राजीव रंजन प्रसाद
फेसबुक पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी का आलेख पढ रहा था जहाँ उन्होंने बडे ही कठोर शब्दों में लिखा है – “हिंदी में कठमुल्ले मार्क्सवादी वे हैं जो मार्क्सवाद को विकृत ढ़ंग से प्रचारित करते हैं। इनमें यह प्रवृत्ति होती है कि अपने विचार थोपते हैं”। वस्तुत: हिन्दी के हर नवोदित लेखक को अपने संघर्षकाल में कभी न कभी एसे कठमुल्लों से वास्ता पडता ही है जो आपके आगे सब्जबाग की दुनिया खडी करते हैं और उनके आगे निर्देशों की झडी लगा देते हैं कि उन्हें क्या लिखना चाहिये, किन पत्रिकाओं में छपना चाहिये, किन लोगों के बीच उठना बैठना चाहिये और किन सभाओं/कार्यक्रमों का बहिष्कार करना चाहिये। जगदीश्वर जी के प्रवक्ता डॉट कॉम के कार्यक्रम में भाग लेने के कारण कठमुल्ले वामपंथियों ने जो बहस खडी की है वह रोचक है। मेरे जेहन में सवाल है कि कि यदि विभिन्न विचार रखने वाले लोगों के बीच संवाद ही नहीं होंगे तो उस साम्यता के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकेगा जो हर धारा-विचारधारा का अंतिम लक्ष्य होता है…..क्या जहर फैला कर? पक्ष-विपक्ष और तर्क-वितर्क ही निष्कर्शों तक पहुँचते हैं न कि कौव्वों की भीड इकट्ठा कर कोई कौव्वा खुद ही घोषित कर ले कि हम ही सबसे सुन्दर और शक्तिशाली पक्षी हैं और सारी पक्षीतियत को हमारी तरह ही होना चाहिये; इससे वे गौरैय्यों का शिकार तो कर सकेंगे लेकिन मोर को दूर दूर से गरियाते भर रहेंगे बात आगे बढेगी नहीं। विविध विचारों वाले इस देश में बात हर तरह के मंच से होगी, खेमे बना कर आत्ममुग्ध रहने के समय चले गये। बहुत तेजी से मठ दरक रहे हैं और मठाधीशों के चेहरों के नकाब भी उतर रहे हैं।
प्रवक्ता के मंच से मैने भी वैचारिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति के लोकतंत्र पर ही बात की थी। कुछ कडुवे अनुभव थे जो साझा किये। मठ बनाने की कोशिश वेब की दुनिया ने भी की और ब्लॉग की सक्रियता के समय में एसा हुआ भी था। मैं एक खास मंच का नाम लेना नही चाहता लेकिन उससे जुडे अनुभव विमर्श के उद्देश्य से साझा कर रहा हूँ। अगर आपको वहाँ कुछ प्रकाशित चाहिये तो कंटेंट को उसके संपादक की मानसिकता से वैसे ही मैच कराना जरूरी है जैसे कि औरतें साड़ी से फॉल की मैचिंग कराती हैं। इसके बाद वो आपके परिचय को अपनी मर्जी से एडिट करेंगे आपके लेख का शीर्षक भी बदल कर आम से इमली कर देंगे; मर्जी उनकी। उसपर तुर्रा यह कि हम प्रगतिशील विचारधारा है। यह तो वैकल्पिक माध्यमों के विस्तार के साथ ही फेसबुक जैसे हथियार लेखकों के पास हस्तगत हुए जहाँ अपनी बात रखने के लिये किसी मंच की आवश्यकता ही नहीं रही। दो-धारी संवाद और शानदार विमर्श का खुला मंच; और इस तरह हर मठ दरका और कुछ तो बंद ही हो गये। यह स्वतंत्र विमर्श का समय है, तकनीक ने वह सुविधा दे रखा है कि अच्छा लेखन खुद ब खुद लोगों तक पहुँच जाता है और उसके लिये किसी सम्पादक की चिरौरी करने, किसी मठाधीश का मुँह ताकने अथवा किसी कठमुल्ले निर्देश का पालन करने की आवश्यकता ही नहीं। यहाँ खरा खरा ही टिकेगा नहीं तो खरा खरा सुनना भी पडेगा।
इस सम्बन्ध में प्रवक्ता जैसे वेब-माध्यमों ने अपनी घोषित विचारधारा के बाद भी एक रास्ता बनाया जहाँ विविध विचारों को स्थान दिया जाने लगा। इससे असंतोष भी उभरा, खींचतान भी हुई लेकिन सार्थक विमर्श ने जन्म लिया। अंतर्जाल के सामूहिक माध्यमों को स्वतंत्र विमर्श की जगह बनना ही होगा अन्यथा एक सकारात्मक अभिव्यक्ति आपका मुह ताकते थोडे ही बैठी रहेगी, यह फेसबुक पर सामग्री गयी, अथवा ट्वीट किया गया और हो गयी बात ग्लोबल। हिन्दी पत्रिकाओं ने बहुत दिनों तक मठाधीशी की है तथा उनका नशा अभी भी उतरा नहीं है। वैकल्पिक माध्यमों/ वैकल्पिक मीडिया को संजीदा से न लिये जाने की नौटंकी आज भी की जाती है तथा अपनी दूकान के पकवान की ओर रिझाने का सिलसिला चल रहा है। क्या विचारों के लोकतंत्र के बिना इन दूकानों के पकवानों में स्वाद होगा भी? बात जगदीश्वर जी के वक्तव्य से आरंभ की थी तो अंत भी उनके ही कथन से – “यह बताने की जरुरत नहीं है कि लोकतंत्र की सुविधाओं और कानूनों का तो हमारे वामपंथी-दक्षिणपंथी इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन लोकतांत्रिक नहीं होना चाहते और लोकतंत्र के साथ घुलना मिलना नहीं चाहते। लोकतंत्र सुविधावाद नहीं है”।