आपसी मिल्लत की मिसाल और महान योद्धा थे 1857 गदर के महानायक वीर कुंवर सिंह

(23 अप्रैल कुंवर सिंह के विजयोत्सव पर विशेष)

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

इतिहास में तथ्यों को आधार मानकर बीते कल को बयां किया जाता है। घटना के साक्षी कई पात्र होते हैं और घटनाओं के साथ-साथ कई घटनाएं चलती रहती हैं। 1857 का विद्रोह आजादी की लड़ाई के लिए एक रास्ता दिया और उन कमियों की ओर भी इंगित किया जिसके आधार पर आगे रणनीति बन सकी। इन महानायकों ने कम समय के विद्रोहकाल में भी अपने नायकत्व को अपने बलिदान से, अपने समर्पण से इस कदर लोगों के दिलों में जगह बनायी कि आज भी वो अमर हैं।

वीर कुंवर सिंह की वीरता जगजाहिर है मगर उनकी प्रेमकथा से लोग अनभिज्ञ हैं। वीर कुंवर सिंह के अनछुए पहलुओं में उनकी प्रेमकथा अपने आप में मिसाल है। जहां लोग जाति-धर्म, ऊंच-नीच के पचड़े में पड़े हुए हैं उससे उपर उठकर उन्होंने एक मुस्लिम नर्तकी की कला के इतने मुरीद हुई की, आगे चलकर उसे अपना हमसफर बना लिया। बाबू साहब के जिंदगी में धर्मन आती है और एक राजा के पूरे जीवन चरित्र को दूसरी धारा दे देती है, जो आगे चलकर 1857 के गदर के महानायक के रुप में उभरकर सामने आए, वो कोई और नहीं बल्कि वो थे रण बांकुरे वीर कुंवर सिंह।

1857 का युद्ध पहला मौका प्रतित होता है जहां हिंदू और मुस्लमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद करते हैं। यह दौर शोषक बनाम शोषित था। 1857 के उस भारतीय कालचक्र का असर दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों पर विशेषरुप से पड़ी। जिसकी वजह से देश के अंदर और देश के बाहर स्वतंत्रता की आवाज बुलंद हुई।

अंग्रेजी हुकूमत ने हिंदू-मुस्लिम में फूट डालने के उद्देश्य से बमों में चमड़े का प्रयोग किया, जिसका हिंदुस्तानी सिपाहियों ने विरोध किया। इसी का नतीजा रहा कि मेरठ में मंगल पांडेय ने सिपाही विद्रोह कर दिया। उसकी लपट पूरे देश में जंगल में आग की तरह फैल गई। वैसे तो देश के रियासतों ने मिलकर बहादुरशाह जफर को सामूहिकतौर पर अपना नेता मान लिया। लेकिन निर्धारित तिथि से पूर्व हुई विद्रोह ने पूरी स्थिति को छिन्न भिन्न करके रख दिया।

बिहार के भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर रियासत के रण बांकुरे वीर कुंवर सिंह, धरमन बीबी के साथ जंग लड़ने की तैयारी में जुटे हुए थे। उसी दरम्यान 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और यहां से ललकारते हुए आरा होते हुए जगदीशपुर कूच कर गए। छावनी के सिपाही और भोजपुरी ग्रामीण जवानों ने कुंवर सिंह के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा जमा लिया। यानी अंग्रेजों की पूंछ पर पैर रख दिया। अंग्रेज उबलने लगे, उनको लगा कि इनके फन को नहीं कुचला गया तो आगे भी ये विद्रोह करेंगे। 

अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। बाबु कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते हुए जीत का परचम लहराते हुए आगे बढ़ रहे थे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, ‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी।

1857 के गदर में नर्तकियों की जो भूमिका है उसे भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है। कुंवर सिंह के साथ युद्ध में उनकी प्रेयसी धरमन बीबी, करमन बीबी और बाबू साहब के पोते की रणनीति ने ऐसी रार मचायी की 9 माह के युद्ध में 15 युद्धों में कभी पराजय का मुंह नहीं देखने को मिला। हां, ये जरुर हुआ कि इस युद्ध में बाबू साहब ने अपनो को जरुर खो दिया।

बाबू साहब भले ही पढ़े लिखे कम थे, मगर उनकी कार्यशैली पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता था। जाति और धर्म से परे रहने वाले ऐसे प्रणेता थे बाबू साहब की धरमन जैसी ईमान्दार और देश भक्त नर्तकी ने उनके उदास पड़ी जिंदगी को रंगीन तो किया ही देश की आजादी में दोनों बहन धरमन और करमन ने बाबू साहब के साथ मिलकर अपने जान तक को न्योक्षावर कर अपनी लहू से आजादी की इबारत लिखने में कामयाब रहीं।

युद्ध करते-करते 9 माह बीत चुके थे कुंवर सिंह अकेला महसूस कर रहे थे। उन्हें कुछ यादें सता रही थीं। वो चाहते थे कि कैसे हम अपनी मिट्टी को एक बार फिर से चूम लें। 23 अप्रैल 1858 को लौटने लगे, गंगा पार करते वक्त गुप्तचर की सूचना पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया जिसमें बाबू साहब का घायल हो गए। फिर क्या उस वीर योद्धा ने अपने ही तलवार से अपनी बांह को काटकर गंगा मईया को सुपुर्द कर दिया।

जगदीशपुर रियासत और आरा को जीत तो लिया मगर कटे हाथ में जहर बहुत ज्यादा फैलने की वजह से 26 अप्रैल को बाबू साहब हमेशा-हमेशा के लिए सो गए….रह गई तो उनकी कीर्तियां, उनकी मोहब्बत…जिसने समाज में आपसी मिल्लत की मिसाल कायम की।

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