गणतंत्र में हिंसक आंदोलन स्वीकार्य नहीं

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अरविंद जयतिलक

भारत एक संवैधानिक व लोकतांत्रिक देश है। यहां हर नागरिक, संगठन व समुदाय को अपनी बात सकारात्मक ढंग से रखने और जनतांत्रिक तरीके से विरोध व आंदोलन करने का अधिकार है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि आंदोलन की आड़ में देश की गरिमा और लोकतंत्र की मर्यादा को ही धूल धुसरित कर दिया जाए। गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली में उपद्रवियों ने कुछ ऐसा ही शर्मनाक कृत्य किया जिसके लिए पूरी तरह किसान प्रतिनिधि ही जिम्मेदार है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने भरोसा दिया था कि ट्रैक्टर रैली तय किए गए रास्तों के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से निकाली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उपद्रवियों ने जमकर मनमानी की। तोड़-फोड़ के अलावा पुलिसकर्मियों को निशाना बनाया। हद तो तब हो गयी जब वे लालकिले के प्राचीर पर चढ़ तिरंगा के समानांतर झंडा लगाने से भी नहीं चूके। यह कृत्य अक्षम्य, गणतंत्र से गद्दारी और देश विरोधी है। आंदोलनरत किसानों को समझना होगा कि केंद्र सरकार उनकी दुश्मन नहीं बल्कि हितैषी है। जब सरकार उनकी बात सुनने को तैयार है और यहां तक कि कृषि कानून बिल को डेढ़-दो साल तक टालने एवं सर्वोच्च अदालत द्वारा तय समिति से जुड़े विशेषज्ञों के सुझाव पर अमल को तैयार है तो फिर क्या किसान प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी नहीं थी कि वे भी  सकारात्मक रुख दिखाएं। लेकिन उन्होंने ऐसा न कर और गणतंत्र दिवस पर अराजकता का प्रदर्शन कर रेखांकित कर दिया कि उनकी प्राथमिकता में किसानों का हित है ही नहीं। बल्कि इस आंदोलन के पीछे उनका निजी स्वार्थ है। अब तो ऐसा प्रतीत होने लगा है मानों किसान प्रतिनिधि वास्तविक किसानों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के मोहरे हैं। देखा भी जाए तो आंदोलन का हिस्सा बने अधिकांश किसान संगठनों के नुमाइंदे राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। फिर ऐसे में समझना कठिन नहीं रह जाता कि आखिर किसान प्रतिनिधियों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ता के बाद भी बात क्यों नहीं बन पायी। दरअसल अधिकांश किसान प्रतिनिधियों का मकसद किसानों का भला चाहना नहीं बल्कि अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाना है। यहीं वजह है कि वे नए कृषि कानूनों में बदलाव और संशोधन के बजाए नए तीनों कानून को पूरी तरह से रद्द किए जाने की मांग पर अड़े हैं। दरअसल उनका मकसद किसान आंदोलन की आड़ में केंद्र सरकार को किसान विरोधी ठहरा अपनी काली सियासत को परवान चढ़ाना है। किसानों को ऐसे किसान प्रतिनिधियों का मोहरा बनने से बचना चाहिए। ऐसा इसलिए कि उनके आंदोलन से न सिर्फ जनजीवन बाधित हो रहा है बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ रहा है। उद्योग चैंबर एसोचैम कहै किह चुक किसान आंदोलन से देश को हर दिन 3500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यह नुकसान लाॅजिस्टिक लागत बढ़ने, श्रमिकों की कमी तथा टुरिज्म जैसी कई सेवाओं के न खुल पाने की वजह से हो रहा है। उद्योग चैंबर कंफरडेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआइआइ) ने भी आशंका जाहिर की है कि पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था को किसान आंदोलन से काफी नुकसान पहुंच रहा है। जानना जरुरी है कि तीन नए कृषि कानूनों को समाप्त करने की मांग को लेकर किसान आंदोलनरत हैं। जबकि सरकार किसानों की हर मांग तार्किक आधार पर स्वीकारने और उनके मन में उपजी आशंका को दूर करने के लिए तैयार है। सरकार लगातार भरोसा दे रही है कि नए कृषि कानून से किसानों का अहित नहीं होगा बल्कि उन्हें पहले से कहीं ज्यादा फायदा होगा। सरकार ने सुनिश्चित किया है कि वर्तमान में जारी एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य आगे भी जारी रहेगी। सरकार दीवानी अदालतों में अपील के लिए कृषि कानून में संशोधन के लिए भी तैयार है। सरकार किसानों को भरोसा दे रही है कि कोई भी खरीददार कृषि जमीन पर कर्ज नहीं ले सकेगा। किसानों के लिए बिजली बिल भुगतान की व्यवस्था में भी कोई बदलाव नहीं होगा। पराली अध्यादेश को लेकर भी सरकार उपयुक्त समाधान के लिए तैयार है। गौर करें तो सरकार किसानों की हर आशंका को दूर करने और वाजिब सुझावों को मानने के लिए तैयार है। लेकिन किसान हैं कि मानने को तैयार ही नहीं। जबकि इस संदर्भ में किसान प्रतिनिधियों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी है। किसानों की बस एक ही जिद्द है कि सरकार हर हाल में तीनों कृषि कानूनों को रद्द करे। लेकिन सरकार कानून को रद्द किए जाने के बजाए उसमें संशोधन की बात कर रही है। नतीजा किसान राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले हुए हैं। उनके द्वारा कई बार राजमार्ग बाधित किए जाने से सड़क, टोल प्लाजा, रेलवे ट्रैक े ठप्प हो चुका है। वस्तुओं की कम आपूर्ति से दैनिक उपभोग की वस्तुओं में कमी आयी है। कीमतें आसमान छू रही हंै। निर्यात बाजार की जरुरतें पूरी करने वाली इंडस्ट्री आॅर्डर पूरे नहीं कर पा रही हैं। इससे न सिर्फ देश में ही बल्कि वैश्विक जगत में भी देश की छवि को बट्टा लग रहा है। गौर करें तो इस आंदोलन का सर्वाधिक नुकसान पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर जैसे परस्पर जुड़े आर्थिक क्षेत्रों वाले राज्यों को उठाना पड़ा है। ऐसा इसलिए कि ये राज्य कृषि एवं वानिकी के अलावा फूड प्रोसेसिंग, काॅटन टेक्सटाइल्स, आफटोमोबाइल, फार्म मशीनरी तथा आईटी जैसे कई प्रमुख उद्योगों के केंद्र हैं। इन राज्यों में टूरिज्म, टेªडिंग, ट्रांसपोर्ट और हाॅस्पिटलिटी जैसे सर्विस सेक्टर मजबूत स्थिति में हैं। इनसे लाखों लोगों की आजीविका चलती है। देखें तो इन राज्यों की संयुक्त अर्थव्यवस्था 18 लाख करोड़ रुपए की है। अब तक रेलवे को भी कई हजार करोड़ का नुकसान पहुंच चुका है। अगर यह आंदोलन और आगे खींचता है तो आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ना तय है। आर्थिक जानकारों की मानें तो गैर जरुरी आंदोलनों वजह से अर्थव्यवस्था को हर वर्ष सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का नौ प्रतिशत के बराबर नुकसान पहुंचता है। भारत की बात करें तो यहां आए दिन आंदोलन होते रहते हैं। आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो तीनों नए कृषि कानूनों के लागू होने से किसानों को तो फायदा होगा ही अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान भी बढ़ेगा। सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाॅजी (सिफेट) की मानें तो रखरखाव एवं बेहतर भंडारण के अभाव में हर वर्ष एक लाख करोड़ रुपए के कृषि उत्पाद खराब हो जाते हैं। लेकिन अगर नए कृषि कानून लागू होते हैं तो इससे बाजार खुलेंगे जिससे कृषि निवेश बढ़ेगा।  हर रोज 225 करोड़ रुपए के कृषि उत्पादों की बर्बादी रुकेगी। ऐसा इसलिए कि नए बाजार खुलने से सप्लाई चेन बेहतर होगा, भंडारण व्यवस्थ मजबूत होगी तथा ट्रांसपोर्ट से किसानों के नुकसान को काफी हद तक रोकने में मदद मिलेगी। यह सच्चाई है कि पुराने कानूनों से ट्रांसपोर्ट व भंडारण के लिए निजी बुनियादी ढांचा खड़ा नहीं हो सकता था। सच यह भी है कि नए बाजार न खुलने से किसान अपने उत्पादों को मंडियों में औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर होता है। लेकिन नए कानून  के लागू होने और कृषि में निवेश बढ़ने से गांवों में कोल्ड चेन की बुनियाद मजबूत होगी और उसका सर्वाधिक फायदा किसानों को होगा। लेकिन बिडंबना है कि किसान इस सच्चाई को समझने को तैयार नहीं है। वे राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।

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