विंध्य रेंज की एक विशिष्ट पुरापाषाणिक संस्कृति खत्म होने की कगार पर

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chitrkootचित्रकूट से तीस किलोमीटर दूर मानिकपुर के पास सरहट नामक स्थान पर प्राचीनतम शैलचित्र भारी संख्या में मौजूद हैं। ये तीस हजार साल पुराने बताए जाते हैं। पहले मैं भी मानता था की ये महज कुछ चित्रों का समूह बस है लेकिन इनका विस्तृत अध्ययन करने के बाद लगा की ये तो पाठा की पाषाणकालीन संस्कृति है जो बहुत बड़े विस्तृत क्षेत्र में फ़ैली हुई है । सरहट के पास ही बांसा चूहा, खांभा, चूल्ही में भी इस तरह के शैलचित्र मिलते हैं। सरहट के 20 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में करपटिया में 40 शिलाश्रयों का समूह दर्शनीय है।
यहां बिखरीं पड़ीं धरोहरें इतिहास के कालखंडों के रहस्यों को अपने गर्भ में छिपाए हैं।ये शैलचित्र यहां की प्राचीन शैली के गवाह हैं, पर संरक्षण के अभाव में ये जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर है। इतिहासविद् शैलचित्रों के आरंभ को ईसा पूर्व से ही जोड़ते हैं।

यह देखना आश्चर्यजनक है कि इन पेंटिंग्स में जो रंग भरे गए थे वो कई युगों बाद अभी तक वैसे ही बने हुए हैं. इन पेंटिंग्स में आमतौर पर प्राकृतिक लाल ,गेरुआ और सफेद रंगों का प्रयोग किया गया है।

प्राचीन इतिहास का छात्र होने के नाते जहाँ तक मुझे लगता है की पाठा संस्कृति का निवास स्थल श्रेष्ठतम है क्योंकि इस स्थल के बगल से चन्द दूरी पर कई स्थाई बरसाती नाले निकलते हैं । वहीं दूसरी ओर चट्टान असमान रूप से समतल है जैसे उन्हें किसी ने घिसकर बराबर किया हो । जैसी स्थिति मध्यकालीन किलो की होती थी वैसे ही सुरक्षित स्थिति इसकी भी है । जो शैलचित्र के पास ही बहुत बड़ा सा एक सपाट आँगन है जैसे वहीं पर हमारे पूर्वज अपने दैनिक कार्यक्रम करते रहे हो और स्थल के आसपास पत्थरों के बने दर्जनों चिकने चबूतरे हैं । एक सामान्य व्यक्ति भी इस बसावट को देखकर हमारे पूर्वजों के रहने की पुष्टि कर सकता है । वहीं पर पास में मुझे अप्रत्याशित रूप से एक पत्थर की मूर्ति भी देखने को मिली ।

यह पूरा स्थान ही पूर्वजों के हाथों और पैरों से घिसकर चिकना किया हुआ प्रतीत होता है और यहाँ चट्टानों का ऐसा चिकनापन प्रकृति के अपक्षय से नही हो सकता । सारी चट्टानें चींख चींख कर कह रही हैं की यहाँ एक मानव सभ्यता पनपी थी जिसे भरोसा न हो उसे मैं यहाँ आने का आमन्त्रण देता हूँ । प्राचीन इतिहास के शोध छात्रों का भी आह्वाहन करता हूँ की इसे अपना शोध का विषय बनायें । जैसे रस्सी के आने जाने से पत्थर पर निशान पड़ जाता है वैसे ही उन पूर्वजों के दैनिक कार्यों के कारण ये पूरा स्थल भी मानवकृत और चिकना हो गया है ।

प्राचीन इतिहास विषय के जानकार व पाठा क्षेत्र के विशेषज्ञ डाक्टर नवल पाण्डेय का मानना है की
“इन शैल चित्रों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी एक नई कला को जन्म दे सकती है । यह खोज युवा पीढ़ी की खोज है जिसने ये साबित कर दिया की किताबों में लिखे पुरातात्विक ध्वंसावशेष आज भी जीवित अवस्था में है ।”

ये महज एक चित्र की कहानी नही है बल्कि ये पाठा में पनपी एक बड़ी पुरापाषाणकालीन संस्कृति है और जैसे सिंधु घाटी सभ्यता की खोज बहुत बाद में हुई लेकिन आज वह श्रेष्टतम मानव संस्कृतियों में से एक है ।उसी प्रकार पाठा की ये संस्कृति भी तमाम रहस्य समेटे हुए है और समकालीन पाषाण संस्कृतियों में सबसे आगे निकल सकती है ।

इस पाठा संस्कृति के अवशेष इसलिए भी नष्ट हो सकते है क्योंकि इससे एक किमी दूर ही अवैध खनन माफियों द्वारा वोल्डरों का खनन जारी है । इसलिये सरकार इसे तुरन्त सरंक्षित क्षेत्र घोषित करें .

 

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