वोट-दिमाग’ में दूरियों से पराभव!

– देवेश शास्त्री

हाल के चुनाव में समाजवादी पार्टी के पराभव के दो पखवाड़े के बाद अपनी
चुप्पी तोड़ते हुए नेताजी ने ऐसा दुखड़ा ‘‘5 साल तक निरंतर होता रहा
अपमान’’ रोया, जो भारतीय राजनीति में नये समीकरण का उद्गम सिद्ध होगा।
अपने हृदयोद्गार को संतुलित अंदाज में व्यक्त किया-‘‘अखिलेश के पास दिमाग
है, मगर वोट नहीं।’’ स्पष्ट है दिमाग और वोट की दूरियों से ही अपने ‘‘रजत
जयन्ती वर्ष’’ में समाजवादी पार्टी का पराभव हो गया। नेताजी की सियासत के
40 वर्षीय सफलतम सफर पर अपने ही बेटे ने विराम लगा दिया। तभी तो नेताजी
बोले- ‘‘जो बाप का नहीं, वो किसका हो सकता है’’ पीएम मोदी के इस वक्तव्य
ने तख्ता पलट दिया। प्रस्तुत आलेख में नेताजी के ताजा-वक्तव्य को
इर्द-गिर्द के हालातों से जोड़कर प्रत्याशित समीकरणों का अनुमान लगाया गया
है।
………
‘‘अर्द्धसदी के सियासी जीवन में नेता प्रतिपक्ष रहे हों, सहकारिता मंत्री
या कई बार मुख्यमंत्री अथवा केन्द्रीय रक्षामंत्री, कभी कहीं भी इतना
अपमान नहीं हुआ, जितना अब हुआ, वह भी 5 साल पहले तब शुरू हो गया था जब
अपने वेटे को मुख्यमंत्री बनाया था। 2012 से अपमान की गति 2017 आते-आते
बढ़ती गई और अपने चरम पर पहुच गई। अंततः स्वयं खून पसीना बहाकर बनाये गये
महल रूपी ‘समाजवादी पार्टी’ का स्वामित्व ही समाप्त कर दिया गया। उसके फल
स्वरूप ‘‘काम बोलता है’’ का दिमाग ही निष्फल हो गया। पार्टी रसातल में
जली गई ऐसे में नेताजी की अन्तर्वेदना के प्रत्येक शब्द भाव- प्रवाह के
ऐसे रहस्य खोलते हैं, जिन्हें समझने का प्रयास करें।
‘दिमाग और वोट’ का स्पष्ट भाष्य इस तरह है, नेताजी के विशेषण ‘धरतीपुत्र’
से तात्पर्य वोट से है, जो एक जनसेवक के राजधर्म वोट-रक्षक सिद्ध करता
है इसमें वोटवृद्धि की भी सामथ्र्य प्रमाणित करता है। वहीं प्रोफेसर साहब
‘दिमागदार’ हैं, जिन्हें ‘थिंकटेंक’ की संज्ञा दी जाती हैं।
जनप्रिय शिवपाल सिंह में जनसेवक के राजधर्म वोट-रक्षा एवं वोटवृद्धि की
क्षमता देखी जाती है, यही कारण है कि ‘‘हर कीमत पर विधानसभा में न
पहुंचने देने की पारिवारिक क्लेशजन्य संकल्पशक्ति’’ को छिन्न-भिन्न कर
जसवंतनगर सीट अपने कब्जे में बनाये रखी। यही सत्य नेताजी की जुवान पर आ
गया कि ‘‘अखिलेश के पास दिमाग तो है, मगर वोट नहीं।’’
अखिलेश-प्रोफेसर साहब यानी द्विगुणात्मक दिमाग के प्रयोग ने वोट रूपी
‘‘सानुज-नेताजी’’ को हासिये पर डाल दिया, निर्वाचन आयोग में दिमागी
चमत्कार ने ‘दल-सिम्बल’ पर कब्जेदारी को सत्ता में वापसी का फितूर ला
दिया। दिमाग ने माना ‘काम-बोलेगा’ किन्तु संसदीय लोकतंत्र की प्राणवायु
‘वोट’ है, जो मंशा, मनोभाव, जनसेवात्मक परमार्थ, आचरण और चरित्र के प्रति
आकृष्ट होता है। चुनाव प्रचार में मोदी के कथन ‘‘जो अपने बाप का नहीं
हुआ, वो किसका होगा?’’ ने दिमागदार को वोट-शून्य कर दिया। जिस रहस्य को
नेताजी ने अनुभव किया, और अंततः जुबान पर भी आ गया।
अपमान का उद्गम अनुज शिवपाल की बजाय आत्मज अखिलेश को कुर्सी पर बिठाना
रहा, जो अपवाद सिद्ध हुआ। नेताजी का कथन ‘‘ किसी ने भी अपने जीते जी बेटे
को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, मैने बनाया, जो बहुत बड़ी गलती थी।’’ क्या सहज
यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं है? नेताजी की इस गलती ने पार्टी में ऐसी खाई
खोद दी जिसका एक किनारा दूसरे तट को परस्पर नीचा दिखाने में जुट गया। खाई
के एक ओर वोट विहीन दिमाग था और दूसरी ओर परिष्कृत वोट।
कुल मिलाकर नेताजी के कनिष्ठ पुत्र प्रतीक और विष्टात्मजा पुत्रवधू
अपर्णा का अखिलेश-डिम्पल के समानान्तर उपक्रम का प्रतिफल किस रूप में
होगा? यह प्रश्न सियासी इतिहास में इस पंक्ति से समझा जा सकता है
‘‘इन्दिरासन खाली करो मेनका आती है’’ जब नेहरू-गांधी परिवार के अंतर्कलह
की परिणति में इन्दिरा की पुत्रवधू मेनका व पौत्र वरूण को समानान्तर
भाजपा में आना पड़ा था।
नेताजी की पत्नी साधना का कथन ‘‘प्रतीक को राजनीति में लाना होगा।’’
स्पष्ट संकेत है अखिलेश के समानान्तर खड़ा करना। उस पर भी मोदी प्रशंसक
अपर्णा का सत्ता परिवर्तन के एक पखवाड़े में सीएम योगी आदित्यनाथ से
‘विशिष्ट पीहर-विष्ट घराने से’’ नाता जोड़कर तीन बार अपने पतिदेव को साथ
लेकर मिलना बहुत कुछ संकेत देता है।
अब इस कयास को नेता जी के दुखड़ा रोकर ‘‘अपमानित’’ होने की स्वीकारोक्ति
से और बल मिलता है। निश्चित रूप से योगी-हुकूमत के शपथ ग्रहण समारोह में
नेताजी की मोदीजी से कानाफूसी के रहस्य का पटाक्षेप नेताजी की ताजा
कारुणिक अभिव्यक्ति और अखिलेश के समानान्तर प्रतीक के भविष्य की
संभ्ज्ञावना से हो गया।

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