“वैदिक जीवन ही श्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम है”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

एक परमात्मा ने ही समस्त संसार के मनुष्यों एवं इतर प्राणियों को बनाया है। लोगों ने समय-समय पर अपनी बुद्धि
के अनुसार अज्ञान दूर करने तथा मनुष्य समाज को सुखी करने के लिये मत, पन्थ
व संस्थाओं की स्थापना की। यह सर्वमान्य तथ्य है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है।
वेदज्ञान से रहित मनुष्य में अल्पज्ञता वेदज्ञानी की तुलना में कहीं अधिक होती
है। अतः उसके द्वारा स्थापित संस्थाओं के सिद्धान्तों व नियमों आदि में कमियों
का होना स्वभाविक है। सभी मनुष्यों का यह कर्तव्य होता है कि वह आत्म-मन्थन
करते रहें और अज्ञान, अविद्या व अपनी संस्थाओं के भ्रान्ति से युक्त नियमों व
मान्यताओं का वेदाध्ययन कर अथवा अपने चिन्तन से प्राप्त निष्कर्षों के आधार
पर सुधार करते रहे। महाभारत के बाद के संसार के इतिहास पर दृष्टि डालें तो ऐसा
ज्ञात होता है कि संसार में समय-समय पर धार्मिक एवं सामाजिक संस्थायें तो अनेक स्थापित हुईं परन्तु उनके द्वारा अपनी
मान्यताओं की परीक्षा व उसमें सुधार के प्रयत्न किये जाते कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। इसी कारण संसार में आपाधापी मची
हुई है। भारत में यह स्थिति कुछ अधिक है क्योंकि यहां संविधान ने मनुष्यों को जो स्वतन्त्रता संबंधी जो अधिकार दिये हुए हैं
उसका सदुपयोग न कर दुरुपयोग भी किया जाता है। मिथ्या तर्कों एवं युक्तियों के आधार पर कुछ बुद्धिमान और चालाक
लोग धार्मिक एवं सामाजिक संस्थायें बनाकर लोगों का आर्थिक शोषण करते हैं। संस्थाओं में देखने को मिलता है कि निर्धन
व्यक्ति धनवान धार्मिक गुरुओं को धन दान देते है जिससे वह सुख भोगते हैं और उनका निर्धन अनुयायी सुख व उन्नति की
आशा में अपना जीवन बिताता है जो किसी को शायद ही प्राप्त होती है।
संसार में अनेक मत एवं सम्प्रदाय हैं। आश्चर्य है कि यह सब धर्म नहीं है। धर्म तो सब मनुष्यों का एक है और वह श्रेष्ठ
गुणों के धारण सहित सर्वांगीण विषयों के सत्य ज्ञान व उसके अनुरूप आचरण को कहते हैं। विभिन्न मतों की मान्यताओं एवं
उनके अनुयायियों के जीवन पर दृष्टि डालें तो हमें वेदानुकूल वैदिक जीवन ही सबसे उत्तम प्रतीत होता है। इसके अनेक कारण
हैं। इस लेख में हम वैदिक जीवन की विशेषताओं पर ही विचार कर रहे हैं। वैदिक जीवन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि
उसके पास सृष्टि की आदि में लगभग 1.96 अरब वर्ष पूर्व ईश्वर प्रदत्त चार वेदों का ज्ञान है। वेदों का यह ज्ञान सत्य की कसौटी
पर शत-प्रतिशत खरा है। हमारा और आज के मनुष्यों का ज्ञान अत्यन्त सीमित है। उच्च शिक्षित लोग भी वेदों से दूर होने के
कारण वेदों के ज्ञान के महत्व का अनुमान नहीं कर सकते। वेदों के महत्व को जानने के लिये हमें अपने कुसंस्कारों को हटाकर
सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उपनिषद, दर्शन, वेदांग एवं वेदों का अध्ययन करना होगा। ऐसा करने से
मनुष्य के कुसंस्कार छूटेंगे। इसके बाद ही मनुष्य को वेदों का महत्व विदित हो सकता है। वेदों के स्वरूप को जान लेने पर ही
मनुष्य वेदों के महत्व को जानने के साथ इतर मत-मतान्तरों की न्यूनताओं एवं उनमें मिश्रित व विद्यमान अविद्या को भी
जान सकते हैं। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्य को ईश्वर व अपनी जीवात्मा के ज्ञान सहित संसार का एवं अपने कर्तव्यों व
अकर्तव्यों का यथार्थ बोध होता है। वेदाध्ययन से ईश्वर के सत्य स्वरूप अर्थात् उसके गुण, कर्म एवं स्वभाव को जान लेने पर
मनुष्य को अपनी न्यूनताओं एवं गुणों व अवगुणों का बोध भी होता है। वेदों के अध्ययन से मनुष्य को अपने दुर्गुणों, दुव्यस्नों
को दूर करने की प्रेरणा मिलती है। उसका आदर्श ईश्वर के गुण, कर्म एवं स्वभाव होते हैं जिनका वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में
वर्णन है। यह सत्य है कि वेदों तथा ऋषियों के उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों में ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप एवं गुणों
आदि का जो वर्णन है, वह मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में नहीं है। इसी कारण से वेदज्ञान एवं वैदिक जीवन को श्रेष्ठ एवं उत्तम कहा
जाता व माना जाता है। अतः वेदाध्ययन से मनुष्य को अपने गुण, कर्म व स्वभाव को ईश्वर के सदृश्य व अनुरुप बनाने की

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प्रेरणा मिलती है। इसके लिये वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं योगदर्शन की रीति से ईश्वर के गुणों का ध्यान व चिन्तन करना
आवश्यक है। इसी को हम धारणा व ध्यान कहते हैं। इस प्रक्रिया का पालन करने से ही मनुष्य के दुर्गुण एवं दुर्व्यस्न दूर होकर
उसमें ईश्वर के गुणों के अनुरूप संस्कारों का आधान व प्रवेश होता है। इस कारण से वैदिक जीवन श्रेष्ठ एवं उत्तम होता है
क्योंकि इसमें दुर्गुणों के त्याग एवं ईश्वर के ध्यान व उपासना के द्वारा सत्य का ग्रहण किया जाता है।
वैदिक जीवन को प्राप्त मनुष्य ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी उपासना करता है जिससे उसे ईश्वर का
सहाय प्राप्त होता है। ईश्वर सर्वशक्तिमान होने सहित सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी भी है। इससे ईश्वर मनुष्य के जीवात्मा
को प्रेरणा देकर उसे सन्मार्ग में प्रवृत्त कर उसकी रक्षा करने सहित उसके जीवन की उन्नति करने में सहायक होते हैं। वैदिक
जीवन मनुष्य को सत्य को धारण करने और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करता है। वैदिक जीवन वस्तुतः सत्य के धारण
व असत्य व अविद्या को छोड़ने का पर्याय वा जीवन होता है। सत्याचरण ही मनुष्य का धर्म है और यही जीवन उन्नति का
आधार भी है। अतः वैदिक जीवन ही मनुष्य को जीवन उन्नति सहित सभी सुखों को प्राप्त कराने में सहायक होता है। वैदिक
धर्मी यह जानता है कि सुख का आधार धर्म होता है। आवश्यकतानुसार धन तो सभी मनुष्यों को चाहिये, परन्तु अत्यधिक धन
मनुष्य के सुखों को बढ़ाने के स्थान पर कम करता हुआ भी दृष्टिगोचर होता है। अधिक धन से मनुष्य अधिक सुखों का भोग
करने में प्रवृत्त होता है जिससे वह अल्पकाल में रोगी व अल्पायु होकर दुःखों से ग्रस्त रहकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस
कारण अधिक धन जीवन में उपयोगी न होकर हानिकारक भी होता है। ईश्वर की वेदों में आज्ञा है कि मनुष्य लोभ से मुक्त
होकर त्यागपूर्वक जीवन जीये। परिग्रह से युक्त जीवन मनुष्य को ईश्वर तथा धर्म से दूर करता है। ऋषि दयानन्द के साहित्य
एवं धर्म का अध्ययन करने से भी यह ज्ञान होता है कि जो सुख वेदज्ञानी व समाधि प्राप्त योगी मनुष्य को होता है उतना सुख
किसी धनवान व अन्य मनुष्य को नहीं होता। ज्ञान का मुख्य अर्थ धर्म के ज्ञान से होता है। अतः हमें धर्म को जानकर व उसका
आचरण कर ही सुख कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं।
वैदिक सिद्धान्त यह है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति अनादि, नित्य व अविनाशी सत्तायें है। जीवात्मा का लक्ष्य मोक्ष
की प्राप्ति है। सभी जीव मोक्ष प्राप्ति की यात्रा कर रहे हैं जिसका आरम्भ अनादि काल से हुआ है और अनन्त काल तक जारी
रहेगा। इस कारण हमारे निरन्तर जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। मोक्ष की प्राप्ति वेदज्ञान को प्राप्त होकर उसके अनुसार आचरण
करने से ही होती है। मोक्ष का अर्थ आनन्द व असीम सुख है। ईश्वर की आनन्द की अवस्था एक प्रकार से मोक्ष की अवस्था के
समान बताई जाती है। जिस प्रकार से ईश्वर अपने अनन्त ज्ञान व अनन्त सामर्थ्य से सदैव आनन्द की स्थिति में रहते हैं उसी
प्रकार मोक्ष में जीवात्मा जन्म और मृत्यु के बन्धन व चक्र से मुक्त होकर सर्वव्यापक ईश्वर के सान्निध्य में सुख व आनन्द
को भोगते हैं। सभी भौतिक सुख अस्थाई होते हैं परन्तु मोक्ष में ईश्वर के सान्निध्य का सुख व आनन्द 31 नील वर्षों से भी
अधिक अवधि का होता है। यही कारण था व है कि हमारे सभी विद्वान, ऋषि-मुनि एवं योगी अपना जीवन वेदाध्ययन सहित
ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ एवं परोपकार के कर्मों को ही करने में बिताते थे। यही वास्तविक वैदिक जीवन होता है जिसका
गृहस्थ जीवन में रहकर भी पालन किया जा सकता है। हमारे अनेक ऋषि ऐसे हुए हैं जो गृहस्थी रहे हैं और उन्होंने गृहस्थ
जीवन में अनेक उपलब्धियों को प्राप्त किया। सृष्टि की आदि में हुए ब्रह्मा जी और जगत में विख्यात महाराज मनु भी गृहस्थी
थे। हमारे वैदिक जीवन के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं योगेश्वर श्री कृष्ण भी सद्गृहस्थी थे। अतः गृहस्थ जीवन में
रहकर भी हम ऋषि एवं योगियों के समान जीवन व्यतीत कर सकते हैं। आर्यसमाज में हमें ऐसे गृहस्थी मिल जाते हैं जिनके
जीवन व साधनाओं को देखकर आश्चर्य होता है। ऐसे ही एक सद्गृहस्थी हमें कीरतपुर-बिजनौर के श्री दीपचन्द आर्य जी प्रतीत
होते हैं। श्री दीपचन्द आर्य जी ने गृहस्थ जीवन में रहकर ईश्वरोपासना एवं वैदिक यज्ञों को करने के साथ सामाजिक संस्थाओं
को दान आदि से पोषण देकर मजबूत किया। उनका यश सर्वत्र देखा जा सकता है। हमने उनके जीवन का अध्ययन करने
सहित उन पर एक लेख भी लिखा है जिससे हमें उनके उच्च मानवीय तपस्वी एवं साधु जीवन को जान पाये हैं और हमारे हृदय

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में उनके प्रति गहरी श्रद्धा के भाव हैं। उनका परिवार भी उन्हीं की तरह सद्गुणों से युक्त है। हमें भी ऐसे लोगों व महापुरुषों के
जीवन का अध्ययन कर उनके अनुसार स्वयं का जीवन ढालना चाहिये।
वैदिक जीवन में ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार के यथार्थस्वरूप को जानने का अवसर मिलता है। वैदिक धर्म ने हमें
तर्क एवं युक्तिसंगत कर्मफल सिद्धान्त सहित पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी दिया है। मनुष्य जीवन में सद्कर्म करने से
उन्नति तथा अशुभ एवं पाप कर्म करने से अवनति होती है। दुःख का कारण हमारे पाप कर्म ही मुख्यतः होते हैं। अशुभ कर्मों का
त्याग कर हम जीवन में सुख प्राप्ति सहित अपने परजन्मों को भी सुधार सकते हैं। वैदिक धर्म हमें यह भी बताता है कि संसार
में जितनी पशु-पक्षियां आदि निम्न योनियां हैं वह सब मनुष्य जन्म में सद्कर्मों को न करने के कारण ही उन्हें प्राप्त हुई हैं।
वैदिक धर्म में इसका शास्त्र प्रमाण, तर्क व युक्ति से निश्चयात्मक ज्ञान कराया जाता है। मनुष्य जीवन की उन्नति वैदिक धर्म
का पालन करने से होती है। अन्यत्र वेद जैसा ज्ञान न होने से हम जाने-अनजाने में अनेक पापकर्म भी करते हैं जिसका परिणाम
जन्म-जन्मान्तरों में दुःख होता है। अतः हमें वैदिक जीवन को अपनाना है व सभी लोगों को इसको अपनाने की प्रेरणा वा प्रचार
करना है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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