ही ‘भारत माता’ कहा जाता है और
‘वन्देमातरम’ कह कर इसे प्रणाम निवेदित किया जाता है । सारी दुनिया में
भारत इकलौता ऐसा देश है जहां की राष्ट्रीयता सनातन धर्म से निःसृत है और
सनातन धर्म-दर्शन में स्त्री शक्ति-स्वरुपा होने के कारण पूजनीय व
सम्माननीय है । दुनिया के अन्य किसी भी देश में ऐसा नहीं है ।
युरोप-अमेरिका-अरब आदि के पश्चिमी देशों की राष्ट्रीयता क्रमशः ईसाइयत व
इस्लाम नामक मजहब से सम्बद्ध है और इन दोनों ही मजहबों में स्त्री ‘आदमी’
नहीं ‘औरत’ है । ईसाइयत में तो स्त्री को प्राणी भी नहीं माना गया है ।
बाइबिल कहती है कि स्त्री में आत्मा नहीं होती । इसी तरह से इस्लाम की
मान्यताओं में भी स्त्रियों की हालत पुरुषों की अपेक्षा अत्यन्त
गयी-गुजारी व दयनीय है । अभी दो वर्ष पहले तक अरब देशों की महिलाओं को
कार चलाने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था । मस्जीदों में स्त्रियों का
प्रवेश भी निषिद्ध है- उसे नमाज पढने अर्थात अल्लाह की ईबादत करने तक का
अधिकार इस्लाम नहीं देता है । इन दोनों ही मजहबों में स्त्रियों का
अस्तित्व पुरुषों के मनोरंजन व भोग मात्र के लिए है । यही कारण है कि उन
तमाम देशों में स्त्रियां सदियों से दोयम दर्जे की नागरिक बनी रही हैं ।
अमेरिका ब्रिटेन आस्ट्रेलिया न्यूजीलैण्ड फीनलैण्ड स्पेन कनाडा
स्विटजरलैण्ड हो या कुवैत सिरिया मिस्र अरब अमिरात इन सभी देशों में
स्त्रियों को पुरुषों से कमतर ही नहीं बल्कि हृदयहीन माना जाता रहा ।
       जिन दिनों भारत में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई , इंदौर की उदारमना
महारानी अहिल्याबाई, गोंडवाना की रानी दुर्गावती, रानी रुद्रम्मा देवी,
रानी चेनम्मा और रानी अवंतीबाई जैसी स्त्रियां बडे-बडे साम्राज्यों के
शासन का  सफल-कुशल  संचालन कर रही थीं उन दिनों ब्रिटेन-अमेरिका में वहां
की स्त्रियों को राजनीतिक मताधिकार तो दूर पुरुषों के बराबर मजदूरी पाने
का भी अधिकार नहीं था । खाने-पीने की वस्तुओं के समान उनकी खरीद-बिक्री
हुआ करती थी । सम्पत्ति में उनके हक-अधिकार की तो कल्पना भी नहीं थी अभी
हाल तक । १९वीं सदी में अमरीका भर में स्त्रियों के अधिकारों का प्रचार
करने वाली ऐलिजाबेथ केडी स्टैनटन का मानना था कि “बाइबल और चर्च,
स्त्रियों की आज़ादी में सबसे बड़ी रुकावटें हैं ।” बाइबल की पहली पाँच
किताबों के बारे में स्टैनटन ने कहा था- “इन किताबों के अलावा, मैं ऐसी
किसी किताब के बारे में नहीं जानती जो स्त्रियों को पुरुषों से इतना नीचा
दिखाती हो ।”
       अमेरिका नाम का राज्य बनने और ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन की
गुलामी से उसके मुक्त होने के १४४ वर्षों बाद लम्बे आन्दोलनों-संघर्षों
की जद्दोजहद के परिणामस्वरुप वहां स्त्रियों को मताधिकार प्राप्त हुआ ।
इसी तरह सन  १९१७ से रुस की स्त्रियों को तथा सन १९१८ से जर्मनी फ्रांस व
ब्रिटेन की स्त्रियों को और बहुत वर्षों बाद  सन  १९४४ से फ्रांस की
स्त्रियों  को लोकतांत्रिक मताधिकार प्राप्त हुआ । स्विट्जरलैंड में तो
वर्ष १९७४ तक महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था जी । ये वो देश हैं जो
आज विकसित कहे जाते हैं और इस कारण उनकी हर उपलब्धि-विकृति का अनुकरण
दुनिया के तमाम देशों में हो रहा है ; वामपंथियों की कृपा से अपने
मातृप्रधान देश भारत में भी जहां की पहली लोकसभा में ही २२ स्त्रियां
सांसद चुनी गई थीं ।
        दर-असल हुआ यह कि स्त्रियों को ‘भोग की वस्तु’ व ‘संतानोत्पादन
का साधन’ एवं ‘शैतान का द्वार’ मानने वाले ईसाई- मजहब से युक्त
राष्ट्रीयताओं के देशों में स्त्रियों का शोषण-दमन-उत्पीडन जब हदें पार
करने लगा तब  वहां स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने दिलाने के
बावत चर्च नामक मजहबी सत्ता के विरुद्ध स्त्री-सशक्तिकरण का आन्दोलन चल
पडा । आरम्भ में उस आन्दोलन का दायरा मिलों-कारखानाओं में काम करने वाली
स्त्रियों को पुरुषों के समान मजदूरी देने-दिलाने तक सीमित था । सबसे
पहले २८ फरवरी १९०९ को सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने न्यूयॉर्क में
कामगार स्त्रियों के काम के घण्टे कम करने और उनकी मजदूरी कम करने के लिए
आन्दोलन का आगाज किया था । फिर सन १९१० में ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के
कोपेनहेगन-सम्मेलन में  स्त्रियों को मताधिकार देने की मांग उठायी गई ।
वह आन्दोलन जब जोर पकडने लगा तब सन१९१७ में रूस में हुई साम्यवादी
क्रांति के दौरान आठ मार्च को वहां की महिलाओं द्वारा ‘रोटी-कपडा’ की
मांग को ले कर  एक ऐतिहासिक हडताल  की गई तब जा कर वहां के कम्युनिष्ट
शासन की कृपा से उन्हें पुरुषों के बराबर मजदूरी का अधिकार प्राप्त हुआ ।
तब से युरोप अमेरिका व अरब के लगभग सभी मजहबी देशों में स्त्री-सशक्तिकरण
का आन्दोलन चल पडा जिसका मुख्य स्वर स्त्रियों को मजहबी दासता से मुक्त
कर पुरुषों की बराबरी में लाना हुआ करता था । जाहिर है. वहां के ऐसे
आन्दोलनों का नेतृत्व सदैव ही कम्युनिष्ट-ट्रेड-युनियनों अर्थात वामपंथी
संगठनों के हाथों में रहा । उन्हीं संगठनों की पहल पर संयुक्त राष्ट्र
संघ ने  सन १९७५ में ८ मार्च की तारीख को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’
घोषित कर दिया । फिर तो वाम-संगठनों के झण्डाबरदारों ने मजहबी मान्यताओं
के विरुद्ध महिलाओं की उस लडाई को वाम-राजनीति के विस्तार का माध्यम बना
कर उसे दुनिया भर में फैलाना शुरु कर दिया । वहां भी और उन देशों में भी
जहां स्री-पुरुष के बीच कोई परस्पर संघर्ष ही नहीं रहा कभी ।
       भारत के वामपंथी विचारक चूंकि अमेरिकी औद्योगिक चिमनियों व रुसी
श्रमिक बस्तियों से निकलने वाले हर धूंए को भारत के धवल-निर्मल आकाश में
फैला कर वातायन को ‘धूंआ-धूंआ’ करने का पुरुषार्थ प्रदर्शित करते रहे हैं
; इस कारण ‘स्त्री-सशक्तिकरण’ के उस आन्दोलन को भी इस देश के सनातन धर्मी
समाज पर थोप दिए जहां की स्त्रियां सदियों से पुरुषों की वामांगी है ;
पुरुषों से पूजित सरस्वती लक्ष्मी दुर्गा आदि शक्तिस्वरुपा है ;
गृहस्वामिनी गृहिणी व गृहलक्ष्मी से भी बढ कर सहधर्मिनी है । फिर तो
‘धर्म’ को भी मजहब मान बैठे वाम-विचारकों द्वारा स्त्री को उसकी सम्मानित
अवस्था से नीचे खींच पुरुष की बराबरी में ले लाने और पश्चिमी मजहबी
मान्यतओं को तोड डालने की तर्ज पर उसे सनातन धार्मिक स्थापनाओं से विमुख
कर देने के बहुविध बौद्धिक प्रयत्न होने लगे । स्त्री को उसकी मौलिकता
महत्ता व स्वाभाविकता के विरुद्ध पश्चिमी अपसंस्कृति की तर्ज पर पुरुष बन
जाने के प्रपंच सिखाये-पढाये जाने लगे जिसके फलस्वरुप
घर-परिवार-विवाह-गृहस्थी में विखराव होता-बढता जा रहा है । नयी पीढी के
बच्चों को मां के आंचल की शीतल छाया का अहसास तक नहीं हो पा रहा है
क्योंकि उनकी मां बनी स्त्री को पुरुष के समान बनने-दिखने के लिए शॉट
शर्ट  व जिन्स पैण्ट पहनना पड रहा है । और तो और स्त्री-पुरुष-समानता के
नाम पर ‘विवाहेत्तर सम्बन्ध’ और ‘समलैंगिक सहवास’ पर वैधता की मुहर लगायी
जा चुकी है तो जाहिर है- अवैध बच्चों की फौज भी कायम हो कर रहेगी ।
स्त्री-सशक्तिकरण के नाम पर स्त्री-पुरुष-समानता का यह आन्दोलन वस्तुतः
भारतीय जीवन-पद्धति के पुरुष की वामांगी कही जाने वाली स्त्री का वामकरण
के रास्ते से उसका मजहबीकरण है । सनातन भारतीय समाज में स्त्री-सशक्तिकरण
का यह अन्दोलन वास्तव में स्त्री को उसकी सम्मानित उच्चावस्था से नीचे
खींच लाने का अवनत्तिकरण है । मेरे इस अभिकथन का मतलब यह कतई नहीं है कि
स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा व रोजगार के अवसर से वंचित रहना
चाहिए बल्कि इसका आशय तो यह है कि स्त्री के समग्र व्यक्तित्व का अधिकतम
विकास हो किन्तु उसकी मौलिकता महत्ता व स्वाभाविकता का नाश न होने दिया
जाए । स्त्री का सशक्तिकरण उसके स्त्रीत्व के सर्वतोभावेन आधिकतम उन्नयन
से ही सम्भव है न कि पुरुष-रुप में उसके रुपान्तरण अथवा ईसाइकरण  से ।
रुपान्तरण तो उसकी अस्मिता का हनन है और ईसाइकरण उसके स्वधर्म के विरुद्ध
अभारतीय मजहबीकरण है । अतएव युरोपीय-अमेरिकी देशों की हर अवधारणा को आंख
मूंद कर भारत में भी अपना लेना आत्मघाती है ।
•       मनोज ज्वाला ; मार्च’ २०२०

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