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विश्वास में बसा है यहाँ! - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
विश्वास में बसा है यहाँ, सारा सिलसिला; मिट जाता जो भी आता, जगती जड़ का ज़लज़ला! चैतन्य सत्ता सतत रहती, शून्य समाई; अवलोके लोक लुप्त भाव, ललित लुभाई! लावण्य हरेक गति में रहा, हर लय छाई; लोरी लिए ही लखते रहो, उनकी खुदाई! खेलो खिलाओ वाल सरिस, बुधि न लगाओ; कान्हा की श्यामा श्याम रंग, घुल मिल जाओ! वसुधा हुई है ध्यान मग्न, काल भुलाईं; ‘मधु’ कोंपलों में परागों का, प्राण है ढला! ✍? गोपाल बघेल ‘मधु’