हिंसक होते बच्चे: कहां गुम हो गया बचपन?

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र
वर्तमान अच्छा होगा तभी सुरक्षित भविष्य की कल्पना की जा सकती है। बच्चे जो वर्तमान का भविष्य होते हैं आज उनकी क्रूरता देखकर यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य खतरे में है। पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चों के जो कू्ररतम कृत्य सामने आये हैं वो बेहद हतप्रभ करने वाले हैं। राजधानी दिल्ली में घटित निर्भया कांड में नाबालिग का नाम सामने आने पर बालिग-नाबालिग की तय उम्र सीमा पर एक नई बहस छिड़ गई थी। बढ़ते एकल परिवार के प्रचलन ने सामाजिक समरसता को झकझोर के रख दिया है। मौजूदा परिवेश में रिश्तों की अहमियत कमजोर पडऩे लगी है। मां-बाप के बेरुखी का असर बचपन पर साफ नजर आ रहा है। आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव के चलते लोगों में अधिक धन अर्जन करने की लालसा काफी बढ़ गई है। मां-बाप बच्चों के प्रति अपने दायित्वों को भूल गए हैं। शायद इसी की नतीजा है कि बुढ़ापे में बच्चे भी उनको वृद्धा आश्रम तक पहुंचाने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं।
हाल के दिनों में 8 सितंबर, 2017 को गुरुग्राम के भोंडसी गांव के निकट स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल के छात्र प्रद्युम्न की स्कूल के बाथरूम में गला रेतकर हत्या कर दी गई थी। इस मामले जांच कर रही पुलिस की एसआईटी ने स्कूल बस के कंडक्टर अशोक कुमार को आरोपी मानते हुए गिरफ्तार किया था। एसआईटी की इस कार्रवाई से असंतुष्ट प्रद्युम्न के परिजनों ने मामले में सीबीआई की जांच की मांग की थी, जिसके बाद सीबीआई की जांच में अलग थ्योरी निकलकर सामने आई, जिसमें 11वीं के छात्र को आरोपी ठहराया गया। ऐसा ही मामला 16 जनवरी, 2018 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सामने आया। यहां ब्राइट लैंड कॉलेज के वाशरूम में कक्षा एक का छात्र रितिक घायल अवस्था में मिला। जांच में पता चला कि 11वीं की छात्रा ने मात्र इस वजह से उसे चाकू मारा था कि इसी बहाने से स्कूल में छुट्टी हो जाएगी। इसी तरह की एक और घटना 20 जनवरी, 2018 को हरियाणा के यमुनानगर स्थित एक निजी स्कूल स्वामी विवेकानंद में घटित हुई। यहां 12वीं में पढऩे वाले छात्र शिवांश ने स्कूल की प्रिंसिपल रीतू छाबड़ा की गोली मारकर हत्या कर दी। वजह इतनी सी थी कि उसकी हरकतों के चलते उसे स्कूल से सस्पेंड कर दिया गया था। इस तरह की घटनाएं यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आने वाला भविष्य कैसा होगा?
हिंसक होते बच्चे कब क्या कर गुजरें कुछ कहा नहीं जा सकता। क्रूर होते बचपन के लिए हम और हमारा समाज ही जिम्मेदार है। समाज में बढ़ रही विकृतियों का विरोध करने की जगह हम उसे स्वीकारने लगे हैं और इसेे रोकने की जिम्मेदारी केवल कानून की ही है ऐसा मानकर हम कुछ करने की जहमत नहीं उठाते हैं। शायद यही वजह है कि आज हमारे सामने तलाक, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड, वूमेन लाइल-1090, एंटीरोमियो जैसे कानून हमारे सामने हैं। एक समय था कि भारतीय सभ्यता में संबंध विच्छेद का कोई स्थान नहीं था। लेकिन बदलते परिवेश ने संस्कृति व सभ्यता को ऐसा प्रभावित किया कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एंटीरोमियो का गठन तक करना पड़ गया। हमारा समाज इस बात को स्वीकार कर रहा है कि एंटीरोमियो में काफी खांमियां है पर इसके गठन की आवश्यकता क्यों पड़ी इस पर कोई चिंतन नहीं कर रहा है। बच्चों के प्रभावित होते भविष्य को लेकर समय-समय पर संगोष्ठि व चिंतन जैसे कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं। पर ऐसे विषयों पर कुछ ठोस पहल करने की बात की जाए तो हो सकता है कि कुछ गिने-चुने लोग ही ऐसे मिले जो अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन कर रहे हों। हिंसक होते बच्चों के लिए घर से लेकर स्कूल तक सभी जिम्मेदार हैं। मां-बाप जहां अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं वहीं स्कूल के पाठ्क्रमों से महापुरुषों की जीवनी से संबंधित विषय गायब होते जा रहे हैं।
समाज व स्कूल में घट रही घटनाओं पर मात्र चर्चा करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जरूरत है इसका सही हल निकालने की। मां-बाप को भी यह तय करना होगा कि बच्चा उनका है तो उसके प्रति जिम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है। मोबाइल, इंटरनेट, वीडियो गेम के भरोसे बच्चों के बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। बेहतर कल बनाना है तो वर्तमान के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा। समय रहते इस विकृति को नहीं रोका गया तो वृद्धाश्रम इसी तरह से बढ़ते रहेंगे और बुढ़ापा अपनों के बगैर ही काटना पड़ेगा। इसके लिए बच्चों को सुधारने से पहले बड़ों को खुद सुधरना होगा। उन्हें अपने दायित्वों का निर्वाहन करते हुए बच्चों को बचपन का एहसास कराना होगा, उचित मार्गदर्शन करना होगा तभी बेहतर भविष्य की परिकल्पना की जा सकती है।

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