कविता के उपनिवेश का अंत और नागार्जुन

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

साइबरयुग में कविता और साहित्य को लेकर अनेक किस्म की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। कुछ लोग यह सोच रहे हैं लोकतंत्र में कविता या साहित्य को कैद करके रखा जा सकता है ? यह सोचते रहे हैं कि साहित्य हाशिए पर पहुँच गया है।लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है। इसके विपरीत साहित्य और कविता का विस्तार हुआ है। इसके अलावा आधुनिककाल में नवजागरण के साथ तर्क की महत्ता और तर्क के दायरे में सब कुछ

रखकर सोचने की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसने तर्क,अतर्क,विवेक आदि को लेकर लंबी बहस खड़ी की है। आलोचकों ने साहित्य में रेशनल और लोकतंत्र का मायाजाल भी खड़ा किया है। ये आलोचक विद्वान यह भूल गए कि इस संसार को रेशनल में कैद नहीं रखा जा सकता है। नागार्जुन की कविता इसी परंपरा में आती है जो रेशनल के उपनिवेश में नहीं सोचते। रेशनल के उपनिवेश में सोचने वालों का हिन्दी की पहली परंपरा से लेकर दूसरी परंपरा और बाद में पैदा हुईं तीसरी और चौथी परंपरा में भी बोलवाला है।

साहित्य को परंपरा की कोटि में बांधना एक तरह रेशनल की केटेगरी में ही बांधना है। नागार्जुन हिन्दी के अन्तर्विरोधी कवि हैं इन्हें आप रेशनल के दायरे में कैद नहीं कर सकते। बाबा की कविता का समाजवादी रूप किसी को अपील करता है तो किसी को बुर्जुआ लोकतंत्र को नंगा करने वाला रूप आकर्षित करता है। किसी को संपूर्ण क्रांति वाला तो किसी को आपात्काल विरोधी,किसी को बाबा में बुर्जुआ लोकतंत्र के प्रति आकर्षण दिखाई देता है। मजेदार बात यह है कि बाबा के यहां ये सारी प्रवृत्तियां हैं।

बाबा की कविता में एक खास किस्म का उन्माद है। वे जिस पर भी लिखते हैं उन्मादित भाव में लिखते हैं। वे कविता में उन्मादी भाव पैदा करके कविता के बहाने आम आदमी के साथ संवाद करते हैं। साहित्य और उन्माद के अंतस्संबंध की एक झलक देखें- उनकी एक कविता है ‘‘भूल जाओ पुराने सपने’’(1979), इसमें कहते हैं- ‘ सियासत में/ न अड़ाओ / अपनी ये काँपती टाँगें/ हाँ,महाराज/ राजनीतिक फतवेबाजी से / अलग ही रक्खो अपने को / माला तो है ही तुम्हारे पास / नाम-वाम जपने को / भूल जाओ पुराने सपने को।’

इसी तरह ‘‘जपाकर ’’ ( 1982) शीर्षक कविता में लिखा- ‘ जपाकर दिन-रात/ जै जै जै संविधान/ मूँद ले आँख-कान/ उनका ही दर ध्यान/ मान ले अध्यादेश/ मूँद ले आँख-कान/ सफल होगी मेधा/ खिचेंगे अनुदान/ उनके माथे पर / छींटा कर दूब-धान/ करता जा पूजा-पाठ/ उनका ही धर ध्यान/ जै जै जै छिन्मस्ता/ जै जै जै कृपाण/ सध गया शवासन/ मिलेगा सिंहासन।’

यहां पर बाबा ने कविता में एक नयी भाषा का प्रयोग किया है यह लोकतंत्र के आत्मविध्वंस की भाषा है। इसके बहाने बाबा ने लोकतंत्र,संविधान आदि के खोखलेपन को व्यक्त किया है। इसी क्रम में ‘‘ अपना देश महाऽऽन’’ (1979) शीर्षक कविता लिखी,इसकी बानगी देखें-

‘ अपना यह देश है महाऽऽन!

जभी तो यहाँ चल रहा भेड़िया धसाऽऽन!

शब्दों के तीर हैं जीभ है कमाऽऽन!

सीधे हैं मजदूर और बुद्धू हैं किसाऽऽन!

लीडरों की नीयत कौन पाएगा जाऽऽन

अपना यह देश है महाऽऽन।’

यहां लोकतंत्र के तर्क के परे ले जाकर भाषा के रूपान्तरणकारी प्रयोग के जरिए बाबा ने अपनी बात को रखा है। यह कविता ऐसे समय में लिखी गयी जब चारों ओर लोकतंत्र की जय जय हो रही थी। लोकतंत्र से भिन्न किसी अन्य आधार पर लेखक-आलोचक सोचने को तैयार नहीं थे। वह आपातकाल के बाद का दौर था । यहां कविता,समाज, राजनीति और लोकतंत्र के अन्तस्संबंध की ऐतिहासिकता को बनाए रखकर बाबा ने अपनी बात की है। वे लोकतंत्र के खोखलेपन को गंभीरता के साथ महसूस करते हैं और लोकतंत्र के लिए उनके अंदर गहरी तड़प भी थी,लेकिन वे लोकतंत्र के दायरे में कैद रहकर सोचने और लिखने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें लोकतंत्र में आजादी नहीं उपनिवेश की गंध आती थी। लोकतंत्र में वे गुलामी का भाव महसूस करते थे।वे जब भी लोकतंत्र पर लिखने जाते थे तो उन्हें लोकतंत्र के खोखलेपन का अहसास होता था।

आदमी,समाज, राजनीति,मूल्य आदि सभी क्षेत्रों में लोकतंत्र का खोखलापन महसूस होता था। लोकतंत्र की भाषा खोखली नजर आती थी। बाबा जब भी अपनी काव्यभाषा चुनते हैं तो उसमें देज चलताऊ भाषा का ज्यादा प्रयोग करते हैं। लोकतंत्र के पदबंधों,संकेतों,प्रतीकों आदि का ज्यादा प्रयोग करते हैं। लेकिन वे लोकतंत्र की समृद्धि की बजाय खोखलेपन की ओर ध्यान खींचते हैं। वे जब भी लोकतंत्र के संकेतों को उठाते हैं उसके साथ में उसकी परिस्थितियों को भी व्यक्त करते हैं। वे लोकतंत्र को व्यक्ति की तरह देखते हैं,जिस तरह व्यक्ति के अस्तित्व को देखते हैं,बाबा वैसे ही लोकतंत्र के अस्तित्व के ऊपर विचार करते हैं। वे कविता को भी व्यक्ति की तरह देखते हैं। उसे ऐतिहासिक सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के बाहर ले जाते हैं। वे कविता को ऐतिहासिक परिस्थितियों से बांधकर नहीं देखते बल्कि उसके परे ले जाते हैं। मसलन ‘‘ शताब्दी-समारोह’’ (1980) कविता देखें-

‘दिन है-/शताब्दी -समारोह के समापन का/दिन है-/पंडों की धूमधाम का ,विज्ञापन का/दिन है-/प्रतिबद्धता के व्रत-उद्यापन का/ दिन है-/ धान रोपने का,सावन का/दिन है-/स्मृतियों की सरिता में प्लावन का।’

बाबा की कविता को आमतौर पर आलोचकों ने ऐतिहासिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों से बांधकर देखा है,जबकि बाबा का नजरिया कविता को ऐतिहासिक सामाजिक परिस्थितियों से बांधकर देखने का नहीं है। वे ऐतिहासिक परिस्थितियों के परे ले जाते हैं। इसके लिए वे भाषा का इस्तेमाल करते हैं। भाषा उन्हें ऐतिहासिक परिधि के बाहर ले जाती है। फलतः कविता के अर्थ को भी ऐतिहासिक परिस्थितियों के परे ले जाते हैं। वे लोकतंत्र के प्रतीकों का विलक्षण ढ़ंग से इस्तेमाल करते हैं। वे लोकतंत्र पर लिखी कविताओं में उसकी स्ट्रेंजनेस पर ध्यान खींचते हैं। वे लोकतंत्र के अर्थ को अन्य जगह स्थानान्तरित कर देते हैं। लोकतंत्र के अर्थ का अन्यत्र स्थानान्तरण अंततः उन्हें लोकतंत्र की कैद से बाहर ले जाता है। बाबा ने लोकतांत्रिक कविता की नयी संरचना को निर्मित किया है। इस संरचना

में कविता का आंतरिक और बाहरी तंत्र एकदम खुला रहता है। इसमें सत्यता ,गांभीर्य ,नैतिकता, पारदर्शिता और स्वाभाविकता पर जोर है। इससे ही लेखक की प्रामाणिक इमेज बनी है। इसके आधार पर ही वे कविता को लोकतंत्र के दायरे के परे ले जाते हैं। वे अपनी कविता में आमफहम बातचीत के शब्दों का ज्यादा प्रयोग करते हैं। वे कविता को शब्द के लिखित अर्थ के परे ले जाते हैं। वे लोकतंत्र पर लिखी कविताओं के जरिए लोकतंत्र की समस्त वैध परिभाषाओं की धज्जियां उड़ाते हैं। वे लोकतंत्र के मसलों पर चुप नहीं रहते । लोकतंत्र में लेखक यदि चुप रहता है तो उसके बारे में गॉसिप का बाजार गर्म होने की संभावनाएं रहती हैं।

बाबा ने लोकतंत्र के प्रत्येक बड़े प्रसंग पर लिखा है। उनकी लोकतंत्र संबंधी कविताओं के दो स्तर हैं ,पहले वर्ग में उन कवियाओं को रखा जा सकता है जिनमें उन विषयों को उठाया गया है जो लोकतंत्र की वैधता को चुनौती देते हैं। लोकतंत्र की प्रामाणिकता पर संदेह बढ़ाते हैं। इस वर्ग में वे कविताएं आती हैं जो दर्शक के भाव से लिखी गयी हैं। दूसरे वर्ग में वे लोकतंत्र के बारे में जजमेंट करते हैं। उसके बारे में फैसले सुनाते हैं। इस क्रम में वे लोकतंत्र को कविता में दर्ज करते चले जाते हैं। लोकतंत्र में उत्पीड़न, हिंसा आदि पर लिखी उनकी कविताएं इसी कोटि में आती हैं। इनमें वे व्यक्ति के निजी कष्टों, निजी उत्पीडन को सामाजिक बनाते हैं। इस बहाने वे लोकतंत्र को बेपर्दा करते हैं। लोकतंत्र के उत्पीड़न पर लिखी उनकी कविताएं बेहद महत्वपूर्ण हैं। उनकी रीडिंग भिन्न ढ़ंग से की जानी चाहिए। वे उत्पीड़न पर लिखी कविताओं के बहाने पीड़ित के दर्द को उभारने के साथ-साथ लोकतंत्र के दर्द को उभारते हैं। निजी दर्द को लोकतंत्र के दर्द में तब्दील कर देते हैं। इस तरह की कविताओं के जरिए बताते हैं कि हमारा देश अभी पूर्व आधुनिक युग में है। उत्पीड़न का दर्द उन्हें आधुनिक लोकतंत्र के अंदर सक्रिय पूर्व आधुनिकता की अवस्था की ओर ले जाता है। बाबा के लिए लोकतंत्र एक संकेत या साइन है। वे एक प्रतीक की तरह उसका रूपायन करते हैं। लोकतंत्र की संकेत की तरह नजरदारी करते हैं। उनके यहां लोकतंत्र एक सिस्टम की तरह नहीं आता बल्कि संकेतों के बहाने अनुभूति के रूप में आता है. वे लोकतंत्र के बारे में अपनी अनुभूतियों को शेयर करते हैं और फिर उनके बहाने लोकतंत्र पर नजरदारी करते हैं। वे जब अपनी लोकतंत्र संबंधी अनुभूतियों को पेश करते हैं तो जाने-अनजाने कई जगह आत्म-स्वीकृतियां व्यक्त हुई हैं। कविता में व्यक्त आत्म-स्वीकृतियों में उनकी लोकतंत्र के प्रति असहमतियां रूपायित हुई हैं।

बाबा के लिए लोकतंत्र कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसमें सब कुछ पवित्र है,सुंदर है, सहज प्राप्य है। मसलन लोकतंत्र के प्रतीकों को ही लें। लोकतंत्र में वोट डालना परम पवित्र है। वोट मांगना और उसके लिए प्रचार करना,जनता की तारीफ करना,लोकतंत्र की महानता के गीत गाना और नेता की उपलब्धियों का प्रचार करना एक आम रिवाज है। आम तौर पर मतदाता की महानता पर चुनाव के समय बहुत कुछ कहा जाता है। इस प्रौपेगैण्डा के तिलिस्म के परे जाकर बाबा ने ‘‘ इतना भी क्या कम है प्यारे’’ (1979) शीर्षक कविता लिखी है। यह कविता कई मायनों में महत्वपूर्ण है पहलीबार इस कविता के जरिए वोट की राजनीति में आए नए परिवर्तनों को कलमबंद किया गया है। यह कविता 1979 की है। वोटरों की तुलना इस कविता में बाबा ने ‘लाश’ से की है । लिखा है- ‘ लाशों को झकझोर रहे हैं/ मुर्दों की मालिश करते हैं/ …ये भी उन्हें वोट डालेंगी ! / ’’ जीत पर बाबा ने लिखा- ‘ लाशें भी खुश-खुश दीखेंगी/मुर्दे भी खुश-खुश दीखेंगे/ उनकी ही सरकार बनेगी/’’ लोकतंत्र में आलोचना और प्रतिवाद की महत्ता होती है उसके प्रति उपेक्षाभाव नहीं रखना चाहिए। बाबा ने लोकतंत्र के मतपत्र को बेसन की उपमा दी है। यह बड़ी ही अर्थपूर्ण उपमा है। लिखा है- ‘‘ मत-पत्रों की लीला देखो/ भाषण के बेसन घुलते हैं/ प्यारे इसका पापड़ देखो/प्यारे इसका चीला देखो/ चक्खो,चक्खो पापड़ चक्खो/गाली-गुफ्ता झापड़ चक्खो/मनपत्रों की लीला चक्खो/भाषण के बेसन का ,प्यारे ,चीला चक्खो…/’’बाबा की लोकतंत्र पर लिखी कविताओं की विशेषता है वे लोकतंत्र को अनुभव के आधार पर व्याख्यायित करते हैं। उसके मर्म के डिक्शनरी के आधार पर नहीं रचते बल्कि अनुभव के आधार पर रचते हैं। बाबा के लिए लोकतंत्र कोई परम पवित्र गंगा नहीं है। जिसमें नहाने के बाद सारे सामाजिक-राजनीतिक पाप धुल जाते हों!

बाबा ने लोकतंत्र को सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर बार बार परखा है और जीवन में व्यक्त यथार्थ को तरजीह दी है। इस क्रम में बाबा ने उस स्टीरियोटाईप को तोड़ा है जिसे मीडिया ने बनाया है और उसे ही हम लोकतंत्र का सच मान लेते हैं। मीडिया निर्मित लोकतंत्र पर विचारधारा की चादर ढकी रहती है जिसके कारण हम यथार्थ के साथ लोकतंत्र को सही मायने में जोड़कर देख ही नहीं पाते। हम लोकतंत्र के बारे में उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल करते हैं जो हमें मीडिया ने सप्लाई किए हैं। मीडिया प्रौपेगैण्डा ने समझाया है लोकतंत्र माने चुनी हुई सरकार,स्वतंत्र मतदान, निष्पक्ष चुनाव, स्वच्छ राजनीति,सांसदों और विधायकों की ईमानदारी आदि। बाबा को ये सारे स्टीरियोटाईप अपील नहीं करते। वे उसकी अलोकतांत्रिक परतें उघाड़ते हैं तो उसमें वे प्रच्छन्नतः एक बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि हमारे यहां लोकतंत्र तो है लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य नहीं है। डेमोक्रेसी है लेकिन डेमोक्रेट नहीं हैं। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है । लोकतंत्र तब ही सार्थक है जब लोकतांत्रिक मनुष्य भी हों। भारत में लोकतंत्र के महान जयघोष में लोकतांत्रिक मनुष्य का लोप हुआ है। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र बेजान है।

2 COMMENTS

  1. बाबा के विषय में आपका का यह लेख लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है क़ि क्या वोट क़ि राजनीती लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बचा पा रही है या उनका इस्तेमाल कर रही है?

  2. कवि का पूर्वाग्रह और विषयो के प्रति उसकी दृढ़ता पाठक को विमुख करती है. अगर कविता किसी भौतिकता की बजाय गहरी अध्यात्मिक चेतना के सहारे लिखी हो तो कविता पंखा बन जाती है. वह पाठक को उसके अपने भाव के साथ लम्बी उड़ान पर ले जाती है.

    अब तथाकथित “प्रगतिशील” कविता मन के सतह से नीचे नहीं उतर पाती. लेकिन सामाजिक यथार्थ पर लिखी कविताए समाज की रुधीवादिता पर गहरी चोट करती है तथा उसे निर्मल बनाती है.

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