एकान्त का सूनापन

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विजय निकोर

ठिठुरता गहन सन्नाटा भीतर,

अति निज कमरों का एकान्त

अब और सुनसान –

वर्ष पर वर्ष बीत जाते हैं

पर जानें क्यूँ कोई दिन

एक वत्सर हों जैसे,

बीताते नहीं बीतते,

कोई दिन

क्यूँ नहीं बीतते ?

 

सीलन लगी दीवार पर

फफोले-से पलस्तर को कोई

छीलता रहता हो जैसे

एकान्त के सुनसान में

कुछ ऐसे ढलते हैं वह

दिशाविहीन

दु:खमय

दु:साध्य दिन ।

 

समय की अनावृत दीवारों पर

इतिहास के पलस्तर को छील-छील

कुछ मिलता है कया ? —

खुरदरी ईंटों के सिवा,

उखड़ी सीमेन्ट के सिवा ?

नाखुन उतर आते हैं

लहू बहता है, तब …

तब बहुत दर्द होता है न !

 

हर ईंट अन्य ईंटों से प्रथक

फिर भी दीवार से कोई

रहस्यमय

मौलिक संबंध जोड़्ती,

थामे रहती है उसको

समय की चार-दीवारी में …

किसलिए ? … किसलिए ?

 

निशाचर से घूमते हैं कमरों में

बिम्ब उन रातों के

जो परिपूर्णता तो क्या

परिपूर्णता की सम्भावना भी

खो चुकी हैं कब से,

सूक्षम, अति सूक्ष्म स्मृतियाँ

बुलबुलों-सी तैरती,

एकान्त के सुनसान को भंग करती —

कमरे की हवा की गन्ध

इस खंडहर में

हर ईंट की आयु कह देती है ।

 

2 COMMENTS

  1. जी हाँ, वह भी देखा है .. भगवान दया के सागर हैं न !
    धन्यवाद ।
    विजय निकोर

  2. कभी कभी होता है ऐसा समय का पलस्तर सब ठीककर देता है।कमरों के सन्नाटे मुस्कुराने लगते हैं चहकने लगते हैं।
    अच्छी कविता

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