विजय और लक्ष्य में झूलती सपा

डॉ. आशीष वशिष्ठ

समाजवादी पार्टी नेताओं की चमचमाती लग्जरी गाडिय़ों के पीछे लगा पोस्टर विजय 2012, लक्ष्य 2014 समाजवादी पार्टी के बुलंद हौसले को दर्शाता है तो वहीं विरोधी दलों को चिढ़ाता भी है। विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद लाल टोपी धारी समाजवादियों का मनोबल सातवें आसमान पर है और अब उन्हें दिल्ली के राज सिंहासन के सिवाए मानों कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा है, जिससे पर वो अपने प्यारे नेताजी अर्थात सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को बैठे देखने का सपना आंखों में संजोए हैं। लेकिन पिछले तीन महीने से अधिक के कार्यकाल में समाजवादी पार्टी प्रदेश की जनता को यह अहसास नहीं करा पाई कि प्रदेश में सत्ता परिर्वतन हो चुका है। पिता मुलायम सिंह यादव ने सपा सरकार के सौ दिन पूरे होने पर भले चाहे पुत्र सीएम अखिलेश यादव को पूरे सौ अंक दे दें, लेकिन जनता की कसौटी पर सरकार ने खुद को अभी तक आंका और परखा नहीं है।

प्रदेश में दो उप चुनावों मांट विधानसभा और कन्नौज लोकसभा में पार्टी को अपनी लोकप्रियता का अहसास बखूबी हो चुका है। कन्नौज में डिम्पल यादव का निर्विरोध निर्वाचित होने को सपा अपनी लोकप्रियता और अपने पक्ष में हवा बह रही से नहीं जोड़ सकती है। मांट में सपा का तीसरे स्थान पर रहना सारी कहानी खुद ब खुद बयां करता है। स्थानीय निकाय चुनावों से पार्टी का प्रत्याशी ने उतारने यह साफ करता है कि पार्टी नेताओं को अंदर ही अंदर हार का डर सता रहा था और पार्टी लोकसभा चुनावों तक सेफ गेम खेलने के मूड में है। लेकिन इस दौरान आए दिन सपा सरकार जो गलतियां कर रही है वो आने वाले समय में उस पर भारी पडऩे वाली हैं। सपा सरकार की कार्यप्रणाली और निर्णयों से ऐसा आभास हो रहा है कि सपा विजय और लक्ष्य के बीच झूल रही है।

शाम सात बजे बाजार बंद करने और विधायक निधि से कार खरीदने के मामले में सरकार का चौबीस घंटे की भीतर ही अपने आदेश वापिस लेना अदूरदर्शिता और बचकानी हरकत के सिवाए कुछ और नहीं कहा जा सकता है। ये बात दीगर है कि अखिलेश अपने पूर्ववर्ती मायावती की तरह अडिय़ल या जिद्दी नहीं है जो अपने गलत निर्णय पर अडिग रहकर मनमानी करते रहें लेकिन अहम् सवाल यह है कि अखिलेश के सलाहकार उन्हें ऐसी सलाहें आखिरकर क्यों दे रहे है जिससे सरकार की किरकिरी हो। मुलायम सिंह, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने स्वयं कहा है कि कुछ नौकरशाह सरकार को फेल करने की साजिश रच रहे हैं लेकिन अहम् सवाल यह है कि अगर मुलायम और अखिलेश को अफसरों के नाम पता हैं तो वो कार्रवाई करने से बच क्यों रहे हैं? सवाल यह भी है कि कहीं सपा सरकार अपनी नाकामियों, गलतियों और बचकानी हरकतों को घड़ा अफसरों के माथे फोडक़र खुद को बेदाग साबित करने में तो नहीं जुटी है।

लखनऊ में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की मूर्ति तोडऩे के मामले में अपराधियों का घटना से पूर्व प्रेस क्लब में प्रेस वार्ता करना, लाल टोपी पहनकर मूर्ति तोडऩा, घटना में शामिल युवकों की सपा नेताओं के साथ फोटो सारी कहानी खुद-ब-खुद बयां करती है। माया मूर्ति मामले में टकराव और उपद्रव से डरी सरकार ने रातों-रात मूर्ति बदलवा तो दी लेकिन सरकार की किरकिरी और बदनामी तो हो ही गई। प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत संतोषजनक नहीं है। कोसीकलां, अस्थान, और बरेली में हुए संप्रदायिक हमले सरकार की कार्यप्रणाली, बदहाल कानून व्यवस्था और सरकारी मशीनरी पर ढीली पकड़ को साबित कर दिया है। सरकार अपने पक्ष में चाहे जितनी दलीलें पेश करे लेकिन सच्चाई यह है कि पिछले चार महीने में बेरोजगारी भत्ते, किसानों से किए वादों, बिजली, पानी और तमाम दूसरे मोर्चों पर सरकार फेल दिखाई दी है।

निकाय चुनावों में मिली सफलता और विजय ने भाजपा के खेमे में उत्साह का संचार कर दिया है। भाजपा लगभग हर छोटे-बड़े मुद्दे पर सरकार को घेरने और निशाना लगाने का मौका गंवा नहीं रही है। बसपा भी सरकार की नाकामियों, कमियों और बुराईयों को पुलिंदा तैयार कर रही है, जिसका इस्तेमाल लोक सभा चुनावों में जमकर किया जाएगा। सपा को घेरने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने फूलप्रूफ योजना बनाई है। सपा का मुस्लिम प्रेम और तरफदारी से पार्टी के परंपरागत वोट बैंक यादव बिरादरी और दूसरे जातियों को रास नहीं आ रही है। पार्टी के पास आजम खां के अलावा कोई दूसरा बड़ा मुस्लिम नेता नहीं है। आजम खां इस तथ्य से बखूबी वाकिफ है, वो सरकार को ब्लैक मेल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। आजम की हरकतों से अन्य मुस्लिम नेता नाराज हैं। वहीं पार्टी के पास ब्राहाम्ण, बनिया और व्यापारी वर्ग में भी प्रदेश स्तर का कोई बड़ा नेता फिलहाल नहीं है।

विधानसभा चुनावों से अधिक पथरीली और कांटों से भरी राह लोकसभा चुनावों की है ये बात मुलायम और अखिलेश को बखूबी मालूम है। मुलायम सिंह सोच-समझकर हर दावं चल तो रहे हैं लेकिन जिस तेजी से अखिलेश सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ गिर रहा है वो पार्टी की सेहत बिगाड़ सकता है। वक्त रहते अगर अखिलेश ने कानून-व्यवस्था, पुलिस-प्रशासन और सरकारी मशीनरी को नहीं कसा तो आने वाले दिनों में उनकी मुसीबतें घटने की बजाए बढ़ेगी, और लक्ष्य 2014 को भेद पाना आसान नहीं होगा।

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