गैरकांग्रेसवाद से कांग्रेसवाद की यात्रा का गांधी मैदान

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anu 2उमेश चतुर्वेदी

पटना के गांधी मैदान की रैलियां सियासी बदलाव का प्रतीक रही हैं..27 अक्टूबर 2013 को इसी मैदान में प्रधानमंत्री पद के बीजेपी तत्कालीन उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने हुंकार रैली की थी..बम धमाकों के बीच हुई इस रैली ने देश का सियासी इतिहास बदल दिया…नरेंद्र मोदी इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं..इन्हीं मोदी के खिलाफ बीते 30 अगस्त को बिहार के सत्ताधारी महागठबंधन ने रैली की। इस रैली की खास बात यह भी रही कि इसके मंच पर उस कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी भी मौजूद रहीं, जिनकी पार्टी के खिलाफ मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन के दोनों बड़े नेताओं ने इसी मैदान में चालीस साल पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण की रैली में दरी-जाजिम बिछाई थी और तब तानाशाही का प्रतीक बन चुकी कांग्रेस के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। इन अर्थों में देखें तो बीते तीस अगस्त को हुई गांधी मैदान की रैली ने गैरकांग्रेसवाद के लोहिया के 52 साल पुराने नारे को एक तरह से खारिज कर दिया…दिलचस्प यह है कि जिन लोगों ने कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के साथ मंच साझा किया, वे शरद यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार खुद को लोहिया का अनुयायी कहते नहीं थकते।

लोहिया को जिन लोगों ने पढ़ा है, वे निश्चित तौर पर जानते हैं कि उन्होंने साठ के दशक में भारत की गरीबी को लेकर तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस लोकसभा में छेड़ी थी। जिसकी अनुगूंज भारतीय राजनीति में इतनी गहराई से सुनी गई कि 1967 आते-आते देश में सियासी रूप से अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस का नौ राज्यों से बिस्तर गोल हो गया। जनता ने वैकल्पिक धारा के तौर पर समाजवादी विचार और राजनीति को इन राज्यों में अपनी रहनुमाई का मौका दिया था। गैरकांग्रेसवाद के कोख से उपजी इसी सियासी धारा के उत्तराधिकारी शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार हैं। 1973-74 के मशहूर बिहार छात्र आंदोलन के अगुआ नेताओं में लालू यादव का भी नाम था। तब नीतीश पहली पंक्ति के नेता नहीं बन पाए थे। अलबत्ता वे भी इन्हीं लोगों के साथ थे। इन्हीं लोगों के आंदोलन के बाद देश में बदलाव की राजनीति का सपना लेकर आगे आए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 5 जून 1975 को पटना के गांधी मैदान से ही संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था..जयप्रकाश की इस रैली को आठ साल पहले हुई डॉक्टर राममनोहर लोहिया की रैली का विस्तार माना जाना चाहिए..1967 में इसी मैदान में जुटे करीब 70 हजार लोगों के बीच डॉक्टर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा देते हुए बिहार की तत्कालीन कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा दिया था..समाजवादी विचार के जरिए बदलाव का सपना देखने वालों के मन में निश्चित तौर पर महागठबंधन की रैली और उस रैली में कांग्रेस से गलबहियां करते देखा। ऐसे में यह सवाल जरूर उठेगा कि क्या अब भी महागठबंधन के लोग खुद को लोहिया का अनुयायी कहने के अधिकारी रह गए हैं…

चुनावी घमासान के बीच आरोपों और प्रत्यारोपों का दौर भारतीय राजनीति का स्थायीभाव बन चुका है। भारतीय राजनीति में यह जुमला भी सहज स्वीकार्य हो गया है कि राजनीति में कोई भी दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती। गैरकांग्रेसवाद की उपज लालू यादव तो नब्बे के दशक से ही कांग्रेस के साथ हैं। हां नीतीश का अब तक का ऐसा इतिहास नही रहा है। महागठबंधन में उनके साथ आने के साथ ही गैरकांग्रेसवाद से शुरू हुई उनकी सियासी यात्रा का अहम पड़ाव कांग्रेस बन गई है। उनसे कभी इसे लेकर कोई सवाल पूछेगा भी तो निश्चित मानिए, सियासी दोस्ती-दुश्मनी वाला बयान शब्दों की नई रंगत के साथ पेश करके वे गैरकांग्रेसवाद को मौजूदा हालात में अप्रासंगिक भी बता देंगे…लेकिन खुद को लोहिया का अनुयायी मानने से इनकार नहीं करेंगे…लेकिन विधानसभा चुनावों में बिहार की जनता ने उनकी अगुआई वाले गठबंधन को बहुमत दे दिया तो तय मानिए कि कांग्रेसवाद की नई राजनीतिक धारा को भारतीय राजनीति में सैद्धांतिक रूप से स्थापित करने में मदद मिलेगी। अगर जनता ने इसके बावजूद नीतीश की अगुआई वाले महागठबंधन को चुनावों में नजरंदाज कर दिया तो गैरकांग्रेसवाद से शुरू नीतीश के सियासी सफर के कांग्रेसवादी मुकाम पर भी सवाल उठेंगे। ऐसा नहीं कि नीतीश को इस खतरे और इस कामयाबी का अहसास नहीं होगा, लेकिन अपनी सियासी जिद्द को पूरा करने और उसे सही साबित करने के लिए उन्होंने सोनिया के साथ मंच साझा करने का खतरा भी उठा लिया है.

महागठबंधन की स्वाभिमान रैली में प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर रहना ही था, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन उन्हें ही चेहरे के तौर पर पेश कर रहा है। बिहार चुनाव की धुरी भी खुद प्रधानमंत्री मोदी बने हुए हैं। प्रधानमंत्री ने निश्चित तौर पर बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान करते हुए अपनी रौ में थोड़ी तुर्शी जरूर बरती थी। इसे लेकर मीडिया और सियासी हलकों में सवाल भी उठे। लेकिन नीतीश कुमार की अब तक की छवि शांत और शालीन राजनेता की रही है। लेकिन महागठबंधन की स्वाभिमान रैली में जिस तरह उन्होंने मोदी पर हमले किए, उससे उनकी शालीन छवि पर सवाल जरूर उठा है। प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ सोनिया गांधी के तल्ख तेवर तो समझ में आते हैं। दस साल से जारी उनकी सत्ता को मोदी ने ना सिर्फ छीन लिया है, बल्कि गाहे-बगाहे कांग्रेस सरकार की अहम नीतियों को बीजेपी की सरकार बदल भी रही है। लेकिन शरद यादव और नीतीश कुमार की तल्खी इसलिए समझ से परे है, क्योंकि उन्हें जो सत्ता हासिल है, उसमें भारतीय जनता पार्टी का भी बड़ा सहयोग रहा है। तो क्या यह मान लिया जाय कि कहीं न कहीं नीतीश और उनके जनता दल यू को यह लगने लगा है कि अगले चुनावों में उनके हाथ से सत्ता फिसल सकती है। जिस तरह उन्होंने 116 विधायक होने के बावजूद खुद सौ सीटों पर लड़ने का विकल्प चुना है। जिस ढर्रे पर मौजूदा राजनीति चल रही है, उसमें त्याग और तपस्या सिर्फ जुमलेबाजी की चीजें रह गईं हैं। इस लिहाज से नीतीश का 16 सीटों पर दावा छोड़ना कोई राजनीतिक त्याग या तपस्या नहीं है, बल्कि मजबूरी है। वैसे तो बीजेपी के साथ गठबंधन के वक्त 2010 में जनता दल यू ने 141 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस लिहाज से देखा जाय तो जेडीयू ने 41 सीटों का दावा छोड़ दिया है। राजनीति में अपने दांव उलटे पड़ते नजर आते हैं, सियासी दल तभी ऐसे कदम उठाते हैं। मोदी की हर बात का खीझे अंदाज में जवाब देने के नीतीश के अंदाज से भी साफ है कि वे बौखला गए हैं और अपनी नाराजगी छुपा नहीं पा रहे हैं। गैरकांग्रेसवाद के नारे के गवाह रहे गांधी मैदान की रैली में भी नीतीश का यही अंदाज छाया रहा। गांधी मैदान में एक बात और गौर करने लायक रही। लालू यादव ने भले ही दमदार भाषण दिया..लेकिन उनके चेहरे के भाव बदले-बदले से नजर आए। साल 2000 से अपने साथी रहे लालू यादव के साथ सोनिया ने बैठने की बजाय नीतीश के साथ वाली सीट पर बैठना गवारा किया…जाहिर है कि लालू इससे निराश नजर आ रहे थे..

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