गांधी के चरखे से आत्मनिर्भर होंगे गांव

प्रमोद भार्गव

वैश्विक कोरोना महामारी के इस दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सरपंचों को संबोधित करते हुए इच्छा जताई है कि गांधी के अर्थशास्त्र के अनुसार ग्रामों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम शुरू हो। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय (एमएसएमई) के अधीनस्थ कार्यरत खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग ने फिलहाल 100 ग्रामों में 200 चरखे और 50 लूम देकर इस परियोजना को जमीन पर उतारना शुरू कर दिया है। इससे प्रत्येक गांव में 350 लोगों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। शुरुआत में बड़े पैमाने पर सादा, रंगीन और शोभायमान मास्क बनाए जाएंगे। हालांकि कई जगह ग्रामीण महिलाओं के जरिए यह सिलसिला शुरू भी हो गया है। दरअसल कोरोना महामारी ने भारत समेत दुनिया को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि जिस अर्थव्यवस्था का केंद्रीयकरण कर दिया गया है, व्यक्ति के स्वावलंबन और मानव स्वास्थ्य के लिए उसका विकेंद्रीकृत किया जाना अब जरूरी है। वैसे भी इस संकट काल में मास्क, सेनेटाइजर, वेंटिलेटर और पीपीई का उत्पादन कई गैर-तकनीकी लोगों ने कर यह जता दिया है कि भारतीय नागरिक ज्ञान परंपरा से मिली दक्षता के जरिए बहुत कुछ करने में सक्षम है। बशर्तें उसके उत्पादनों को बाजार मिलता रहे?गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के विचार का प्रतीक चरखा, प्रौद्योगिकी तकनीक और पाश्चात्य जीवनशैली के वर्चस्व के दौर में हस्तक्षेप किया है। आजीविका की बढ़ती जटिलता के चलते गांधी के सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धांत दुनिया को प्रासंगिक लग रहे हैं। चरखे द्वारा कपड़ा उत्पादन के सरोकार से जुड़ी यह व्यवस्था प्राकृतिक संपदा के यांत्रिक दोहन से लगातार असंतुलित हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को कायम रखने की दिशा में भी अहम् साबित होगी। कयोंकि यांत्रिकीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद से उपजी भोगवादी प्रवृत्तियों ने सृष्टि को ही आसन्न संकटों के हवाले छोड़ दिया है। बढ़ते औद्योगिक उत्पादन के चलते जलवायु परिवर्तन और दुनिया में बढ़ते तापमान जैसे विनाशकारी अनर्थ पृथ्वी को प्रलय में बदलने का कारण बन गए हैं। कोविड-19 सूक्ष्म जीव इसी का पर्याय है। इससे निपटने में चरखा की अहम् भूमिका सामने आ सकती है।गांधीजी ने केंद्रीय उद्योग समूहों के विरुद्ध चरखे को बीच में रखकर लोगो के लिए यांत्रिक उत्पादन की जगह, उत्पादन लोगों द्वारा होने का आंदोलन चलाया था। जिससे एक बढ़ी आबादी वाले देश में बहुसंख्यक लोग रोजगार से जुड़े और बढ़े उद्योगों का विस्तार सीमित रहे। इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा का उद्देश्य यांत्रिकीकरण से मानव मात्र को छुटकारा दिलाकर उसे सीधे स्वरोजगार से जोड़ना था। क्योंकि दूरदृष्टा गांधी की अंर्तदृष्टि ने तभी अनुमान लगा लिया था कि औद्योगिक उत्पादन और प्रौद्योगिकी विस्तार में सृष्टि के विनाश के कारण अंतनिर्हित हैं। आज दुनिया के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों से जल, थल और नभ को एक साथ दूषित कर रहे हैं। नतीजतन जलवायु परिवर्तन थामने के लिए औद्योगीकरण घटाने के लिए वैश्विक सम्मेलन हो रहे हैं, लेकिन परिणाम शून्य हैं।गांधी गरीब की गरीबी से कटु यर्थाथ के रूप में परिचित थे। इस गरीबी से उनका साक्षात्कार उड़ीसा के एक गांव में हुआ था। यहां एक बूढ़़ी औरत ने गांधी से मुलाकात की थी। जिसके पैबंद लगे वस्त्र बेहद मैले-कुचेले थे। गांधी ने साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना महिला की आदत समझी। इसलिए उसे हिदायत देते हुए बोले, ‘अम्मां क्यों नहीं कपड़ों को धो लेती हो?’ बुढ़िया बेबाकी से बोली, ‘बेटा जब बदलने को दूसरे कपड़े हों, तब न धो, पहनूं।’ महात्मा आपादमस्तक सन्न व निरुत्तर रह गए। इस घटना ने उनके अंर्तमन में गरीब की दिगंबर देह को वस्त्र से ढंकने के उपाय के रूप में ‘चरखा’ का विचार कौंधा दिया। साथ ही उन्होंने स्वयं एक वस्त्र पहनने व ओढ़ने का संकल्प लिया। देखते-देखते उन्होंने ‘वस्त्र के स्वावलंबन’ का एक पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया। लोगों को तकली-चरखे से सूत कातने को उत्प्रेरित किया। देखते-देखते चरखा स्वनिर्मित वस्त्रों से देह ढकने का एक कारगर अस्त्र बन गया।पिछले तीन दशक के भीतर उद्योगों की स्थापना के सिलसिले में भारत की जो नीतियां सामने आयी हैं उनमें अकुशल मानव श्रम की उपेक्षा शामिल है। कुछ इसी तरह का उपाय अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने ब्रिटेन में मशीनों से निर्मित कपड़ों को बेचने के लिए ढाका (बांगलादेश) में किया था। यहां के मलमल-बुनकरों के हस्त उद्योग को हुकूमत के बल पर नेस्तनाबूद तो किया ही, दो लाख बुनकरों के अंगूठे भी काट दिए गए थे। गांधी की सोच वाली आर्थिक प्रक्रिया की स्थापना में मानव और प्रकृति दोनों ही सुरक्षित हैं। जबकि मौजूदा आर्थिक हितों के सरोकार केवल पूंजीवादियों के हित साधते हैं और इसके विपरीत मानवश्रम से जुड़े हितों को तिरष्कृत करते हैं। साथ ही इनके आर्थिक हित केवल प्राकृतिक संपदा को नष्ट करने से सधते हैं। मानव समुदायों के बीच आर्थिक असमानता की खाई ऐसे ही उपायों से उत्तरोतर बढ़ती चली जा रही है।
चरखा और खादी परस्पर एक-दूसरे के पर्याय हैं। गांधी की शिष्या निर्मला देशपाण्डे ने अपने एक संस्मरण का उद्घाटन करते हुए कहा था, नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप तैयार करने से पहले आचार्य विनोबा भावे को मार्गदर्शन हेतु आमंत्रित किया था। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों के साथ हुई, बातचीत के दौरान आचार्य ने कहा कि ऐसी योजनाएं बननी चाहिए, जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। क्योंकि गरीब इंतजार नहीं कर सकता? उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। आप गरीब को काम नहीं दे सकते लेकिन मेरा चरखा ऐसा कर सकता है। वाकई यदि पहली पंचवर्षीय योजना को अमल में लाने के प्रावधानों में चरखा और खादी को रखा जाता तो मौसम की मार और कर्ज का संकट झेल रहा किसान तथा शिक्षित बेरोजगार आत्महत्या करने को विवश नहीं हो रहे होते।दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ हम प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरबपतियों-खरबपतियों की फोर्ब्स पत्रिका में छप रही सूचियों से निकालने लगे हैं। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोगतावादी संस्कृति से जुड़ा है। जबकि हमारे परंपरावादी आदर्श किसी भी प्रकार के भोग में अतिवादिता को अस्वीकार तो करते ही हैं, भोग की दुष्परिणति पतन में भी देखते हैं। अनेक प्राचीन संस्कृतियां जब उच्चता के चरम पर पहुंचकर विलासिता में लिप्त हो गईं तो उनके पतन का सिलसिला शुरू हो गया। रक्ष, मिश्र, रोमन, नंद और मुगल संस्कृतियों का यही हश्र हुआ। भगवान कृष्ण के सगे-संबंधी जब दुराचार और भोगविलास में संलग्न हो गए तो स्वयं कृष्ण ने उनका अंत किया। इतिहास दृष्टि से सबक लेते हुए गांधी ने कहा था, ‘किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। बेशक किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं बल्कि जनसाधारण का कोई व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है, यह होनी चाहिए।’ यह विडंबना ही कही जाएगी कि आज हम अंबानी बंधुओं की आय की तुलना उस आम आदमी की मासिक आय से करते हैं जो 26 और 32 रुपये रोज कमाता है। औसत आय का यह पैमाना क्या आर्थिक दरिद्रता पर पर्दा डालने का उपक्रम है?गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के चिंतन और समाधन की जो धाराएं चरखे की गतिशीलता से फूटती थीं, उस गांधी के अनुयायी वैश्विक बाजार में समस्त बेरोजगारों के रोजगार का हल ढूढ़ रहे हैं। यह मृग-मारीचिका नहीं तो और क्या हैं? अब तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के चलते रोजगार और औद्योगिक उत्पादन दोनों के ही घटने के आंकड़े सामने आने लगे हैं। कोरोना महामारी ने इस संकट को पूरी दुनिया में और बढ़ा दिया है। साफ है, भू-मण्डलीकरण ने रोजगार के अवसर बढ़ाने की बजाय एक तो घटाए हैं, दूसरे महानगरों में केंद्रीयकरण किया है। इससे आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और आवागमन की समस्याएं भयावह हुई हैं। ऐसे में चरखे से खादी का निर्माण एक बढ़ी आबादी को रोजगार से जोड़ने का काम कर सकता है। वर्तमान में भी करीब आठ हजार खादी आउटलेट्स हैं। इनसे सालाना सौ करोड़ रुपये की खादी का निर्यात कर विदेशी पूंजी कमाई जाती है। यदि घरेलू स्तर पर ही बुनकरों को समुचित कच्चा माल और बाजार मुहैया कराए जाए तो खादी का उत्पादन और विपणन दोनों में आशातीत वृद्धि हो सकती है। मास्क की इस समय पूरी दुनिया में मांग है। गोया, इनका भी निर्यात बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। चीन द्वारा इस समय घटिया मास्क, पीपीई, और वेंटिलेटर निर्यात किए जा रहे हैं। जिन्हें भारत समेत अन्य देशों ने अस्वीकार कर दिया है। ऐसे में भारत के लिए मास्क निर्यात की संभावनाएं बढ़ गई हैं। इस दृष्टि से चरखा एक सार्थक आर्थिक औजार के रूप में ग्रामीण परिवेश में ग्रामीणों के लिए एक नया अर्थशास्त्र रच सकता है।

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