‘वेदों का प्रवेश-द्वार ऋषिदयानन्दकृत ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश

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वेदों का प्रवेशद्वार ऋषिदयानन्दकृत ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सत्यार्थप्रकाश धार्मिक वं सामाजिक शिक्षाओं का एक विश्व विख्यात ग्रन्थ है। यह ऐसा ग्रन्थ है कि जिसमें ऋषि दयानन्द के जीवन में देश व विश्व में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों की अवैदिक, असत्य व अज्ञानयुक्त मान्यताओं पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ ने भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तन तो किया ही है, देश की आजादी में भी इस ग्रन्थ व इसकी शिक्षाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। सत्यार्थप्रकाश की मुख्य विशेषता यह है कि यह पूरा ग्रन्थ वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रकाश व प्रचार करता है। वेद ज्ञान का भण्डार हैं। वेद में सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान बीज रूप में विद्यमान है। वेदाध्ययन से ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप व इन तीनों अनादि सत्ताओं के यथार्थ गुण, कर्म व स्वभाव विदित होते हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति का जैसा चित्रण वेद व वेदों पर आधारित दर्शन व उपनिषदों में हुआ है वैसा संसार के किसी अन्य धार्मिक व सामाजिक ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। जिस किसी भी व्यक्ति व विद्वान को ईश्वर व जीवात्मा आदि का सत्य स्वरूप जानना है तो उसे वेद व वेदों पर आधारित सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना ही होगा। सत्यार्थप्रकाश की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा में है। संस्कृत और वह भी इसकी आर्ष व्याकरण जाने बिना वेदों के यथार्थ अर्थ विद्वानों को भी ज्ञात नहीं होते। व्याकरण के ज्ञान व अविवेक के कारण ही मध्यकालीन वेद भाष्यकारों को वेदों के यथार्थ अर्थ प्राप्त नहीं हुए। वेदों के शब्द यौगिक व धातुज हैं परन्तु हमारे मध्यकालीन विद्वानों ने इन्हें रूढ़ मानकर अर्थ कर डाले जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ और विदेशियों व उनके अन्धभक्त स्वदेशी विद्वानों को भी वेदों की निन्दा करने का अवसर मिला।

 

ऋषि दयानन्द ने वेदों पर पड़े सभी आवरणों का निरावरण किया और वेदों के सत्यार्थ व यथार्थ अर्थ करके वेदों को संसार का प्रथम, आदि व सर्वतोमहान ग्रन्थ सिद्ध किया। वेदों की यथार्थ महिमा जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन आवश्यक है। इसे पढ़कर वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान हो जाता है। इसके बाद वेदभाष्यों व संस्कृत का उच्च कोटि का ज्ञान अर्जित कर वेदों के सत्य अर्थ जाने जा सकते हैं। ऋषि दयानन्द स्वयं संस्कृत की आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति के शीर्ष वा उच्च कोटि के विद्वान थे। वह इसके साथ उच्च कोटि के योगी भी थे और उन्होंने ईश्वर का अपनी आत्मा वा हृदय गुहा में साक्षात्कार वा दर्शन भी किया था। वेद ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। वेदों की कोई भी बात सृष्टिक्रम व विज्ञान के विपरीत नहीं है। वैदिक मान्यतायें एवं सिद्धान्त ज्ञान व विज्ञान के पूरक वा अनुकूल हैं। वेदों में सत्य व न्यायाचरण को मनुष्य का कर्तव्य व धर्म घोषित किया गया है। वेदज्ञान ऐसा ज्ञान है कि जिसे पढ़कर मनुष्य ईश्वर व उसकी बनाई सृष्टि सहित अपनी आत्मा के स्वरूप, अपने कर्तव्यों व लक्ष्य आदि को जान लेता है और उसे समझ आ जाता है कि जीवन को सफल बनाने व मृत्यु के बाद सुख, शान्ति व सद्गति अर्थात् मोक्ष व पुनर्जन्म में श्रेष्ठ मनुष्य देव योनि प्राप्त करने के वेदों का ज्ञान और वेदाचरण ही एकमात्र आधार व सहारा है।

 

मनुष्य के कर्तव्यों, उसके लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से होता है। यही कारण था कि सत्यार्थप्रकाश की मान्यताओं के कारण वैदिक आर्य विद्वानों ने सभी मत व पन्थों के विद्वानों को शास्त्रार्थ व वार्तालाप में निरूत्तर व परास्त किया है। वैदिक धर्म वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को ही कहते हैं व उनके अनुसार आचरण करना ही वैदिक धर्म कहलाता है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्य को असत्य मार्ग छोड़कर सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यही मनुष्य धर्म भी है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य की अपनी अविद्या व समाज में अविद्या पर आधारित अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं का नाश होकर विद्या की वृद्धि होती है। ईश्वर ने जिन जीवात्माओं को मनुष्य का जन्म दिया है उन सभी मनुष्यों को अपनी युवावस्था में ही सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ लेना चाहिये अन्यथा उसका जीवन सत्य मार्ग से भटकने की पूरी पूरी सम्भावना रहती है। हमें इस बात का भी आश्चर्य होता है कि मनुष्य अपनी आन्तरिक कमजोरियों के कारण अनेक परिस्थितियों में सत्य को जानकर भी सत्य का आचरण नहीं करता और प्रलोभनों व वासनाओं में बन्धा व कसा रहता है। इसी से वह बन्धन में पड़ता है और उसे दुःख भोगने पड़ते हैं।

 

सत्यार्थप्रकाश को अस्तित्व में लाने वाले ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) हैं। स्वामी दयानन्द ईश्वर के सत्य स्वरूप की खोज में घर छोड़कर निकले थे। उन्होंने देश भर में घूम कर विद्वानों व योगियों का सान्निध्य प्राप्त किया था। उन्हें जहां जो भी ग्रन्थ मिलता था उसे वह पढते थे। देश भर में घूमने के कारण स्थान स्थान की धार्मिक स्थिति, सामाजिक परिस्थितियों व उनके आचार विचारों का ज्ञान भी उन्हें हो गया था। समाज में उन दिनों प्रचलित अन्धविश्वासों को उन्होंने बहुत निकटता से देखा था। वह योगियों की तलाश करते थे और उनसे ईश्वर की प्राप्ति व साधना का जो भी मौखिक व क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त होता था उसे वह प्राप्त करते और उसके अनुरूप साधना कर उसकी पुष्टि व सिद्धि करते थे। उनका सौभाग्य था कि उन्हें कुछ सच्चे योगी मिले जिनसे योग साधना सीख कर वह योग की समाधि की अवस्था प्राप्त करने में समर्थ हुए थे। समाधि दो प्रकार की होती है। सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि। दोनों ही समाधियों को उन्होंने सिद्ध कर आत्मा व परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात इन दोनों का निर्भ्रान्त ज्ञान प्राप्त किया था। वेद और योग विद्या से सम्पन्न स्वामी दयानन्द जी जैसा योगी देश में अन्य नहीं हुआ है। वेदों का यथार्थ ज्ञान रखने वाले उनके समकालीन व उनके पूर्ववर्ती योगी का नाम लेना हो तो वह बता पाना कठिन व असम्भव है। ऋषि के विषय में उपलब्ध जानकारी के आधार पर उन्हें समाधि अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त होना निश्चित होता है। स्वामी दयानन्द जी ने गुरू विरजानन्द सरस्वती से मथुरा नगरी में विद्या प्राप्त की थी। उनसे उन्होंने संस्कृत का आर्ष व्याकरण सीखा ही था। वह उनके अन्तेवासी शिष्य थे। अन्तेवासी से हमारा अभिप्राय है कि वह अधिकांश समय गुरू के चरणों व उनके निकट रहकर ही व्यतीत करते थे। विद्या पूरी होने पर गुरू ने ही उन्हें वेद प्रचार सहित देश से अज्ञान व अविद्या मिटाने की प्रेरणा की थी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था।

 

स्वामी दयानन्द जी ने देश भर में घूम-घूम कर वैदिक मान्यताओं के अनुरूप वैदिक धर्म का प्रचार किया। काशी में उन्हें राजा जयकृष्ण दास मिले जो उनके विचारों को सुनकर भक्त बन गये। उन्होंने स्वामी जी को प्रेरणा की और कहा कि उनके उपदेशों से केवल वही लोग लाभान्वित होते हैं जो उनके उपदेशों को सुनते थे। यदि स्वामी जी अपने सभी उपदेशों को पुस्तक रूप में लिख दें तो इससे उन लोगों को भी लाभ होगा जो उनके उपदेश में नहीं आ पाते। स्वामी जी के जीवन काल व उनके बाद भी उनकी पुस्तक से लोग लाभान्वित हो सकेंगे। स्वामी जी को यह प्रस्ताव पसन्द आया था और इसके कुछ ही महीनों बाद स्वामी जी ने यह ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिखकर राजा जयकृष्णदास को दे दिया जो कुछ समय बाद प्रकाशित हो गया था। सन् 1884 में सत्यार्थप्रकाश का संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ जो स्वामी जी ने अपनी 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मृत्यु से पूर्व लिखकर मुद्रण के लिए दे दिया था। स्वामी दयानन्द जी ने सहस्रों ग्रन्थ पढ़े थे। वह लगभग तीन हजार ग्रन्थों को प्रमाणिक मानते थे। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति ऐसे सभी प्रमाणिक ग्रन्थों का सार सत्यार्थप्रकाश में है। सृष्टि उत्पत्ति के बाद ऐसे किसी ग्रन्थ की उपलब्धि संसार के मनुष्यों को नहीं हुई है। इस कारण भी सत्यार्थप्रकाश का विश्व साहित्य में प्रमुख स्थान है। संसार का प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है ही। इस ग्रन्थ में धर्म विषयक वह ज्ञान व सत्य बातें हैं जो अन्य मतों वा धर्मों के ग्रन्थों में नहीं हैं। इस ग्रन्थ में कोई भ्रान्तियुक्त बात व कथन नहीं है। इस ग्रन्थ से मनुष्यों की सभी भ्रान्तियों का निवारण होता है जबकि अन्य सभी मतों के धर्मग्रन्थों को पढ़कर अनेक भ्रान्तियां उत्पन्न होती हैं जिनका निवारण उन मतों से नहीं होता। ईश्वर का प्रायः पूर्ण सत्यस्वरूप भी वेद और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ही अध्येता को होता है।

 

हमने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को वेदों का द्वार बताया है। सत्यार्थप्रकाश वेदों का द्वार इसलिये है कि जो भी मनुष्य सत्यार्थप्रकाश को पढ़ता है वह वेदों के सम्बन्ध में प्रायः सभी बातों व वेदों के सिद्धान्तों को जान लेता है। सत्यार्थप्रकाश में वेदसम्मत ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप व गुण, कर्म, स्वभाव सहित सृष्टि रचना से संबंधित सभी प्रमुख बातों को प्रस्तुत किया गया है। स्वामी जी के समय में ईश्वर के प्रचलित अनेक नामों से लोगों को अनेक ईश्वर के होने का भ्रम होता था। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के एक सौ से कुछ अधिक नामों की व्याख्या करके सिद्ध किया है कि ईश्वर एक ही है, वह दो, तीन या अधिक नहीं है। ईश्वर के सभी नाम उसके गुण, कर्म, स्वभाव व संबंधों पर आधारित हैं। दूसरे समुल्लास में बाल शिक्षा की चर्चा है और इसके साथ ही भूत प्रेत आदि का निषेध किया गया है। इसी समुल्लास में फलित ज्योतिष की मिथ्या बातों की समीक्षा भी की गई है। तीसरे समुल्लास में अध्ययन अध्यापन का विषय प्रस्तुत किया गया है। इसमें गायत्री वा गुरूमन्त्र की व्याख्या भी की गई है जो कि उनके समय में उपासकों को उपलब्ध नहीं होती थी। आज यही व्याख्या विश्व में सर्वत्र प्रचलित है। प्राणायाम की शिक्षा सहित सन्ध्या एवं अग्निहोत्र विषयक चर्चा भी इस समुल्लास में है। इसके साथ ही उपनयन, ब्रह्मचर्य विषयक उपदेश, पढ़ने पढ़ाने की विधि, प्रमाणिक व अप्रमाणिक ग्रन्थों के परिचय सहित स्त्री व शूद्रों के अध्ययन की विधि पर भी इस तीसरे समुल्लास में प्रकाश डाला गया है। चौथे समुल्लास में समार्वतन, विवाह, स्त्री-पुरूष की परीक्षा, अल्पायु में विवाह का निषेध, गुणकर्मानुसार वर्णव्यवस्था, स्त्रीपुरूष व्यवहार, पंचमहायज्ञ, गृहस्थधर्म, पण्डित के लक्षण, मूर्ख के लक्षण, पुनर्विवाह व नियोग विषयों सहित गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है।

 

सत्यार्थप्रकाश के पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ व संन्यासाश्रम की विधि का वर्णन है। छठे समुल्लास में राजधर्म से सम्बन्धित सभी विषयों का विस्तार से वर्णन है व इसकी व्यवस्थायें सम्मिलित की गई हैं। सातवें समुल्लास में ईश्वर, जीवात्मा सहित वेद के संबंध में विस्तार से विचार किया गया है व वैदिक सिद्धान्तों को तर्क वितर्क द्वारा सत्य सिद्ध करते हुए समझाया गया है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि उत्पत्ति व  सृष्टि की आदि में मनुष्यों की प्रथम उत्पत्ति पृथिवी के किस स्थान पर हुई थी, इनका समाधान करने के बाद आर्य मलेच्छ व्याख्या और ईश्वर का सृष्टि को धारण करना आदि विषयों को सम्मिलित किया है। नवम् समुल्लास में विद्या तथा अविद्या के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है और जीवात्मा के बन्धन व इसके मोक्ष को भी प्रमाणों व युक्तियों के साथ समझाया गया है। दसवें समुल्लास में आचार अनाचार विषय के साथ भक्ष्य तथा अभक्ष्य पदार्थों का भी शास्त्रीय व तर्क-युक्ति संगत ज्ञान दिया गया है। सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के समुल्लास 11 से 14 वेदमत से इतर भारतीय व अन्य देशीय मतों की समीक्षा व खण्डन-मण्डन से संबंधित हैं जिससे पाठकों को सभी मतों का सत्य ज्ञान प्राप्त कराना है।

 

सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर मनुष्य वेदों की प्रायः सभी मान्यताओं व सिद्धान्तों से परिचित हो जाता है। इसके बाद यदि वह वेद भाष्यों की सहायता अथवा अपने संस्कृत के ज्ञान के द्वारा वेदों का अध्ययन करता है तो उसे वेदों को यथार्थ रूप में समझने व जानने में सहायता मिलती है। यदि वह सत्यार्थप्रकाश न पढ़े तो उसे वेदों के यथार्थ अर्थों वा सत्यार्थ को समझने में कठिनाई होती है। अतः सृष्टि की आदि में ईश्वर द्वारा मनुष्यों की उन्नति व अविद्या की निवृति के लिये दिये गये वेदज्ञान को जानने के लिए सभी मनुष्यों को वेदाध्ययन करना चाहिये और वेदाध्ययन से पूर्व सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये। यदि नहीं पढ़ेंगे तो वह वेदों के सत्यार्थ को नहीं जान सकेंगे। सत्यार्थप्रकाश निःसन्देह वेदों में प्रवेश करने का द्वार है। इसी से होकर वेद में प्रवेश करने से वेदों का पूरा लाभ पाठकों को प्राप्त होता है।

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