वियना समझौते के मायने

viennaयदि हम ईरान और अयातुल्ला खुमैनी को जानते हैं, यदि हम रूस, चीन और मध्य-पूर्व एशिया के देशों से ईरान के गहरे रिश्तों को जानते हैं, और यदि हम अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्वकर्ता देशों को जानते हैं, तो यह कहने में हमें कोई हिचक नहीं होगी कि 18 दिनों की लंबी वार्ता के बाद दुनिया के 6 ताकतवर देशों और ईरान के बीच हुआ 14 जुलाई का वियना समझौता स्थाई नहीं है।
यह मानी हुई बात है, कि ईरान अपने संबधों का आधार नहीं बदलेगा और यूरो-अमरिकी साम्राज्यवाद वित्तीय ताकतों के गिद्धों का ऐसा समूह है, जो किसी भी देश के प्राकृतिक संपदा का मांस खाये बिना नहीं रह सकता। कह सकते हैं, कि दुनिया के बाजार में अमेरिकी डॉलर वित्तीय ताकतों का कारगर हथियार है। जिसका उपयोग अमेरिकी सरकार और साम्राज्यवादी ताकतें दुनिया की अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में रखने के लिये कर रही है, जिसका मकसद वैकल्पिक व्यवस्था को रोकना है।
और हम इस बात को जानते हैं, कि चीन के युआन ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में वैकल्पिक मुद्रा व्यवस्था की चुनौतियां खड़ी कर दी है। एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और ब्रिक्स बैंक की स्थापना भी हो गई है। जिसके प्रमुख सहयोगी ब्रिक्स देश- चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका है। रूस, चीन और लातिनी अमेरिकी देशों के संगठनों की साझेदारी ने तथा एशिया के गैर अमेरिकी देशों, जिसमें ईरान भी है, की साझेदारी ने, नये भौगोलिक कूटनीतिक और सामरिक समीकरण को जन्म दे दिया है। जिसके सामने गैर अमेरिकी वैश्वीकरण है। मुक्त व्यापार के नये क्षेत्रों की रचना करना है।
ईरान से हुए इस समझौते का सच यह है, कि यह समझौता ईरान को रूस और चीन के खेमे से निकालने की यूरो-अमेरिकी कवायद है, जिसमें रूस और चीन की भी मौजूदगी है और यहीं वह गंभीर सवाल है, कि क्या ओबामा सरकार और यूरोपीय देश इतने कामयाब हैं? क्या यह हो सकता है? इस समझौते के सबसे महत्वपूर्ण बिंदू के रूप में यह प्रचारित किया जा रहा है, कि ईरान अपने ऊपर लगे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध को हटाने की शर्त पर परमाणु हथियारों का निर्माण रोकने पर राजी हो गया है। जबकि सच यह है, कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम में परमाणु हथियार बनाने जैसी कोई बात ही नहीं है, और इस बात को अमेरिका और यूरोपयी देश भी जानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय पर्वेक्षकों की रिपोर्ट भी यही है। अमेरिकी गुप्तचर इकाई (सीआईए) की गुप्त रिपोर्ट से भी यही प्रमाणित होता है। इसके बाद भी उसे प्रतिबंधों का सामना बरसों करना पड़ा। जिसके खिलाफ रूस, चीन और उनके सहयोगी देशों एवं संगठनों का सहयोग ईरान को मिला।
क्या ईरान की कोई भी सरकार इस बात को भूल सकती है? या वह अपने कूटनीतिक एवं वित्तीय संबंधों का आधार बदल सकती है? ईरान के परमाणु कार्यक्रम की वजह से उस पर पश्चिमी देशों ने जो प्रतिबंध लगाये, उसकी वजह से ईरान की अर्थव्यवस्था को भारी नुक्सान उठाना पड़ा। अमेरिका के दबाव की वजह से ही यूरोपीय और अमेरिकी बैंकों में जमा किये गये धनराशि को जप्त करने से उसे 100 बिलियन डॉलर की क्षति हुई। उसके कई परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या कराई गयी, और इजरायल ने अमेरिका के साथ मिल कर ईरान के ‘न्यूक्लियर प्रोडक्शन कम्प्यूटर सिस्टम’ को एक वायरस के जरिये ‘हैक’ भी किया। ईरान के खाद्य पदार्थ और दवाओं के आयात को भी यूरो-अमेरिका ने रोक दिया। ईरान की अर्थव्यवस्था को तोड़ने, जन-असंतोष को बढ़ाने और उसकी राजनीतिक संरचना को बदलने की कोशिश की गई। दुनिया के सभी देशों पर प्रतिबंधों को लागू करने का दबाव बनाया गया।
और अब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस समझौते से ईरान का उपयोग रूस को कमजोर करने के लिये करना चाहते हैं। माना यही जा रहा है, कि यह समझौता रूस के विरुद्ध ओबामा की कूटनीतिक चाल है, जिसका मकसद रूस की अर्थव्यवस्था को ऐसा झटका देना है, कि वह वित्तीय संकट से उबर न पाये। जो काम वो यूक्रेन के माध्यम से करना चाहते थे, जहां उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, अब वो ईरान के माध्यम से करने की नीति पर चल रहे हैं। इस समझौते के तहत तेहरान अपने परमाणु क्षमता को कम से कम 10 सालों तक उल्लेखनीय ढंग से सीमित रखेगा, और इसके बदले में दुनिया की 6 बड़ी शक्तियां इस बात से सहमत हैं, कि ईरान के खिलाफ लगे अंतर्राष्ट्रीय तेल एवं वित्तीय प्रतिबंधों को वो हटा लेंगी। यह प्रतिबंध अमेरिका, यूरोपीय देश उनके सहयोगी देशों (इजरायल सहित) के द्वारा पिछले 12 सालों से ईरान पर थोपा गया था। जिसका घोषित लक्ष्य उसके परमाणु कार्यक्रमों को रोकना था, ताकि वह परमाणु हथियारों का निर्माण न कर सके। जबकि ईरान की ऐसी कोई योजना कभी नहीं थी।
इजरायल आज भी ईरान को अपने लिये और दुनिया के लिये खतरा मानने की नीति पर अड़ा हुआ है। उसके प्रधानमंत्री ने कहा है कि ईरान के साथ हुए इस परमाणु समझौते के बाद दुनिया कल के मुकाबले आज ज्यादा खतरनाक जगह बन गई है। उन्होंने कहा कि हम हमेशा अपना बचाव करेंगे, यह समझौता ईरान को सैंकड़ों बिलियन डॉलर का अप्रत्याशित लाभ देगा, जिसका उपयोग वह इजरायल को नष्ट करने के लिये अपनी ताकत को बढ़ाने में करेगा।

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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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