वेद और तर्क पूर्ण सत्य मान्यताओं से युक्त आचरण ही मनुष्य धर्म

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य का धर्म क्या है? इसका उत्तर है कि अपने पूरे जीवन में सत्य ज्ञान की खोज करना व तर्क व युक्ति से सिद्ध ज्ञान व कर्मों का ही आचरण करना मनुष्य का सच्चा धर्म है। संसार में प्रचलित मत-मतान्तरों व धर्मों में यह धर्म कौन सा है? इसका उत्तर है कि सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद के सत्य अर्थों से युक्त मान्यताओं व सिद्धान्तों का विवेक पूर्वक आचरण ही सच्चा धर्म है जिसे वर्तमान सनातन वैदिक धर्म कहते हैं। जो मान्यतायें सत्य एवं परहित पर आधारित न हों वह कदापि धर्म नहीं हो सकती। जहां हिंसा हो व भय या प्रलोभन से दूसरों का धर्मान्तरण या मतान्तरण किया जाता हो, वह सत्य धर्म कदापि नहीं हो सकता। सत्य बोलना और सत्य का ही आचरण करना परम धर्म है। सत्य वह नहीं जो मत व सम्प्रदायों की पुस्तकों में लिखा व कहा गया है अपितु सत्य वह है जो तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम के अनुकूल हो औरि साथ ही जन-जन व प्राणीमात्र का हित करने वाले सिद्धान्त व कर्म हों। इस कसौटी पर केवल सनातन वैदिक धर्म ही सत्य सिद्ध होता है। यही कारण है कि सृष्टि के आदि काल वा मनुष्यों की प्रथम पीढ़ी से लेकर महाभारत के भी लगभग ढाई हजार वर्षों तक वैदिक धर्म ही संसार का प्रमुख धर्म रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति को 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इसका अर्थ है कि वैदिक धर्म इतना ही पुराना है। हमारे प्राचीन सभी ऋषि वेदों के यथार्थ ज्ञानी व मर्मज्ञ थे। वह योगी भी थे और उन्होंने ईश्वर, आत्मा व इस सृष्टि के रहस्यों का साक्षात्कार किया था। इस स्थिति को प्राप्त होकर वह सत्य, त्याग, तप, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य व सन्तोष का जीवन व्यतीत करते थे। यदि उन्होंने आजकल की तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व उपभोग किया होता तो शायद आज हमारे पास प्राकृतिक पदार्थों का अभाव ही होता और हमें अभावों का जीवन व्यतीत करना पड़ता। हमारी आज की सन्ततियां हमारे पूवजों की ऋणी हैं जिन्होंने त्याग व सरलता का जीवन व्यतीत किया और हमारे लिए प्राकृतिक संसाधनों को प्रायः सृष्टि के आरम्भ जैसी स्थिति में शुद्ध रूप में छोड़ गये हैं। आज जिस प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्वक दोहन व उपभोग हो रहा है उससे प्रतीत होता है कि 100 वर्ष बाद हमारे लिए न शुद्ध वायु होगी, न जल होगा और न ही ईधन व अन्य प्राकृतिक पदार्थ ही होंगे। भूमि की उर्वरा शक्ति भी बच पायेगी या नहीं, विश्वास से कहा नहीं जा सकता। स्थिति जो भी होगी, वह भयावह होगी। यह बात हमारे लिए चिन्ता का विषय इसलिये भी है कि तब हमारी सन्तानें व हमारे विचारों के लोग दुःख व कष्ट उठायेंगे और अपने पूर्वजों अर्थात हमें कोसेंगे कि हमने उनके लिए प्राकृतिक साधन को प्रदूषित व नष्ट किया और उन्हें उपभोग के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं।

वेदों का ज्ञान सम्पूर्ण और सत्य इसलिए है कि यह इस संसार के रचयिता परमेश्वर का ज्ञान है जो उसने मनुष्य जाति के कल्याण के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषि कोटि के मनुष्यों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उत्पन्न कर दिया था। ईश्वर ज्ञान व विज्ञान का आदि मूल है। इसी गुण, ज्ञान व शक्ति से उसने इस समस्त ब्रह्माण्ड की रचना की है और पालन कर रहा है। अतः उसका ज्ञान ही सत्य व श्रेष्ठ है। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह भ्रान्त भी होता है। उसका ज्ञान निर्भ्रान्त कभी नहीं हो सकता। इस कारण से मनुष्य निर्मित धार्मिक व अन्य पुस्तकें भ्रान्तियों से ग्रस्त होती हैं। जब ईश्वरीय ज्ञान ‘चार वेद’ उपलब्ध हैं तो अन्य किसी ग्रन्थ की तो आवश्यकता ही नहीं है। अतः मत-मतान्तरों का जारी रहना मानव जाति के व्यापक हित में नहीं है। सभी मनुष्यों को निष्पक्ष भाव से परस्पर मिलकर जीवन के सभी पहलुओं व विषयों से सम्बन्धित सर्वमान्य मान्यतायें निर्धारित करनी चाहिये और उन्हीं का सबको पालन करना चाहिये। ऐसा होने पर ही देश व विश्व में सुख व शान्ति स्थापित हो सकती है। यदि ऐसा नहीं होगा तो आज जो हो रहा है वैसा ही चलेगा व समय के साथ इसमें, पक्षपात, अन्याय, शोषण, कू्ररता व हिंसा आदि में वृद्धि ही होती रहेगी। इसी बात को समझकर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया था। उनका पुरुषार्थ देश के अल्पज्ञ व स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों ने सफल नहीं होने दिया।

ऋषि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य ईश्वरीय ज्ञान वेद अर्थात् वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का का मनुष्य मात्र में प्रचार प्रसार करना था। आर्यसमाज ने ऐसा ही किया। आज भी आर्यसमाज के अनुयायी किसी भी धार्मिक मान्यता को तभी स्वीकार करते हैं जबकि वह पूर्ण सत्य व वेदसम्मत हो एवं तर्क वयुक्ति की कसौटी पर भी सत्य और मानव व प्राणीमात्र के लिए हितकारी हों। हमें संसार में आर्यसमाज ही सत्य का पालन करता हुआ दिखाई देता है। अन्य मत के लोग अपनी-अपनी मान्यताओं की सत्यता की परीक्षा नहीं करते अपितु जो उनके ग्रन्थों में लिखा है, वह सत्य हो या न हो, उसी का आंख मूंद कर अक्षरक्षः पालन करते हैं। इससे मनुष्य जाति का कल्याण नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य असत्य व अज्ञान पर आधारित आचरण का त्याग नहीं करेंगे उनका व अन्यों का हित-कल्याण नहीं हो सकता।

ऋषि दयानन्द ने आर्यजाति के पराभव के कारणों पर विचार किया था। उन्होंने पाया था कि सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी और न्यायकारी ईश्वर के स्थान पर पाषाण व धातु की मूर्ति की पूजा अवैदिक व व्यर्थ है। इससे अनेक प्रकार की हानियां होती हैं जिसका उल्लेख सत्यार्थप्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों में किया गया है। ईश्वर क्योंकि हमारी आत्मा के बाहर व भीतर विद्यमान है, अतः उसके यथार्थ गुणों का गान वा स्तुति, प्रार्थना, उपासना, योग की रीति से उसका ध्यान, चिन्तन, मनन व उन सबका अज्ञानियों में प्रचार करना चाहिये। यदि ऐसा होता तो भारत यवनों व अंग्रेजों का कभी गुलाम न होता। इसी प्रकार अवतारवाद का सिद्धान्त भी वेदविरुद्ध, तर्कहीन व असत्य होने से मिथ्या है। फलित ज्योतिष भी भारत को गुलाम बनाने में मुख्य कारण रहा है। इसका भी पूर्ण त्याग होना चाहिये। इसका भी उल्लेख महर्षि दयानन्द के विचारों व सिद्धान्तों से होता है। इसी प्रकार से मृतक श्राद्ध, सामाजिक असमानता, जन्मना जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, बेमेल विवाह व ब्रह्मचर्य का सेवन न करना भी देश की अवनति व गुलामी के प्रमुख कारण रहे हैं। अतः इन अन्ध विश्वासों व मिथ्या परम्पराओं का त्याग कर वेदों की मानव हितकारी मान्यताओं का पालन करना चाहिये। ऐसा करके ही मनुष्य जाति उन्नति को प्राप्त हो सकती है। इसी में समग्र मानव जाति का कल्याण है।

सभी मनुष्यों, विद्वानों व आचार्यों को चाहिये कि वह वेदों का अध्ययन करें। उसके सत्य व उदात्त अर्थो, हितकारी नियमों व सिद्धान्तों को समझे एवं उन्हें अपनायें। वेद प्रचार, वेदों की शिक्षाओं का आचरण, जीवन में तर्क व युक्ति प्रधान जीवन शैली को अपनाना, जीवन में सभी बातों की परीक्षा कर ही उन्हें स्वीकार करना आदि बातों को अपना कर ही मनुष्य जाति कल्याण व उन्नति को प्राप्त हो सकती है। सत्य का ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना ही मनुष्य का सत्य धर्म सिद्ध होता है। इसी की प्रचार आर्यसमाज करता है। यह आर्यसमाज का चौथा नियम भी है। ओ३म् शम्।

 

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